मोदी सरकार की नई शिक्षा नीति वास्तविकता से कोसों दूर है, भारतीय वोटर अंग्रेजी मीडियम की शिक्षा चाहता है
अगर मोदी सरकार सैद्धांतिक पूर्वाग्रह के चलते देसी भाषा को बच्चों की पढ़ाई का मीडियम बनाने पर ज्यादा ज़ोर देने की कोशिश करेगी तो ‘एनईपी’ को इस दीवार से टकराना पड़ेगा.
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शेखर गुप्ता
मोदी सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) ने कुछ आशंकाएं भी पैदा की हैं और उस पर बहस-मुबाहिसा शुरू हो गया है. आशंका नीति में दर्ज इस सुझाव को लेकर पैदा हुई है कि पांचवीं से आठवीं क्लास तक बच्चों को अपनी मातृभाषा, क्षेत्रीय भाषा या घरेलू भाषा में शिक्षा दी जाए.
आलोचकों का कहना है कि यह आरएसएस के एजेंडा के मुताबिक हिंदीकरण करने की चाल है. समर्थकों का कहना है कि बच्चे अपनी भाषा में पाठ को ज्यादा अच्छी तरह से समझ पाते हैं, और वैसे भी यह केवल सुझाव है दबाव या मजबूरी नहीं.
लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि पूर्ण बहुमत वाली राष्ट्रवादी, दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी पार्टी की सरकार अपनी पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू करने जा रही है.
मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था के कारण जबरन कुछ लागू करना संभव नहीं है, क्योंकि संविधान में शिक्षा को समवर्ती विषय बनाया गया है. लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि अधिकतर और खासकर सबसे महत्वपूर्ण राज्यों में इसी पार्टी, भाजपा का राज है.
कुल मिलाकर दिशा स्पष्ट है. दबाव हो या न हो, इशारा इसी तरफ है कि अंग्रेजी की जगह घरेलू भाषाओं को ही धुरी बनाया जाए.
‘एनईपी’ में दर्ज त्रिभाषा फॉर्मूला में भी यही कहा गया है कि तीन भाषाओं में दो तो भारतीय भाषाएं ही होनी चाहिए. आशय यही है कि अंग्रेजी विदेशी भाषा है.
हमें यह तो सोचना चाहिए था कि इस तरह की नासमझी भरी परिभाषाएं नासमझ अमेरिकी भी अपनाते हैं और भले ही वे खुद अंग्रेजी शब्दों के स्पेलिंग सही-सही न जानते हों लेकिन यह जरूर चाहते हैं कि उनके यहां पढ़ने वाले विदेशी छात्र विदेशी भाषा के रूप में अंग्रेजी की परीक्षा (जाना-माना ‘टीओईएफएल’) पास करें.
अंग्रेजी अब अंतरराष्ट्रीय भाषा बन चुकी है, बेशक अलग-अलग देशों में उसका स्वरूप थोड़ा अलग-अलग है. भारत में ही उत्तर और दक्षिण, पूरब और पश्चिम में इसके रंग अलग-अलग हैं- ‘किंग की अंग्रेजी’ से लेकर ‘सिंह की अंग्रेजी’ तक.
अगर मोदी सरकार का साफ ज़ोर हिंदी या देसी भाषाओं को पढ़ाई का माध्यम बनाने पर है, तो संभावना यही है कि अधिकांश राज्य सरकारें भी उसी के इशारे पर चलेंगी.
उनके अपने स्कूल इससे अलग जाने की हिम्मत नहीं कर सकते. सरकारें मान्यताप्राप्त प्राइवेट स्कूलों के लिए भी इस तरह का हुक्मनामा जारी कर सकती हैं.
लोग फिर जुगाड़ भिड़ाने लग जाएंगे. कोई भी, चाहे वह सबसे मजबूत सरकार ही क्यों न हो, बाज़ार की ताकत से नहीं भिड़ सकता.
उपभोक्ता अगर किसी चीज़ की जोरदार मांग करते हैं, यानी भारतीय पेरेंट्स अगर अपने बच्चों के लिए अंग्रेजी मीडियम स्कूल चाहते हैं, तो वे इसे लेकर ही रहेंगे.
तब आप अल्पसंख्यकों के संस्थान या मशहूर कॉनवेंट जैसे भ्रामक जुमले ईज़ाद करेंगे. पूरे भारत में ‘कॉनवेंट’ आज अंग्रेजी मीडियम स्कूलों के रूप में चल रहे हैं जिनके नाम आप कबीर, तुकाराम, या रैदास जैसे गैर-ईसाई संतों के नामों पर भी पा सकते हैं.
अगर मोदी सरकार यह सब राजनीतिक फायदे के लिए कर रही है- यदि आपको ऐसा लगता हो, तो उसे तथ्यों की जांच कर लेनी चाहिए. इतने दशकों में हमारे नेताओं को यह तो मालूम हो ही गया है कि क्या कारगर होता है, क्या नहीं.
वे जानते हैं कि उनके मतदाता अंग्रेजी मीडियम स्कूल चाहते हैं. इसलिए हमारे नेता लोगों के बीच कुछ कहेंगे और वास्तव में कुछ और करेंगे.
विचारधारा की मजबूरियां अपनी जगह हैं मगर हमारे नेता, खासकर ‘ज़मीन से जुड़े’ नेता जानते हैं कि हकीकत यही है कि उनके मतदाता अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए बस तीन चीज़ें चाहते हैं- अंग्रेजी अंग्रेजी अंग्रेजी.
पिछले 25 वर्षों से अपनी सीरीज़ ‘राइटिंग्स ऑन द वाल’ के लिए चुनावों के दौरान दूर-दूर तक दौरे करके मैंने जमीनी राजनीति के बारे में बहुत कुछ जाना है.
‘राइटिंग्स ऑन द वाल’ यानी दीवारों पर लिखी इबारत पढ़ने का मतलब है अपनी आंखें-कान-नाक खुले रखकर यह समझने की कोशिश करना कि लोग क्या चाहते हैं.
आप देख पाते हैं कि चुनाव में खड़े राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी लोगों से क्या वादे कर रहे हैं, जो दीवारों पर लिखी इबारत को सही पढ़कर जनता की आकांक्षाओं से जुड़ता है वह जीतता है.
अगर आप इस तथ्य को सही तरह से समझ लेते हैं तो चुनाव के गलत नतीजे नहीं निकाल सकते. बेशक इसके साथ एक शर्त जुड़ी है कि आप दीवारों पर लिखी इबारत को अपने चश्मे से या जिसे हिंदी पट्टी में ‘पूर्वाग्रह’ कहते हैं उसके साथ न पढ़ें.
बहरहाल, यह देसी हिंदी वाले के तौर पर मेरी पहचान तो साबित करता ही है.
लोगों की बढ़ती आकांक्षाओं का पहला संदेश हमने दीवारों पर ही पढ़ा, खासकर बिहार में 2005 में हुए दो चुनावों (पहले का नतीजा स्पष्ट नहीं था) के दौरान.
तब, पिछड़े और मुस्लिम वोट बैंक के बूते लालू सत्ता में थे और कोई यह मानने को तैयार नहीं था कि नीतीश कुमार उनका तख़्ता पलट सकते हैं.
लालू अभी भी ‘सामाजिक न्याय’, ऊंची जातियों का मुक़ाबला करने के लिए पिछड़ों को ताकतवर बनाने और जातीय बराबरी के नारे की टेक लगा रहे थे. उनका पसंदीदा जुमला था- ‘फिर से समय आ गया है, अपनी लाठी को तेल पिलाओ’.
पंडितों का कहना था कि इस जुमले में इतना दम है कि नीतीश कुछ कर नहीं पाएंगे, खासकर अपने इस कमजोर-से दावे के साथ कि ‘लाठी को तेल पिलाकर आपको ताकतवर बनाने का समय अब बीत चुका, अब तो कलम में स्याही भरने से ही आप ताकतवर बन सकते हैं.’
‘ज्ञानियों’ ने इस पर खूब ठहाके लगाए होंगे. लेकिन आखिरी ठहाका तो नीतीश ने ही लगाया. उन्होंने लालू को हरा दिया, और तब से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जमे हैं. वे इसलिए जीतते रहे हैं क्योंकि उन्होंने जनता की नब्ज सही तरह से पढ़ी.
लोगों की आकांक्षाओं की बाढ़ उफन रही थी और उन्हें शिक्षा की लहरों का सहारा चाहिए था. आप सवाल कर सकते हैं कि इसका शिक्षा की भाषा से क्या संबंध है?
इस सवाल पर मुझे ‘दीवारों पर लिखी इबारत’ की दूसरी सीख याद आती है, जो 2011 में पश्चिम बंगाल के चुनाव के दौरान की है. 2005 में बिहार में जो लालू बनाम नीतीश मुक़ाबला हुआ था, उसी तरह बंगाल में ममता बनर्जी और 34 साल से सत्ता में जमे वाम मोर्चे का मुक़ाबला मेमना बनाम शेर वाला मुक़ाबला था.
हमने चुनाव अभियान पर निकलीं ममता बनर्जी को दुर्गापुर के पास बरजोरा नामक जगह पर पकड़ा. इस्पात कारखाने के लिए मशहूर दुर्गापुर पश्चिम बंगाल का काफी गरीब इलाका है.
हमने देखा, ममता हाथ में माइक लिये मंच पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक चहलकदमी कर रही थीं और फिर उन्होंने कोई गीत जैसा गाना शुरू कर दिया था. भीड़ पूरे जोश में आ गई थी. वे गा रही थीं- ‘ अ ए अजगर… आश्छे टेरे…’ और भीड़ गला फाड़ कर गा रही थी— ‘आ ए आम टा खाबे पेड़े’.
यानी अ से अजगर, तुम्हारे पीछे आ रहा है, आ से आम, पेड़ से तोड़ो और खा लो. लेकिन इसमें ऐसी क्या बात थी, हजारों गरीब लोग इतने जोश में क्यों आ गए थे?
ममता लोगों को याद दिला रही थीं कि दशकों से वाम मोर्चा सरकार ने उनकी पीढ़ी-दर-पीढ़ी को बंगला मीडियम स्कूलों में पढ़ने को मजबूर किया जबकि उसके नेताओं के बच्चे अंग्रेजी मीडियम स्कूलों में पढ़ते हैं और ‘ट्विंकल ट्विकल लिटल स्टार…’ गाते हैं.
वे बताती हैं कि इसका नतीजा क्या हुआ. यह कि आपके बच्चे चपरासी की नौकरी के लिए भीख मांगते हैं जबकि कॉमरेडों के बच्चे इंग्लैंड जाते हैं और बैरिस्टर बनते हैं.
हमें मालूम है कि उस चुनाव में क्या हुआ था. ममता आज भी सत्ता में हैं और उन्हें वाम दलों से कोई चिंता नहीं है.
धरती की धड़कनों की पहचान रखने वाले इन दो नेताओं में से एक ने लोगों से ज्ञान और शिक्षा देने का वादा करके चुनाव जीता, दूसरे ने खास तौर से अंग्रेजी मीडियम पर ज़ोर दिया.
उनके मतदाता समाज के मजबूत कुलीन तबके के नहीं थे, जो तबका प्रायः वोट देने भी नहीं जाता. मुंबई के मालबार हिल इलाके के मतदान प्रतिशत पर गौर कीजिएगा.
चूंकि हम प्रायः तीन उदाहरणों का नियम मानते हैं, तो मैं एक और उदाहरण दूंगा और फिर अपनी बात रखूंगा. हमारे तीन उदाहरण अलग-अलग दलों और विचारधाराओं से जुड़े नेताओं के हैं.
उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ ने 5,000 (जी हां, पांच हज़ार) सरकारी प्राइमरी स्कूलों को अंग्रेजी मीडियम बनाने का आदेश 2017 में जारी किया, ताकि हरेक ब्लॉक में कम-से-कम एक अंग्रेजी मीडियम स्कूल हो.
क्या योगी ऊंचे वर्ग के हैं? अंग्रेजी से सम्मोहित हैं? पश्चिमी हैं? ब्राउन साहब हैं? जी नहीं, बल्कि वे तो भगवाधारी संन्यासी हैं. धरती से जुड़े हुए.
वे जानते हैं कि उनके वोटर क्या चाहते हैं.
इसलिए, अगर मोदी सरकार सैद्धांतिक पूर्वाग्रह के चलते देसी भाषा को बच्चों की पढ़ाई का मीडियम बनाने पर ज्यादा ज़ोर देने की कोशिश करेगी तो ‘एनईपी’ को इस दीवार से टकराना पड़ेगा.
( साभार : दिप्रिंट/ चित्रण सोहम सेन.)