नोटबंदी, नक्सली, पुलिस और पहाड़ सी कमाई!!!!
एक बड़े नक्सल नेता का आत्मसमर्पण उस दिन से ही चर्चा में रहा है जब से वे पुलिस के साथ हो लिया. कई बड़ी वारदातों-रणनीतियों को अंजाम देने वाले उस नक्सली ने आत्मसमर्पण के बाद पुलिसिया तंत्र को नक्सल क्षेत्र में ताकतवर होने में कितनी मदद मिली ये एक अलग ही मुद्दा है.
लेकिन वो सात करोड़ की रकम कहां गई जो इस नक्सल नेता को अपने माओवादी कमेटी से निवेश के लिए मिली थी. कहा जाता है कि नोटबंदी के दौरान यह रकम उक्त आत्मसमर्पित नक्सली को नोट बदलने मिली थी.
उस दौरान कमेटी में उसे बड़ा ओहदा मिला हुआ था. वो पुलिस के लिए पहेली सा था और व्यापारियों के बीच उसकी पैंठ मजबूत थी.
माओवादी संगठन चाहता था कि इस सात करोड़ की रकम को नोटबंदी के प्रभाव से बचाया जाए. इस पहाड़ सी रकम को ठिकाने लगाने की जिम्मेदार उस नक्सल नेता को दे दी गई. इसके कुछ ही समय बाद उसने आत्मसमर्पण कर दिया.
सवाल फिर आ खड़ा हुआ.. सात करोड़ कहां हैं?
इस सात करोड़ की खबर तो पुलिस को भी नहीं थी.. लेकिन इस पहाड़ सी रकम का खुलासा पूछताछ में हो ही गया. अब शामत आई उन व्यापारियों की जिन्हें ये पैसे मिले थे.
जनचर्चा है कि उन व्यापारियों की सूची तैयार की गई. उन्हें.. बुलावा भेजा गया. जब वे आए तो रौब और तेवर का पूरा दिखावा हुआ. डरे सहमे व्यापारी जब पुलिस के पास पहुंचे तो उनकी आंख फटी की फटी रह गई कि वह नक्सल नेता जिसने उन्हें पैसे दिए थे भी वहां मौजूद है.
पुलिस ने नक्सल नेता को सामने रख कर व्यापारियों से पूछा कि क्या इसने तुम्हे रुपए दिए थे? व्यापारी ठहरे फट्टू.. नक्सलियों का नाम सुनते ही उनकी ऊपर की सांस ऊपर.. नीचे की सांस नीचे रह जाती है. झक मारके उन्होंने पुलिस के सामने स्वीकार लिया कि उन्हें जो पहाड़ सी रकम मिली है वह नक्सली नेता ने दी थी.
इसके बाद पुलिस ने नक्सली मामले में फंसा देने का डर दिखाकर रुपए वापस मांगे. मरता क्या न करता.. कि तर्ज पर एक-एक व्यापारी पहाड़ सी रकम को नक्सली नेता के सामने पुलिस के हाथों में सौंपता गया. ऐसा करके तकरीबन पांच करोड़ रुपए जैसी पहाड़ सी रकम पुलिस ने हथिया ली.
अब जनचर्चा तो यह भी है कि इस पैसे का बंटवार सिर्फ एक आईपीएस अधिकारी और कुछ चुनिंदा पुलिस वालों के बीच ही हुआ और थोड़ा बहुत उस नक्सली नेता को दिया गया जिसने समर्पण कर दिया था.