कष्ट में कांग्रेस
वर्ष 2018… विधानसभा का आमचुनाव… अप्रत्याशित रुप से राजस्थान-मध्यप्रदेश से कहीं ज्यादा बड़ी जीत छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने दर्ज करी थी… लेकिन तब के विश्लेषक इसे कांग्रेस की जीत नहीं बल्कि भाजपा की हार मानते थे। पहली बार कांग्रेस ने निर्वाचित सत्ता पर छत्तीसगढ़ में कब्जा किया था।
वर्ष 2003 से लेकर 2018 तक 15 साल लगातार सत्ता में रही भाजपा के खिलाफ संघर्ष का नतीजा कांग्रेस के लिए भी अप्रत्याशित था। 90 विधानसभा सीटों वाले छत्तीसगढ़ राज्य में कांग्रेस के 68 विधायक चुन लिए गए थे। 65 प्लस सीटों में जीत का अभियान चलाने वाली भारतीय जनता पार्टी 15 सीटों पर सिमट गई। भाजपा के कई दिग्गज कांग्रेस के नए चेहरों के सामने बड़े अंतर से परास्त हुए थे।
पूर्व मुख्यमंत्री स्व अजीत जोगी की नई नवेली पार्टी जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ – जे ने भी चुनाव में 05 सीटें हासिल की थी। बहुजन समाज पार्टी के 02 विधायक चुनकर आए। साढ़े तीन सालों में 4 उपचुनावों में जीत दर्ज करने के बाद कांग्रेस के पास आज की तारीख में 71 विधायक हैं। यह छत्तीसगढ़ में किसी राजनीतिक दल को मिला अब तक का सबसे बड़ा बहुमत है… और शायद आने वाले कई चुनावों तक इससे आगे जाने की बात तो छोडि़ए बल्कि इसके आसपास भी कोई दल पहुंच पाएगा इस पर संशय कायम है।
डर का कारण बनी बड़ी जीत
कांग्रेस की यही बड़ी जीत अब वर्ष 2023 में होने वाले विधानसभा आमचुनाव से पहले ही हार के डर का बड़ा कारण बन गई है। राष्ट्र पटल पर सुर्खियां बटोरने वाली छत्तीसगढ़ प्रदेश की कांग्रेस सरकार एक आंतरिक सर्वे की रिपोर्ट से ठिठक गई है। छत्तीसगढ़ प्रदेश के मुख्यमंत्री खुद इस रिपोर्ट को लेकर चिंता जाहिर कर चुके हैं। कांग्रेस के 71 में से 40 फीसद विधायक ऐसे हैं जिनकी परफार्मेंस काफी कमजोर बताई जा रही है।
कांग्रेस के आंतरिक सर्वे में सामने आए आंकड़े चिंता का बड़ा सबब हैं। अगर यही आंकड़े 2023 के चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ जाते हैं तो कांग्रेस का भी राज्य में वही हश्र होगा जो कि पिछले चुनावों में भाजपा का हुआ। भाजपा के पास 15 सालों की सरकार और लगातार एक ही मुख्यमंत्री के खिलाफ एंटी इंकम्बेंसी का बहाना था जो कि वाजिब भी था लेकिन अगर कांग्रेस की 5 साल की ही सत्ता में ऐसे नतीजे आते हैं तो स्वाभाविक रुप से यह कांग्रेस के लिए काफी असहज स्थिति होगी।
दूसरा कारण नए और अनुभवहीन चेहरे हैं जो कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ा रहे हैं। मौजूदा समय में कांग्रेस के 71 विधायकों में से अधिकतर ऐसे हैं जो पहली मर्तबा चुनाव लड़े और जीते भी। इनमें से कईयों ने भाजपा के कई ऐसे बड़े चेहरों को चुनाव में शिकस्त दी जिनका विधानसभा क्षेत्र उनका गढ़ माना जाता था। हार का अंतर भी कई जगहों पर काफी बड़ा था जिसे भाजपा के लिए पचा पाना मुश्किल रहा।
बहरहाल, नए चेहरों ने कांग्रेस को तब बड़ा फायदा दिलाया लेकिन अब यही चेहरे प्रदेश में कांग्रेस सरकार के लिए मुसीबतें बढ़ा रहे हैं। अपने ही क्षेत्र में कांग्रेसी विधायक पिछड़ते रहे हैं। आम जनता से सरोकार में कमी, मैदानी सक्रियता न होना, समस्याओं के निराकरण में देरी, असंतोष और संगठन से दूर होने की शिकायतों ने 40 फीसद विधायकों के रिपोर्ट कार्ड पर असर डाला है।
तीसरा कारण गुटबाजी को बताया जाता है। कांग्रेस के लिए हमेशा ही बड़ी समस्या रही हैं। राष्ट्रीय कांग्रेस में वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं का जी-23 समूह आलाकमान के लिए परेशानी का सबब है। तकरीबन वैसी स्थिति भले ही छत्तीसगढ़ में ऊपरी तौर पर नज़र न आती हो लेकिन अंदरुनी तौर पर हालात ठीक नहीं है।
वैसे छत्तीसगढ़ में परेशानी कुछ और ही है। यहां सत्ता को लेकर कांग्रेसियों का आपसी संघर्ष चल रहा है। संगठन के हालात भी कुछ ऐसे ही हैं। प्रदेश से लेकर कांग्रेस के ब्लॉक संगठन तक में खेमेबाजी दिखती है। एक-दूसरे की राजनीतिक हैसियत कम करने की होड़ और उठापटक कांग्रेस को कमजोर ही कर रही है।
चौथा कारण कांग्रेस की अप्रत्याशित जीत और 15 सालों के संघर्ष में गुम हुए चेहरे हैं। कांग्रेस जब 15 सालों बाद सत्ता में लौटी तो उसके पास अनुभवी चेहरों की भारी कमी थी। अब तक का सबसे बड़ा बहुमत मिलने के बाद कांग्रेस में सत्ताधीश होने का दावा ठोकने वाले नेता भी कम नहीं थे। जिले, संभाग में भी संगठन में कम ही चेहरे बचे थे।
कांग्रेस के इस आंतरिक सर्वे और उससे बाहर निकलकर आए तथ्यों के पीछे बहुत से कारण हैं जिसके चलते आलाकमान की चिंताए बढ़ गई है। 15 सालों तक प्रदेश में संघर्ष करती रही कांग्रेस अपना संगठन नहीं संभाल पाई। हार दर हार कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटता ही गया। जो सक्रिय चेहरे हुआ करते थे वे गर्त में जाते गए।
स्थिति यह तक रही कि कांग्रेस संगठन के चेहरे लोगों को याद नहीं रहे। अखबारों को भी कांग्रेस संगठन के पदाधिकारियों की बेहद कम जानकारी रहती थी क्यूंकि कुछेक चेहरों को छोड़ सभी इनसे किनारा कर चुके थे। सत्ता में कांग्रेस की अप्रत्याशित वापसी के बाद भी संगठन के मोर्चे पर कांग्रेस कुछ खास बदलाव और प्रगति नहीं कर पाई है।
कई जिलों में कुछ कांग्रेस नेताओं ने अपनी ही सत्ता तैयार कर ली है तो कई जिलों में अयोग्य चेहरे कांग्रेस का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। उदाहरण बतौर पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के निर्वाचन जिले राजनांदगांव को लिया जाए तो यहां कांग्रेस संगठन कभी पटरी पर नज़र नहीं आया। पहले आपसी खींचतान समस्या रही तो अब एक-दूसरे को निपटाने की प्रवृत्ति लाईलाज बीमारी बन चुकी है।
कांग्रेस की आंतरिक सर्वे की रिपोर्ट पर चाहे सिर्फ विधायकों की परफॉर्मेंस की बात सामने रखी गई हो लेकिन मसला सिर्फ यही नहीं है। कई मोर्चो पर कांग्रेस अब भी संघर्ष कर रही है। सत्ता में टकराव, अपरिपक्व चेहरों की कच्ची राजनीति, कमजोर संगठन और अनुभवी चेहरों की कमी जैसे मसले कांग्रेस को सता रहे हैं। इन खामियों के साथ 2023 के विधानसभा चुनाव लड़ना और जीतना मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व के लिए काफी मुश्किल है।
कमजोर संगठन
बीते दस सालों में कांग्रेस का संगठन खुद को मजबूत नहीं बना पाया है। महज कुछ चेहरे हैं जो कांग्रेस को अपने बल पर आगे लेजाने की कोशिश कर रहे हैं। वर्ष 2013 (जब कांग्रेस ने नंदकुमार पटेल, विद्याचरण शुक्ल, महेंद्र कर्मा जैसे अपने लड़ाकू चेहरों को झीरम में खोया था) से लेकर 2022 तक कांग्रेस ने जमीनी तौर पर संगठन को मजबूत करने किसी तरह के सार्थक प्रयास किए हों ऐसा कम ही लगता है।
सत्ता के साथ आने वाले लोगों ने भीड़ जरुर बढ़ाई है लेकिन फिर भी कांग्रेस की संगठन क्षमता अब भी कमजोर ही दिखती है। स्थिति यह है कि सत्ता में रहते हुए भी उपचुनाव जीतने के लिए मुख्यमंत्री को 20 से ज्यादा सभाएं करनी पड़ती हैं। प्रदेश का पूरा मंत्रिमंडल उपचुनाव में झोंक दिया जाता है तब जाकर कांग्रेस के हिस्से जीत आती है।
हाल में संपन्न हुए खैरागढ़ उपचुनाव के बाद अपने समर्थकों में धरतीपुत्र के नाम से जाने जाने वाले भूपेश बघेल ने राजधानी में कहा था कि, पिछले तीन सालों में छत्तीसगढ़ में चार विधानसभा उप चुनाव हो चुके। मरवाही और खैरागढ़ अपेक्षाकृत कठिन चुनाव थे। खैरागढ़ में संगठन कमजोर रहा। 1995 से अब तक खैरागढ़ विधानसभा की राजनीति देवव्रत सिंह के इर्दगिर्द घूमती रही। इस वजह से निचले स्तर पर संगठन मजबूत नहीं था। इस बार सभी पदाधिकारियों, मंत्रियों, कार्यकर्ताओं ने पूरी ऊर्जा के साथ उस कमजोरी को पाटकर नई लकीर खींच दिया है।
झीरम हमले में राज्य में कांग्रेस की प्रथम पंक्ति का नेतृत्व खत्म हो गया। नक्सल हमले में शहीद हुए दिग्गजों के कट्टर समर्थक एक झटके में कांग्रेस से लगभग कट गए। विद्याचरण शुक्ल, महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल जैसे नेताओं के साथ जुड़े कई नाम राजनीति में बने तो रहे लेकिन उन्हें दूसरे गुटों में जगह नहीं मिली। इसके बाद वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में तीसरी बार मिली हार ने रही सही कसर पूरी कर दी।
इस बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और भाजपा की आक्रामक राजनीति युवाओं को अपनी ओर ले गई। कांग्रेस संगठन के मामले में कमजोर होती रही। लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का अति आत्मविश्वास, एंटी इंकम्बेंसी और बेलगाम अफसरशाही उसे ले डूबे और सत्ता कांग्रेस के पास चली गई। कांग्रेस सत्ता में जिस तरह लौटी उसकी किसी को उम्मीद नहीं थी।
दरअसल, कांग्रेस की राजनीतिक परंपरा अलग ही रही है। कांग्रेस में हमेशा चेहरों की राजनीति ही चलती आई है। हर जिले, विधानसभा में एक चेहरा होता है जो कांग्रेस की स्थानीय पहचान बन जाता है। संगठन इनके आसपास ही केंद्रित रहता है। नए चेहरों को जल्दी बड़ी जिम्मेदारी नहीं मिलती और अयोग्य होने पर भी अपने चेहरों को पद बांट दिए जाते हैं। इस तरह कांग्रेस का संगठन हमेशा किसी न किसी स्थानीय नेता के ही इशारों पर काम करता है।
सारे कार्यक्रम में यह दखल देखने को मिलता है। प्रदेश में भी कई गुट हैं। जिस गुट की प्रदेश में ताकत बढ़ी उस गुट का ही नेता जिला, विधानसभा में ताकतवर हो जाता है। यह पुरानी परिपाटी है जिससे कांग्रेस उबर नहीं सकी है। कई विधानसभा क्षेत्र में तो स्थिति यह है कि विधायक और संगठन ही आमने सामने हैं। इन परिस्थितियों में संगठन पर भाजपा की पकड़ की तुलना कांग्रेस से की ही नहीं जा सकती।
भाजपा लगातार अपने कार्यकर्ताओं को जोड़ने और उन्हें सक्रिय रखने की रणनीति पर काम करती है। वहीं भाजपा में अनुशासनात्मक कार्रवाई के मामले में भी हीलहवाला नहीं देखने को मिलता। नए चेहरों को भी भाजपा योग्यता परख कर संगठन में मौका देती है। इन मामलों में कांग्रेस काफी पिछड़ी हुई है।
सत्ता में टकराव
सत्ता में टकराव कांग्रेस में हमेशा बना रहा है। 15 सालों के लंबे अंतराल बाद सत्ता में लौटने के बाद भी यही परिस्थितियां बनी हुई है। मुख्यमंत्री और पंचायत ग्रामीण विकास मंत्री के बीच सत्ता को लेकर संघर्ष गाहे-बेगाहे सतह पर आ ही जाता है। अब देखिए न… एक तरफ मुख्यमंत्री सरकार की नब्ज टटोलने सफर पर निकलेंगे तो उन्हीं दिनों पंचायत ग्रामीण विकास मंत्री पृथक से दौरा करेंगे। मतलब, कहीं न कहीं खींचतान मची रहेगी।
इसका असर पूरे प्रदेश में देखने को मिलता है। ऐसे कई कांग्रेसी हैं जो विपक्ष में रहते हुए अपने बैनर पोस्टर में तब के नेता प्रतिपक्ष की तस्वीर का सदुपयोग करते थे वही अब इन दिनों मुख्यमंत्री की नज़रों में बने रहने के चलते अब के पंचायत ग्रामीण विकास मंत्री की तस्वीर को भी अपने बैनर पोस्टर में जगह नहीं देते। ये टकराव कांग्रेस को दो धड़ों में बांट चुका है।
2023 के विधानसभा चुनाव आने तक यह संघर्ष और भी बढ़ सकता है। प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री अपनी मंशा जाहिर कर चुके हैं। स्वाभाविक है आने वाले विधानसभा चुनावों से पहले वे एक बार फिर सत्ता के लिए चुनौती साबित होंगे। जाहिर तौर पर इसका असर विधानसभा आमचुनावों में टिकट वितरण पर भी पड़ेगा।
सरगुजा संभाग टीएस सिंहदेव का गढ़ है। इसके अलावा भी राज्य में कई विधायक उन्हीं के खेमे से हैं जो चुनाव जीतकर आए हैं। कांग्रेस के भीतर टीएस सिंहदेव की ताकत को कम नहीं आंका जा सकता। इधर, मुख्यमंत्री भूपेश बघेल बस्तर और दुर्ग संभाग में अपने समर्थक विधायकों की संख्या पर फोकस करते दिख रहे हैं। दोनों ही के लिए समर्थक विधायकों की संख्या काफी मायने रखती है।
बहरहाल, इस टकराव का असर यह देखने को मिल रहा है कि कई कांग्रेसी विधायक अपनी ही सरकार में नज़र अंदाज किए जा रहे हैं। विधायक बृहस्पत सिंह बनाम टीएस सिंहदेव का मामला प्रदेश देख ही चुका है। इसी तरह राजनांदगांव जिले की खुज्जी विधायक श्रीमती छन्नी चंदू साहू भी सिंहदेव गुट की मानी जाती हैं। बीते दिसंबर में रेत माफिया के इशारे पर उनके पति के खिलाफ एट्रोसिटी एक्ट का मामला दर्ज हो गया।
उनके पति को इस मामले में जेल भी जाना पड़ा। जबकि मुख्यमंत्री गुट के माने जाने वाले कांग्रेस नेताओं ने रेत माफिया को संरक्षण देकर विधायक के खिलाफ काम किया। नाराज़ विधायक ने अपनी सुरक्षा लौटा दी और अपनी मोपेड से ही विधानसभा बजट सत्र में हिस्सा लेने पहुंची। यहां भी जमकर विवाद हुआ।
अंतत: विधायक ने अपनी बात सदन में रखी जहां विधानसभा अध्यक्ष चरणदास महंत ने व्यवस्था दी और सरकार को फौरन विधायक को सुरक्षा उपलब्ध करवाने के लिए निर्देशित किया। आपसी संघर्ष की यह स्थिति भी कांग्रेस के लिए मुसीबत का बड़ा सबब है।
इस मामले में अप्रत्यक्ष तौर पर ही सही लेकिन खुज्जी विधायक ने अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। जब विधानसभा के गेट पर सुरक्षा बलों ने उन्हें विधानसभा परिसर में घुसने से रोका था तो भाजपा विधायकों ने वहीं हल्ला मचा दिया था।
एक महिला विधायक के साथ घटे घटनाक्रम में मुख्यमंत्री ने इशारों में ही सही इस मामले में चुप्पी साधकर अपने विरोधी खेमे के विधायकों को यह संकेत भी दे दिया कि उन्हें विरोधियों की सरपरस्ती की कीमत चुकानी पड़ेगी। साफ है कि इस टकराव का असर विधानसभा चुनावों के दौरान टिकट वितरण पर भी पड़ सकता है। खेमेबाजी के चलते कई विधायक नप सकते हैं तो कुछेक को इसी का फायदा मिल सकता है। लेकिन यह बातें कांग्रेस के पक्ष में जाती नहीं दिखती।
मुगालते में हैं नए विधायक
कांग्रेस से जो नए चेहरे चुन कर आए उनमें से कई जीत के बाद जिस मुगालते में रहे वही कांग्रेस की चिंता का सबसे बड़ा कारण है। नए विधायकों को यह भ्रम हो चला कि वे अपने बूते इस चुनाव में जीत दर्ज कर विधानसभा पहुंचे हैं जबकि इसका असल कारण कुछ और ही रहा। लोगों ने उन स्थानों से कांग्रेसी प्रत्याशियों को जिताया जहां के भाजपा प्रत्याशी उन्हें पसंद नहीं थे। इसके बाद ऐसे विधायक अपने ही क्षेत्र से दूर होते चले गए। कुछ ने संगठन से भी दूरी बना ली तो कुछ को संगठन ही नहीं पचा सका। लोगों से विधायकों का सरोकार कम होता गया।
क्षेत्र में समस्याओं के निराकरण, लोगों की मांग और जनता के बीच मौजूद न रहने जैसी शिकायतों का अंबार लग गया। कांग्रेस की जिस आंतरिक रिपोर्ट ने टेंशन बढ़ा दी है उसमें 40 फीसद विधायकों के रिपोर्ट कार्ड में यही नेगेटिव मार्किंग बतौर नोट है। डैमेज कंट्रोल और कांग्रेस की संभावनाओं को टटोलने मुख्यमंत्री मई महिने के शुरुआती हफ्ते से ही राज्य के दौरे पर निकल रहे हैं। यह दौरा बिल्कुल वैसा ही होने वाला है जैसा पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का ग्राम सुराज अभियान। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल सभी 90 विधानसभाओं तक पहुंचेंगे और लोगों से रुबरु होंगे।