कोविड संकट के बीच जान और नौकरी गंवाते पत्रकारों की सुनने वाला कौन है?
• रीतू तोमर
कोविड संक्रमण के ख़तरे के बीच भी देशभर के मीडियाकर्मी लगातार काम कर रहे हैं, लेकिन मीडिया संस्थानों की संवेदनहीनता का आलम यह है कि जोखिम उठाकर काम रहे इन पत्रकारों को किसी तरह का बीमा या आर्थिक सुरक्षा देना तो दूर, उन्हें बिना कारण बताए नौकरी से निकाला जा रहा है.
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नई दिल्ली.
देश में कोरोना संकट के बीच बड़े से लेकर छोटे लगभग हर तरह के मीडिया संस्थानों से पत्रकारों को निकाले जाने के मामले लगातार सामने आए हैं.
कई अखबारों ने सर्कुलेशन कम होने का हवाला दिया है, तो कुछ संस्थानों ने विज्ञापन का पैसा कम होने की बात कहकर पत्रकारों पर गाज गिराई है.
ऐसे कई अखबार हैं, जिनके कुछ एडिशन बंद कर दिए गए हैं, कई मीडिया संस्थानों में पत्रकारों के वेतन में कटौती की जा रही है तो कुछ संस्थानों ने कर्मचारियों को अवैतनिक छुट्टियों पर भेज दिया है.
कुछ दिनों पहले द हिंदू के मुंबई ब्यूरो से लगभग 20 पत्रकारों से इस्तीफा लिए जाने का मामला सामने आया था. अखबार के कर्नाटक और तेलंगाना सहित कई राज्यों के ब्यूरो से भी पत्रकारों को नौकरी छोड़ने को कहा गया था.
बीते तीन महीनों में इकोनॉमिक टाइम्स के विभिन्न ब्यूरो में छंटनी की गई. टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने कई संस्करण बंद कर दिए.
महाराष्ट्र के सकाल टाइम्स ने अपने प्रिंट एडिशन को बंद कर पचास से अधिक कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया. द टेलीग्राफ ने अपने दो ब्यूरो बंद कर दिए और लगभग पचास कर्मचारियों को नौकरी छोड़ने को कह दिया.
हिंदुस्तान टाइम्स मीडिया समूह ने भी लगभग 150 कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया. वहीं, द क्विंट जैसे डिजिटल मीडिया संस्थान ने अपने कई कर्मचारियों को अवैतनिक अवकाश पर भेज दिया.
ऐसे में सवाल उठता है कि जब पत्रकारों को आर्थिक और सामाजिक तौर पर अधिक मजबूत किए जाने की जरूरत है, उन्हें नौकरियों से लगातार निकाले जाने के मामले सामने आ रहे हैं, उनकी आय का स्रोत छीना जा रहा है.
पर हाल यह कि मीडिया संस्थानों से लेकर सरकारों तक का रवैया उन्हें लेकर उदासीन बना हुआ है.
केंद्र सरकार ने कोरोना वॉरियर्स के तौर पर काम कर रहे स्वास्थ्यकर्मियों के लिए पचास लाख रुपये के बीमा कवर का ऐलान किया है लेकिन पत्रकारों को इस तरह की सुविधा नहीं दी गई है जबकि वे भी लगातार इन वॉरियर्स की तरह जोखिम भरे माहौल में काम कर रहे हैं.
एक तरफ उनके सामने कोरोना से संक्रमित होने का खतरा है तो दूसरी तरफ नौकरी जाने का. उनके पास न आर्थिक सुरक्षा है और न ही सामाजिक.
अगर काम के दौरान एक पत्रकार कोरोना से जूझते हुए दम तोड़ देता है तो उसके परिवार को सरकार से कोई आर्थिक मदद नहीं मिलेगी लेकिन इसकी चिंता न उन मीडिया संस्थानों को हैं, जहां ये पत्रकार काम करते हैं और न ही सरकार को.
द वायर से बात करते हुए वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव इसी बात को रेखांकित करते हुए कहते हैं, ‘लॉकडाउन के दौरान जब पूरा देश घरों के भीतर सिमटा बैठा था, तब कुछेक पेशों से जुड़े लोग थे, जो जोखिम के बीच बाहर निकलकर काम कर रहे थे. पत्रकार उनमें से एक थे लेकिन सरकार की तरफ से उनके प्रति बिल्कुल उदासीन रवैया देखने को मिला.’
वे आगे कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री ने हालांकि मार्च महीने मे फ्रंटलाइन वर्कर्स के तौर पर स्वास्थ्यकर्मियों और पुलिस के साथ-साथ पत्रकारों का भी उल्लेख किया, लेकिन जिस तरह का बीमा कवर स्वास्थ्यकर्मियों को दिया गया, उससे पत्रकारों को महरुम रखा गया जबकि जोखिम पत्रकारों के लिए भी कम नहीं है.’
दिल्ली में दैनिक भास्कर अखबार के तरुण सिसोदिया की कथित आत्महत्या ने महामारी के दौरान तनाव के बीत काम कर रहे पत्रकारों की मनोस्थिति और उनके अवसाद पीड़ित होने को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है.
दैनिक भास्कर में बतौर हेल्थ रिपोर्टर काम करने वाले तरुण की मौत छह जुलाई को हुई थी. वे कोरोना संक्रमित थे और उनका एम्स में इलाज चल रहा था.
एम्स का दावा है कि उन्होंने अस्पताल की इमारत की चौथी मंजिल से कूदकर आत्महत्या की. हालांकि उनकी आत्महत्या को लेकर संदेह भी जताया जा रहा है.
उनके भाई दीपक ने द वायर को बताया था कि मीडिया संस्थान उनके भाई को प्रताड़ित कर रहा था. उनका कहना था, ‘मीडिया संस्थान उनके भाई को प्रताड़ित कर रहा था. तरुण पूरे दिन काम करते थे, लेकिन उनकी स्टोरी न ली जाती और न ही छापी जाती थी. उन्हें बाइलाइन भी नहीं दी जा रही थी.’
कोरोना के चलते संस्थानों का काम और उनके कर्मचारियों के प्रति रवैया बदला है. इस दौरान कई मामलों में पत्रकारों ने आगे आकर अपने अवसादग्रस्त होने की बात भी स्वीकारी है.
न्यूज नेशन में नौकरी से हटाए गए पत्रकार राजू कुमार कहते हैं, ‘लॉकडाउन के शुरुआती चरण में ही हमारी 16 लोगों की अंग्रेजी की डिजिटल टीम को नौकरी से निकाल दिया गया, जिसके बाद से सभी लोग घर पर बेरोजगार बैठे हैं, जिनमें से कुछ डिप्रेशन से जूझ रहे हैं.’
टीवी चैनल न्यूज नेशन देश का पहला ऐसा मीडिया संस्थान था, जिसने लॉकडाउन के शुरुआती चरण में ही 16 पत्रकारों को बिना कारण बताए नौकरी से निकाला था.
इसके अलावा द हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस, द टेलीग्राफ, राजस्थान पत्रिका, हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप, टाइम्स ग्रुप से भी कई पत्रकारों को निकाले जाने के मामले सामने आए.
राजू ने द वायर से बातचीत में बताया कि न्यूज नेशन देश का ऐसा पहला मीडिया संस्थान था, जिसने लॉकडाउन के दौरान नौकरियों से न निकाले जाने की प्रधानमंत्री मोदी की अपील के कुछ दिनों बाद ही पत्रकारों को नौकरी से निकालना शुरू कर दिया था.
वे कहते हैं, ‘मैं न्यूज नेशन की अंग्रेजी डिजिटल टीम का हिस्सा था. हमारी टीम में कुल पंद्रह लोग थे. हम लॉकडाउन के दौरान घर से ही काम कर रहे थे कि 10 अप्रैल की शाम को हमारे पास एचआर से ईमेल आया, जिसमें कहा गया कि हमारी सेवाएं तत्काल प्रभाव से समाप्त की जा रही हैं. इसका कोई कारण नहीं बताया गया और एक झटके में हमारी कमाई के एकमात्र जरिये को हमसे छीन लिया गया.’
नौकरी से इस तरह निकालने पर राजू कहते हैं, ‘मैं उस समय अपनी निजी जिंदगी में भी काफी समस्याओं से जूझ रहा था. अप्रैल में ही मेरी पत्नी की डिलीवरी हुई थी.
ये प्री-मैच्योर डिलीवरी थी, जुड़वां बच्चों का गर्भावस्था के छठे महीने में ही जन्म हुआ था. इसकी वजह से उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया था. इसका एक दिन का खर्च लगभग 12,000 रुपये था, दो वेंटिलेटर का एक दिन का खर्च 24,000 रुपये हुआ.
मैंने कंपनी को इस बारे में सूचित भी किया, कहा कि मुझे ऐसे समय में रोजगार की सख्त जरूरत है, पर कंपनी ने बिल्कुल भी मानवता न दिखाते हुए मुझे नौकरी से निकाल दिया. हमने आज तक औपचारिक इस्तीफा तक नहीं दिया है. ‘
राजू इस तरह हुई आकस्मिक छंटनी का शिकार होने वाले अकेले पत्रकार नहीं हैं. पिछले महीने हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप से निकाले गए सीनियर कॉपी एडिटर चेतन कुमार कहते हैं, ‘हमें लॉकडाउन के दौरान घर से काम करने को कहा गया था. एक महीना ऐसे काम करने के बाद हमें बिना वाजिब कारण बताए नौकरी से निकाल दिया कहा गया. कारण बताया गया कि संस्थान को विज्ञापन नहीं मिल रहे हैं. आय कम हो गई है, इसलिए उन्होंने हमारी आय के स्रोत को बंद कर दिया.’
हिंदुस्तान टाइम्स के अलावा कई संस्थानों ने अपने कर्मचारियों की छंटनी करते समय आय घटने या आर्थिक नुकसान उठाने को वजह बताया है. हालांकि इस संबंध में वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश बड़े मीडिया संस्थानों के घाटे के दावे को लेकर संशय में हैं.
वे कहते हैं, ‘देशभर के संस्थानों से पत्रकारों को निकाला जा रहा है, छोटे संस्थानों को छोड़िए, बड़े-बड़े संस्थान छंटनी में सबसे आगे हैं. ऐसा नहीं है कि ये बड़े संस्थान घाटे में होंगे, इनके पास अथाह पैसा है, हां इतना जरूर है कि इनका मुनाफा घट गया होगा.’
उन्होंने आगे जोड़ा, ‘अभी हाल ही में मुझे पता चला कि देश का एक बड़ा मीडिया समूह, जिसके देशभर में 3,200 से ज्यादा कर्मचारी हैं, वो अपने एक-तिहाई कर्मचारियों को निकालने जा रहा है.’
राहुल देव का भी कुछ ऐसा ही कहना था, ‘दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि बड़े से बड़े मीडिया संस्थानों ने नौकरियों से पत्रकारों को निकालने में सबसे ज्यादा तत्परता दिखाई है. लेकिन इसमें जिम्मेदारी अकेले संस्थानों की नहीं बल्कि सरकार की भी है.’
वे आगे कहते हैं कि मीडिया संस्थानों की भूमिका पर भी सवाल तो है ही. उनका कहना है, ‘मौजूदा समय में पत्रकारों के पास किसी तरह की सुरक्षा नहीं है, न आर्थिक और न स्वास्थ्य से जुड़ी हुई. छोटी-बड़ी संस्थाएं अपनी आर्थिक स्थिति स्थिर रखने के लिए पत्रकारों को निकाल रही हैं, जबकि इस चुनौतीपूर्ण समय में पत्रकार अपनी जान-जोखिम में डालकर रिपोर्टिंग कर रहे हैं.
उनके लिए बीमा की कोई सुविधा नहीं है, जबकि वे लगातार जोखिम के बीच काम कर रहे हैं.’
यानी ऐसे में देश में पत्रकारों के हितों और सुरक्षा के लिए कानून बनाए जाने की जरूरत तो है. इस पर उर्मिलेश कहते हैं, ‘सिर्फ कानून बना देना किसी समस्या का समाधान नहीं है. हमारे देश में दुनिया के किसी भी देश के मुकाबले सबसे ज्यादा कानून है लेकिन सबसे ज्यादा अपराध भी हमारे यहां होता है.
डेनमार्क और फिनलैंड जैसे देशों में सबसे कम कानून हैं लेकिन वहां अपराध न के बराबर है. पत्रकारों के हितों की रक्षा तभी होगी, जब उनके स्वतंत्र और लोकतांत्रिक ढंग से काम करने दिया जाएगा.’
वे आगे कहते हैं, ‘ऐसी कोई संस्था हमारे देश में नहीं है, जो लॉकडाउन के दौरान नौकरियों से निकाले गए पत्रकारों की संख्या के सही आंकड़े पेश सके लेकिन कुछ लोगों से बातचीत के आधार पर पता चला है कि सिर्फ दिल्ली में ही कोरोना काल में लगभग 550 तक पत्रकार बेरोजगार हुए हैं, हो सकता है कि यह संख्या ज्यादा है. ऐसे में यह संख्या पूरे देश में हजारों में होगी.’
ऐसे समय में दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि पत्रकारों को अपनी आवाज उठाने के लिए साथ भी बमुश्किल ही नसीब हो रहा है. पत्रकारों की मौजूदा स्थिति को लेकर देश की प्रेस संस्थाएं भी सवाल खड़े करने में पीछे रही हैं.
ऐसे संगठनों-संस्थाओं की चुप्पी के सवाल पर भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) के पूर्व महानिदेशक प्रोफेसर केजी सुरेश कहते हैं, ‘सवाल यह है कि देश में पत्रकारों के हितों की सुरक्षा कैसे हो? देश में इस तरह की कोई संस्था नहीं बची है. जो हैं, वे खेमों में बंटी हैं, वहां पत्रकारों की सुरक्षा के नाम पर बस प्रेस रिलीज जारी कर निंदा कर दी जाती है.’
वे आगे कहते हैं, ‘पहले वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट और वेज बोर्ड पत्रकारों के लिए दो स्तंभ हुआ करते थे, जो मीडियाकर्मियों की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करते थे लेकिन आज के समय में वेज बोर्ड को समाप्त कर दिया गया, वर्किंग जनलिस्ट एक्ट को मर्ज कर दिया गया है. हमारी हालत मनरेगा मजदूरों से भी खराब है, मनरेगा मजदूरों के पास कम से कम सिक्योरिटी तो है लेकिन पत्रकारों के पास वह भी नहीं है.’
सुरेश मानते हैं कि वैचारिक असमानता एक वजह है, जिसके चलते पत्रकारों के हित की बात आने पर भी सभी मीडियाकर्मी ही साथ खड़े नहीं हो पाते.
वे कहते हैं, ‘आज के समय में मीडियाकर्मियों में बहुत ध्रुवीकरण हो गया है. हम वैचारिक स्तर पर इतने बंट गए हैं कि अपने मुद्दों के लिए साथ आने तक को तैयार नहीं है.’
पत्रकारों की कटती तनख्वाह और जाती नौकरियों के बीच देश में पत्रकारों के हितों के लिए काम कर रही संस्था नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स (इंडिया) ने पत्रकारों को आर्थिक सुरक्षा दिए जाने की मांग करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी भी लिखी है.
इसके अध्यक्ष रास बिहारी कहते हैं, ‘मौजूदा समय में पत्रकारों की दशा बहुत खराब है. बमुश्किल ही देश का ऐसा कोई संस्थान है, जहां पत्रकारों से नौकरियों से नहीं निकाला गया हो या जिनकी तनख्वाह में कटौती नहीं हुई हो. अखबार लगातार बंद हो रहे हैं, बेशर्मी के साथ मीडिया संस्थान पत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखा रहे हैं, जिसमें तय नियमों में कहीं पालन नहीं हो रहा है.’
उनका कहना है कि इस मसले पर सरकार की गंभीरता भी संदेह के घेरे में है. वे बताते हैं, ‘हमने पत्रकारों को आर्थिक सुरक्षा देने की मांग करते हुए अप्रैल से लेकर जून तक चार बार प्रधानमंत्री मोदी को चिट्ठी लिखी, जिनमें हमने पत्रकारों को आर्थिक पैकेज देने या एकमुश्त राशि देने की मांग की है. लेकिन आज तक एक भी चिट्ठी का जवाब नहीं आया. मतलब सरकार इस मामले को गंभीरता से नहीं ले रही.’
( साभार : द वायर )