बस्तर : क्या 80 हजार की खाई कांग्रेस पाट पाएगी ?
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बस्तर से लौटकर संजय पराते
जगदलपुर. वे डरे हुए हैं, बदहवास हैं। बावजूद इसके कि आंकड़े उनके पक्ष में है। इस बार जमीनी हकीकत कुछ और बयां कर रही है। इस हकीकत की वे भी पहचान रहे हैं। इसलिए वे और भी डरे हुए हैं, बदहवास हैं। मोदी के जुमलों पर न्याय का हथौड़ा भारी पड़ रहा है।
बस्तर लोकसभा में विधानसभा की 8 सीटें हैं। हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में तीन सीटें – बस्तर, बीजापुर और कोंटा — कांग्रेस ने जीती हैं, तो चार सीटों – कोंडागांव, नारायणपुर, जगदलपुर और चित्रकोट विस सीट पर भाजपा ने जीत दर्ज की थी।
इन 8 सीटों पर कांग्रेस को सम्मिलित रूप से 4,01,538 वोट तथा भाजपा को 4,81,151 वोट मिले थे। इस प्रकार भाजपा 79,613 वोट और 7.91% वोटों के अंतर से आगे थी।
वर्ष 2019 के पिछले लोकसभा चुनाव के परिणाम से विधानसभा चुनाव के ये परिणाम भाजपा के लिए आश्वस्तिदायक हैं। तब भाजपा को लोकसभा चुनाव में 3,63,545 वोट ही मिले थे। तब कांग्रेस को 4,02,527 वोट मिले थे।
इस प्रकार कांग्रेस के दीपक बैज ने भाजपा के बैदूराम कश्यप को 38,982 वोट और 4.27% के अंतर से हराया था। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने पिछली बार जिन दो सीटों पर विजय पाई थी, उनमें से एक बस्तर भी थी।
इस प्रकार बस्तर लोकसभा में पांच साल पहले कांग्रेस से 4.27% वोटों से पीछे रहने वाली भाजपा आज 7.91% वोट से आगे हैं। निश्चित ही ये आंकड़ें प्रभावशाली हैं और भाजपा के पक्ष में हैं।
इसके बावजूद भाजपा के चेहरे पर चिंता की लकीरें हैं और वह पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं। क्यों? इसका एक कारण तो मतदाताओं का वह असामान्य व्यवहार ही है, जिसने दिसंबर 2018 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को भारी भरकम जीत दिलाने के चार माह बाद ही अप्रैल 2019 में हुए लोकसभा के चुनावों में उसे पटकनी देने में कोई संकोच नहीं किया था।
इस बार भी मतदाता कहीं ऐसा ही ‘खेला’ नहीं कर दें! दूसरा कारण, लगातार दस सालों से केंद्र में सत्ता में बने रहने और 2013-18 के दौरान केंद्र और राज्य दोनों ही स्तर पर सत्ता में बने रहने से पैदा सत्ता-प्रतिकूलता का कारक है, जिसने पिछली बार राज्य की सत्ता से उसे 10% वोटों के अंतर से बाहर कर दिया था।
तीसरा कारण, स्वयं भाजपा की वे नीतियां हैं, जिससे राज्य की जनता और खासकर बस्तर की आदिवासी और गरीब जनता भुगत रही है।
इसी बदहवासी ने भाजपा को मोदी की कथित गारंटी के बावजूद अपना उम्मीदवार बदलने को मजबूर किया है। इस बार उसने एक भूतपूर्व सरपंच महेश कश्यप को टिकट दिया है, जिसकी राजनैतिक पृष्ठभूमि यही है कि वह संघ के आनुषंगिक संगठनों बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद से जुड़ा रहा है और धर्मांतरण विरोधी आंदोलनों की अगुआई करते हुए ईसाई आदिवासियों पर हमले करता रहा है।
इस चेहरे को सामने रखकर संघ-भाजपा ने हिन्दुत्व का कार्ड खेलने की कोशिश की है। कांग्रेस ने भी अपना प्रत्याशी बदला है और उसने लगातार 6 बार विधायक निर्वाचित हुए और भूपेश मंत्रिमंडल के आबकारी मंत्री कवासी लखमा को मैदान में उतारा है। कांग्रेस प्रत्याशी का व्यक्तित्व निश्चित ही भाजपा पर भारी पड़ रहा है।
बस्तर में मोदी की 8 अप्रैल को सभा हो चुकी है। राम मंदिर, धर्मांतरण और असफल हो चुकी केंद्रीय योजनाओं की जुगाली करने के सिवा उनके पास कोई मुद्दा नहीं था।
मोदी गारंटी का जुमला भी था, लेकिन बेरोजगारों के लिए रोजगार, किसानों के लिए एमएसपी और कर्जमुक्ति, आदिवासियों के लिए राज्य प्रायोजित उत्पीड़न से मुक्ति और वनाधिकार, पेसा और मनरेगा कानूनों के क्रियान्वयन की गारंटी सिरे से गायब थी।
पिछली कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार पर तो वे गरज-तरज रहे थे, लेकिन अपने किए दुनिया के सबसे बड़े चुनावी बांड घोटाले पर चुप थे। उनके भाषण इस बात के संकेत थे कि एक व्यक्ति और एक दल के शासन को लादने की पूरी गारंटी है।
वहीं 13 अप्रैल को हुई अपनी सभा में राहुल गांधी का पूरा भाषण मुद्दों पर केंद्रित था। आदिवासियों, बेरोजगार नौजवानों, गरीबी की समस्या उनके भाषण के केंद्र में थी और भाजपा की सांप्रदायिक नीतियों पर उन्होंने अपना निशाना साधा।
रायपुर के वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार सोनी कहते हैं कि बस्तर के आदिवासियों को धारा 370 के हटने या राम मंदिर के निर्माण से कोई मतलब नहीं है। इन मुद्दों को सामने रखकर भाजपा को अपनी जीत का सपना नहीं देखना चाहिए।
लेकिन पत्रकार पूर्णचंद्र रथ का कहना है कि बस्तर लोकसभा क्षेत्र के शहरी हिस्से (जो अपेक्षाकृत बहुत छोटा है) में भाजपा का प्रभाव कांग्रेस से ज्यादा है।
जगदलपुर के एक नौजवान कांग्रेसी कार्यकर्ता भुजित दोशी कहते है कि मोदी की सभा के मुकाबले राहुल की सभा का बड़ी होना बताता है कि बस्तर में हवा किस ओर बह रही है। महिलाओं के उत्थान के लिए हर वर्ष उन्हें 1 लाख रुपए देने के वादे के साथ ही आज राहुल गांधी ने किसानों की कर्जमुक्ति, उन्हें एमएसपी की कानूनी गारंटी देने और नौजवानों से खाली पदों को भरने का जो वादा किया है, वह मोदी की किसी भी गारंटी पर भारी पड़ेगी।
दरभा के आदिवासी नौजवान संतोष यादव ने कहा कि राज्य में भाजपा सरकार आने के बाद नक्सलियों के दमन के नाम पर आदिवासियों का उत्पीड़न बढ़ गया है और भाजपा सरकार फिर से नए रूप में सलवा जुडूम को लाना चाहती है।
उनके मुताबिक लोहंडीगुड़ा के आदिवासी टाटा के लिए बंदूक की नोंक पर उनकी जमीन छीनने की रमन सरकार की करगुजारी को अभी तक नहीं भूले हैं। नगरनार के स्टील प्लांट को मोदी सरकार आज भी निजीकरण की सूची में रखे हुए हैं। इसलिए बस्तर का नौजवान मोदी की किसी भी गारंटी पर विश्वास करने के लिए तैयार नहीं है।
हंसते हुए वे कहते हैं — “हाथी के दांत दिखाने के और होते हैं, खाने के और। मोदी गारंटी का यही हाल है।”
उल्लेखनीय है कि रमन राज में संतोष नक्सलियों के साथ संबंध रखने के झूठे आरोप में कई माह जेल काट चुके हैं।
लेकिन फिर वही सवाल : जीतेगा कौन. .?
क्या कांग्रेस 80,000 वोटों की खाई को पाटने में सफल हो पाएगी?पत्रकार रितेश पांडे एक मशहूर मजाक की याद दिलाते हैं : जनता तो चाहती है कि कांग्रेस जीते, लेकिन यदि कांग्रेसी ही भाजपा को जीताना चाहे तो…?
वे कहते हैं कि विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार का यह एक बड़ा कारण था। लेकिन अब कांग्रेसी इस हार से सबक लेकर एकजुट होंगे और मोदी के जुमलों पर न्याय का हथौड़ा भारी पड़ेगा।