कांग्रेस को ‘मुक्त’ करें राहुल
कांग्रेस कार्यकर्ताओं को साफ संदेश दें राहुल गांधी, बदलते वक्त के हिसाब से पार्टी में बदलाव लाना भी जरूरी
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• नीलांजन मुखोपाध्याय
कुछ समय से कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी का ट्विटर हैंडल काफी सक्रिय है। लेकिन उनके ट्वीट के साथ दो तरह की समस्याएं हैं। एक तो यह साफ नहीं है कि वह कांग्रेस पार्टी के ‘पूर्व और फिर कभी न बनने वाले’ अध्यक्ष के रूप में बात कर रहे हैं या एक बार फिर अध्यक्ष बन सकने वाले शख्स के रूप में। दूसरी बात यह है कि राहुल जो कहते हैं, अक्सर न तो उनके समर्थक समझ पाते हैं और न ही विरोधी।
मसलन, अब विवादित हो चुका 21 जून का उनका ट्वीट ही देखें। उसमें वह कहते हैं कि नरेंद्र मोदी दरअसल ‘सुरेंदर मोदी’ हैं। अंग्रेजी में यह ट्वीट इस तरह किया गया था कि इसकी वर्तनी अंग्रेजी के सरेंडर शब्द से मिलती-जुलती थी। इससे एक दिन पहले ही उन्होंने आरोप लगाया था कि प्रधानमंत्री ने ‘चीनी आक्रामकता के सामने भारतीय इलाका सरेंडर कर दिया।’
उम्मीद के अनुसार, विवाद हुआ। पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा की अगुवाई में बीजेपी की क्विक रेस्पॉन्स टीम ने बताया कि सुरेंद्र तो भगवान विष्णु का एक नाम है, जिन्हें हिंदू देवताओं का राजा कहा जाता है। तो इस तरह राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री की तारीफ की। दूसरी ओर गांधी के समर्थकों को समझ में नहीं आया कि अंग्रेजी के सुरेंदर शब्द में टाइप की गलती थी या जानबूझकर ऐसा किया गया था।
जो भी हो, चर्चा का केंद्र वह ट्वीट बन गया, न कि वह मुद्दा, जो राहुल गांधी ने उठाने की कोशिश की थी। यानी यह कि 15-16 जून की उस ख़ूनी रात जो हुआ, उसके बारे में आए सरकारी बयान में एक तरह से मान लिया गया कि एलएसी के पास का छोटा सा इलाका अब चीन के नियंत्रण में है, जिसे भारत पहले अपना मानता था।
इस ग़फ़लत के बावजूद कांग्रेस नेता ट्वीट करते रहे। वे विडियो भी अटैच करते रहे, जिसमें मोदी और सरकार के बारे में उनका तीखा रुख बना रहा। एक दिन उन्होंने कहा कि एमएसएमई तबाही का सामना कर रही हैं, जबकि बैंक गंभीर संकट में हैं, तो एक और दिन गांधी कोरोना महामारी के दौरान आर्थिक कुप्रबंधन से नाराज थे। चीन से टकराव के बारे में भी उन्होंने कड़े सवाल पूछना जारी रखा। उनका एक प्रश्न यह था कि डी-एस्केलेशन के समझौते में पूरे इलाके में ‘पहले की स्थिति बहाल करने पर जोर क्यों नहीं दिया गया?’
आखिरकार सरकार ने तय किया कि जवाब देना तो बनता है। लेकिन राहुल ने जो मुद्दे उठाए थे, उन पर जवाब देने के बजाय सरकार ने 8 जुलाई को एक अंतर-मंत्रालयी टीम बना दी, एन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट के एक अधिकारी की अगुवाई में। समिति को जिम्मा दिया गया राजीव गांधी फाउंडेशन, राजीव गांधी चैरिटेबल ट्रस्ट और इंदिरा गांधी मेमोरियल ट्रस्ट की जांच का। इन संस्थानों का नेहरू-गांधी परिवार और कांग्रेस से क़रीबी संबंध है। अब मनी लॉन्ड्रिंग, इनकम टैक्स के नियमों के उल्लंघन और विदेशी फंडिंग में गड़बड़ियों के आरोप में इनकी जांच होगी।
कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि कांग्रेस के ट्रस्टों को मिलने वाले पैसों के स्रोत की जांच में तो सरकार अपनी पूरी मशीनरी झोंक रही है, लेकिन बीजेपी से जुड़े विवेकानंद फाउंडेशन, इंडिया फाउंडेशन, ओवरसीज फ्रेंड्स ऑफ इंडिया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जांच वह नहीं कर रही। इन संगठनों की विदेशी फंडिंग पर भी सवाल उठे थे।
पर राहुल ने फिर गुगली डाल दी। उन्होंने 8 जुलाई को ट्वीट किया कि ‘मोदी को लगता है कि दुनिया उनके जैसी ही है। वह सोचते हैं कि सबको ख़रीदा जा सकता है या डराया जा सकता है। वह कभी नहीं समझ सकेंगे कि जो सच के लिए लड़ते हैं, उन्हें न तो ख़रीदा जा सकता है और न ही डराया जा सकता है।’
इस आरोप में कांग्रेस के ट्रस्टों का कोई सीधा ज़िक्र नहीं था। नतीजा यह हुआ कि ट्वीट पढ़ने वाले अधिकतर लोगों को समझ में नहीं आया कि वह कहना क्या चाहते थे। इसके बावजूद हमेशा की तरह पार्टी के भीतर राहुल गांधी के जवाब को ही प्रमुखता मिली, न कि पार्टी के प्रवक्ताओं या दूसरे नेताओं के जवाब को।
इस बार भी मामला वैसा ही रहा, जो अंग्रेजी में सुरेंदर शब्द इस्तेमाल करने के समय दिखा था। उस समय पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चीन मामले पर मोदी के खिलाफ एक कड़ा बयान दिया। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री को ‘हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि उनकी कही गई बात का क्या असर हो सकता है।’
उन्होंने कहा कि मोदी को चीन को यह मौका नहीं देना चाहिए था कि वह उनके ही शब्दों का इस्तेमाल खुद को सही ठहराने में करे। हालांकि उनकी यह प्रभावशाली बात राहुल गांधी के ट्वीट से मीडिया में उठे शोर के बीच दब गई। इस तरह मोदी को सिंह की आलोचना को दरकिनार करने का मौका मिल गया।
2019 के बाद की राजनीति में राहुल गांधी कई मोर्चों पर गलतियां कर रहे हैं। राहुल यह साफ नहीं कर रहे कि वह पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी पर फिर आना चाहते हैं या इस रेस से बाहर हो गए हैं या असल में वही पार्टी चीफ हैं और यह ज़िम्मेदारी छोड़ना चाहते हैं। वह पार्टी को ज्यादा देर तक भ्रम में नहीं रख सकते। ऐसे कई मौक़े आए हैं, जब राहुल के संबंध में कहा गया कि पॉलिटिक्स फुल टाइम जॉब है।
उनकी लापरवाही की रिपोर्ट आती रहती हैं। लॉकडाउन में देश से बाहर जाना संभव नहीं था। तो यही रिपोर्ट आ गई कि रक्षा मामलों की संसदीय समिति की बैठकों से वह नदारद रहे। 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों से संसदीय बहसों में हंगामेबाजी बढ़ी है। इसकी दो वजहें हैं। एक तो लाइव टीवी कवरेज की शुरुआत। दूसरा, पॉलिटिकल एजेंडा में सोशल जस्टिस को शामिल करने से भारतीय राजनीति का सामाजिक विस्तार।
अगर कांग्रेस को प्रभावी विपक्षी दल बनना हो तो उसे नया कलेवर पाना होगा। गांधी परिवार की मौजूदगी इसमें एक बाधा है। पार्टी का नेतृत्व स्वाभाविक रूप से परिवार के हाथ में होने का रिवाज बदलना होगा। कांग्रेस नेताओं और पार्टी के ‘प्रथम परिवार’ को भी समझ लेना चाहिए कि वे पार्टी के लिए जरूरत के बजाय बोझ बन गए हैं।
मोदी जिस तरह वोट जुटाते हैं, वैसा करने में राहुल एक के बाद एक हर चुनाव में विफल हुए हैं। सोनिया गांधी की उम्र हो चली है। आज की राजनीति के तकाजे पूरा करने लायक वह नहीं रहीं।
रहीं प्रियंका, तो यूपी इंचार्ज और जनरल सेक्रेटरी बनाए जाते समय उन्होंने संभावना दिखाई थी, लेकिन दोआब इलाके में उनका जादू नहीं चला। उन्होंने कांग्रेस के थक चुके संगठन में जान डालने के जुझारू तेवर का संकेत भी नहीं दिया। वैसा जुझारूपन जो 2013-14 में बीजेपी के लिए अमित शाह ने दिखाया।
यह सही है कि बीजेपी सहित कोई भी पार्टी अपने आंतरिक चुनावों में सही मायने में लोकतांत्रिक नहीं है। लेकिन कांग्रेस का यह कहना काफी नहीं होगा कि बीजेपी में भी पीयूष गोयल, अनुराग ठाकुर, वरुण गांधी जैसे कई सीनियर नेता राजनीतिक परिवारों से हैं। बीजेपी के इस आरोप से लोग सहमति जताते हैं कि भारतीय राजनीति में परिवारवाद का प्रतीक गांधी परिवार है और बीजेपी में इस तरह का कोई परिवार नहीं है।
राहुल और उनकी बहन को अगर राजनीति में सक्रिय रहना हो तो वे पार्टी या संसद के सदस्य के रूप में रह ही सकते हैं। लेकिन उन्हें ज्यादा गंभीरता दिखानी होगी। पार्टी के संरक्षकों की भूमिका निभानी होगी। वक्त़ आ गया है कि वे पार्टी के भीतर होने वाली आलोचना सुनें और एक-दूसरे को बचाना बंद करें। 23 जून को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में जो हुआ, वैसा फिर नहीं होना चाहिए। उस बैठक से यही दिखता है कि पार्टी में केवल राहुल गांधी की आवाज का मतलब है।
उस मीटिंग में उन्होंने यूपी के नेता आरपीएन सिंह से नाराजगी जताई। सिंह का कहना था कि प्रधानमंत्री की ‘नीतियों और गलत निर्णयों’ को निशाना बनाया जाना चाहिए, न कि उन पर निजी तौर से आरोप लगाए जाएं। यह बयान सुरेंदर मोदी वाले बयान के दो ही दिन बाद आया था। लेकिन गांधी ने कहा कि वह किसी से डरते नहीं। प्रियंका उनकी मदद को आगे आईं। उन्होंने कहा कि मोदी और बीजेपी के खिलाफ अकेले राहुल बोलते आ रहे हैं।
सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष बनी हुई हैं। इससे यह धारणा मजबूत हो रही है कि वह केवल उस समय के इंतजार में अध्यक्ष बनी हुई हैं, जब राहुल यह पद संभालेंगे। कांग्रेस 135 साल पुरानी पार्टी है, लेकिन लोग कांग्रेस को गांधी परिवार से जोड़कर ही देखते हैं।
समय आ गया है कि गांधी परिवार अपनी पकड़ से पार्टी को आजाद करे, नया अध्यक्ष चुनने के लिए चुनाव की आवाज उठाए। बेहतर होगा कि कड़ी होड़ वाला चुनाव होने दिया जाए और दूसरी पार्टियों के लिए एक नजीर बनाई जाए। इससे कांग्रेस के खिलाफ बीजेपी का मुख्य हथियार भोथरा हो जाएगा।
इस बात का डर जताया जाता है कि गांधी परिवार के हटने से कांग्रेस टूट जाएगी। ऐसा होने की गुंजाइश नहीं के बराबर है, बशर्ते यह परिवार ही बगावत को हवा न दे दे। लेकिन ऐसा होने पर राहुल और उनकी बहन और भी बेपरदा हो जाएंगे। उनके लिए सबसे अच्छा यही होगा कि वे राजनीतिक रूप से सक्रिय रहें और राजनीति की लहर के अपने पक्ष में मुड़ने का इंतजार करें क्योंकि सियासत में कुछ भी स्थायी नहीं होता है।
( साभार : नवभारत टाइम्स )