भीमा की विधवा तुमने सिर्फ़ वोट नहीं डाला बल्कि लोकतंत्र को जिताया है. . .
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा से विधायक रहे भीमा मंडावी की मौत के चंद घंटों बाद ही उनकी विधवा ने न केवल मतदान किया बल्कि नक्सली मुंह पर करारा तमाचा जड़ दिया है.
परिवार सहित मतदान केंद्र पहुंची विधवा ओजस्वी ने वोट देकर अपना फर्ज तो निभाया ही बल्कि लोकतंत्र की जीत भी सुनिश्चित कर दी है.
ओजस्वी तब मतदान केंद्र पहुंची थी जब उनके पति और विधायक भीमा मंडावी को नक्सली वारदात में अपनी जान गंवाए सिर्फ चंद घंटें हुए थे. गृहग्राम गदापाल में जिस किसी ने भी ओजस्वी को परिवार के साथ मतदान देने वाली पंक्तियों पर खड़ा देखा उसकी आंखें डबडबा गई.
दरअसल नक्सली सोच यहां ओजस्वी की वीरता के आगे खारिज हो गई है. नक्सलियों ने सोचा रहा होगा कि गदापाल के 1100 मतदाता में से कोई भी मतदान केंद्र तक नहीं पहुंचेगा.
उनकी सोच तब डूबती हुई नजर आई जब सुबह 7 बजे से गदापाल के मतदान केंद्र के आगे मतदाताओं की भीड़ जुटनी शुरू हो गई थी.
और तो और इस पर भीमा की विधवा ओजस्वी ने मठा डालने का काम किया. वह अपने परिवार सहित रूंधे गले से मतदान करने पहुंची थी. साथ में ससुर लिंगा मंडावी भी थे.
पूरे परिवार की आंखों में नमी थी लेकिन इरादे मजबूत थे. मजबूत इरादों के साथ परिवार के लोगों ने न केवल मतदान किया बल्कि नक्सलियों की विचारधारा को खारिज भी कर दिया.
बहरहाल, बस्तर नक्सली विचारधारा को किनारे लगाने में गुरूवार को सार्थक पहल करते नजर आया. नक्सली धमकी के बावजूद वहां के लोगों ने मतदान कर यह दिखा दिया कि वह किसी से भी डरने वाले नहीं है. बस्तर सीट पर तकरीबन 56 प्रतिशत मतदान की खबर है जिसे रिकार्ड बताया जा रहा है.
वो भी तब जब नक्सल प्रभावित क्षेत्र में होने के चलते 294 अतिसंवेदनशील मतदान केंद्र अंतिम समय में स्थल परिवर्तन के दायरे में आए थे.
तकरीबन एक लाख से अधिक मतदाता इससे प्रभावित हुए थे. उन्होंने 15-35 किमी तक पैदल चलकर लोकतंत्र के इस महापर्व में मतदान कर अपनी हिस्सेदारी निभाई है.
बस्तर का इतिहास जब कभी लिखा जाएगा तब नक्सलवाद के साथ उनसे अपने तौर तरीकों से जूझने वाले उन भोले भाले आदिवासियों का भी उल्लेख होगा जिन्होंने लोकतंत्र को जिताया है.
अब देखें न नक्सलियों के गढ़ माने जाने वाले अबूझमाड़ क्षेत्र में हरिमरका गांव के मतदान केंद्र में आजादी के बाद पहली बार वोट पड़े. सलाम है आदिवासियों को.
सलाम तो उन महज 1,2,5,6,7,8,9,10,11 की संख्या में वोट डालने वाले कलेपाल, गुमियापाल, हिरोली, जवेली, बुरगुम, निलवाया, मुलेर, ककाड़ी, पोटाली, मेंडपाल के आदिवासियों को भी है जिन्होंने नक्सली धमकी को किनारे रखकर अंततः वोट डालने की शुरूआत की है.
इतना साहस आखिर आदिवासियों में आया कहां से? दरअसल नक्सलियों ने आदिवासियों का शोषण इस हद तक कर लिया है कि अब आदिवासियों के पास खोने के लिए कुछ नहीं है.
यदि खोने के लिए आदमी के पास कुछ न हो तो वह जो कुछ भी करता है वह सृजन से जुड़ा हुआ होता है. आज की तारीख में बस्तर का आदिवासी अपने मताधिकार का उपयोग कर वही सृजन कर रहा है.