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प्रदीप की जीत भाजपा की नई परेशानी !

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नेशन अलर्ट/जनचर्चा.

प्रदीप गाँधी… पूर्व विधायक, पूर्व साँसद… जी नहीं… इससे भी बढा़ परिचय यह है कि वह बर्खास्त साँसद हैं. जी हाँ यह वही गाँधी हैं जिन्हें “गाँधीजी” लेकर सवाल पूछने के आरोप में अपनी सदस्यता गँवानी पडी़ थी.

दरअसल, वर्ष 2003 के अँत में हुए विधानसभा चुनाव में छग में कमल खिल गया था. तब प्रदेश अध्यक्ष पद पर डा. रमन सिंह काबिज थे.

उस समय प्रथम मुख्यमँत्री रहे अजीत जोगी की राजनीति का सामना करने की नौबत जब अच्छे अच्छे भाजपाई नहीं दिखा पाए थे तब रमन ने पार्टी के आदेश को सिरमाथे पर लिया था. वह केंद्र में राज्यमँत्री का पद त्याग कर छत्तीसगढ़ लौटे थे.

उन्होंने भाजपा को जीत दिलाकर चमत्कार ही कर दिया था. इससे पहले कि कुछ और तय हो पाता भाजपा ने मुख्यमँत्री का साफा रमन के सिर पर पहनाने का ऐलान कर दिया था.

अब परेशानी इस बात की थी कि तब रमनजी साँसद हुआ करते थे. वह छतीसगढ़ बनने के बाद हुए पहले विधानसभा चुनाव में लड़ने के स्थान पर लड़वाने सहित पार्टी की रणनीति बनाने में व्यस्त रहे थे.

कवर्धा सीट से वह जीता करते थे लेकिन 1998 में हुए विस चुनाव में उन्हें काँग्रेस से हार झेलनी पडी़ थी. यह अलग बात है कि इसके बाद अगले वर्ष हुए सँसदीय चुनाव में उन्होंने अपनी हार का बदला तब के काँग्रेसी दिग्गज (स्वर्गीय मोतीलाल वोरा) को हरा कर पूरा कर लिया था.

लेकिन दिक्कत बिना विधायक बने मुख्यमँत्री बनने में थी. हालाँकि छह माह की छूट का प्रावधान है लेकिन अपने लिए सुरक्षित सीट ढूँढना था. यह आस पूरी हुई उस डोंगरगाँव सीट से जहाँ से पहली बार विधायक बनने का सौभाग्य प्रदीप को मिला था.

पहली बार के विधायक प्रदीप ने खुद होकर यह सीट मुख्यमँत्री के लिए खाली की थी. उप चुनाव में तब के मुख्यमँत्री रमन विधायक चुन भी लिए गए. उन्होंने गाँधी के इस कर्ज को उन्हें 2004 में साँसद की टिकट दिलवा कर, जितवा कर चुकाया भी लेकिन प्रदीप की रफ्तार कुछ ज्यादा ही तेज थी.

वह आपरेशन कोबरा का शिकार हो गए. यह एक स्टिंग आपरेशन था. पैसे लेकर सवाल पूछने से मामला जुडा़ था. तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष (स्वर्गीय सोमनाथ चटर्जी) ने कठिन लेकिन न्यायपूर्ण फैसला सुनाते हुए प्रदीप गाँधी और अन्य दोषी साँसदों को सदस्यता से बर्खास्त कर दिया.

अपने को पाकसाफ बताने पार्टी ने भी बाहर का रास्ता दिखा दिया. कुछ समय बाद पार्टी की सदस्यता तो बहाल हो गई लेकिन कोई ठीक सा काम नहीं मिला. हाल ही में सदस्यता अभियान में जरूर पार्टी ने राज्य का प्रभार सौंपा था.

पार्टी के लिए परेशानी का समय अब है. क्यूँ..? क्यूँकि काँस्टिट्यूशन क्लब (पूर्व व वर्तमान साँसदों की सदस्यता वाला सँघठन) में कार्यकारिणी का चुनाव अभी हाल में प्रदीप गाँधी ने जीत लिया है.

इसके बाद अपने व अपने समर्थकों को राजनीति में पुनर्जीवित करने के अलिखित काम में गाँधीजी लग चुके हैं. ऐसा कोई मौका नहीं जाया जा रहा है जब वह आपदा ही अवसर है के मूल विचार से उत्प्रेरित न होते हों.

जब वह दिल्ली से लौटे तो उनके मुट्ठीभर (फिलहाल, भविष्य में बढेंगे तय है) समर्थकों ने फूलमाला से लादने, जिंदाबाद के नारे लगाने में कोई कोताही नहीं बरती. लगता है कि धीरे धीरे ही सही लेकिन प्रदीप का प्रताप लौटने लगा है.

और यही पार्टी की परेशानी है (नहीं है तो होगी यह तय है). जनचर्चा के मुताबिक अभी राजनाँदगाँव (जहाँ से प्रदीप गाँधी साँसद चुने गए थे) वहाँ कुलजमा पाँच लोग ऐसे हैं जिन्होंने साँसद होने का रूतबा भोग लिया है.

इनमें अशोक शर्मा को छोड़ दिया जाए तो शेष अन्य (डा. रमन सिंह – विधानसभा अध्यक्ष, मधुसूदन यादव – महापौर, अभिषेक सिंह – सँघठन में सक्रिय, सँतोष पाँडेय – वर्तमान साँसद) की पूछपरख बाकी है.

शर्माजी उम्रदराज होने से कहीं ज्यादा अपने सुपुत्र (नीलू शर्मा, छग पर्यटन मँड़ल अध्यक्ष) के लिए रास्ता बनाने सक्रियता में पीछे हटते हुए नज़र आए हैं. शेष अन्य अभी भी ताल ठोक ही रहे हैं.

जनचर्चा बताती है, कहती है कि प्रदीप की जीत भले ही सामान्य लगे लेकिन है नहीं. यह जीत उस प्रदीप गाँधी को नया उत्साह दे गई है जिनमें तब कुछेक लोगों को भविष्य के प्रमोद महाजन नज़र आते थे.

यदि वाकई ऐसा है तो यह किसी के लिए शुभ सँकेत हो अथवा न हों लेकिन भाजपा और प्रदीप गाँधी के लिए बेहतर कल की शुरुआत तो है ही. बशर्ते कि फिर कोई आपरेशन कोबरा न हो.