लमही : प्रेमचंद को पढ़ने वाला गाँव का नौजवान नहीं मिलेगा
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नज़रिया : सुशील स्वतंत्र
कथा सम्राट मंशु प्रेमचंद के गांव लमही में प्रवेश करते ही आपको उनकी कहानियों के पात्र ‘घीसू’, ‘होरी’, ‘माधो’ और ‘धनिया’ से मुलाकात होगी. हामिद का चिमटा और नमक का दरोगा भी कहीं ना कहीं खोजने पर आपको मिल जाएंगे. अगर नहीं मिलेगा तो वह है प्रेमचंद को पढ़ने वाला गांव का कोई नौजवान.
आज अगर आप प्रेमचंद के गांव लमही जाते हैं तो गांव में प्रवेश करने से पहले ही ‘प्रेमचंद स्मृति स्वागत द्वार’ पर आपको उनकी कहानियों के चर्चित पत्रों ‘घीसू’, ‘होरी’, ‘माधो’ और ‘धनिया’ की प्रतिमाएं अपने किरदार वाली मुद्राओं में आपका स्वागत करते हुए मिल जाएंगी.
लमही गांव कितना बदला है, या गांव की हकीकत प्रेमचंद की कहानियों के गांव से कितनी जुदा है, यह सब आपको लमही में घूमने से पता चल जाएगा. गांव में आज भी एक तरफ प्रेमचंद की कहानियों की सामाजिक विषमता की झलक देखने को मिल जाएगी तो दूसरी तरफ आधुनिकता की बयार भी आपको छूते हुए गुजर जायेगी.
उत्तर प्रदेश सरकार ने लमही को बनारस जिले का पहला ई-विलेज घोषित किया था. सरकार का दावा था कि लमही में हर परिवार का पूरा विवरण डाटा बैंक में होगा. आय, जाति, निवास प्रमाणपत्र हो या खसरा – खतौनी जैसे अन्य सरकारी दस्तावेज के लिए किसी बुधिया, होरी, धनिया, घीसू, माधो को तहसील और कलेक्ट्रेट का चक्कर नहीं काटना पड़ेगा. सारी सुविधाएं ग्राम पंचायत भवन से ही उनको मिल जाएंगी.
इसके लिए वहां जाकर सिर्फ अपना नाम बताना होगा और तुरंत सारा विवरण प्रिंट करके और हस्ताक्षर करके तत्काल उपलब्ध करा दिया जाएगा. सरकारी दावों पर यकीन करें तो लगता है कि अब लमही के दिन भी फिरने वाले हैं.
गांव में घुमने पर आपको आधुनिक घर भी देखने को मिलेंगे और फूस की झोंपड़ी भी, जिसे स्थानीय लोग मड़ई कहते हैं. कुछ खपरैल के मकान अब भी यहां दिख जाते हैं. गांव में प्रवेश करते ही रोज सुबह लगने वाली लोकल सब्जी मंडी दिखेगी और कुछ दूर चलते ही आएगा मुंशीजी का पोखरा यानी तालाब.
इसी पोखर के पास दिखाई देगा मुंशी प्रेमचंद का पैतृक आवास, जहां से उन्होंने न जाने कितनी कालजयी कृतियों की रचना की. आज इस स्थान पर ‘मुंशी प्रेमचंद स्मारक और पुस्तकालय’ का परिसर बना है, जिसमें कुछ पुस्तकें रखी गई हैं और प्रेमचंद की एक पाषाण प्रतिमा लगाई गई है.
लंबी प्रतीक्षा के बाद गांव में मुंशी प्रेमचंद शोध एवं अध्ययन केंद्र की इमारत भी बनकर तैयार हो गई है. आमतौर पर साल भर यहां सन्नाटे जैसा माहौल रहता है. इस पूरे परिसर की देखभाल और रखरखाव एक समर्पित प्रेमचंद प्रेमी सुरेश चन्द्र दुबे नाम के सज्जन करते हैं.
अगर वे न हों, तो प्रेमचंद स्मारक में कोई आने-जाने वाला भी न बचे. प्रेमचंद स्मारक की गतिविधियों को लेकर सुरेश चन्द्र दुबे का साक्षात्कार अनेक चैनलों, अखबारों और वेब पोर्टल्स पर प्रकाशित हो चुका है.
पूरे लमही में आमतौर पर कायम रहने वाला साहित्यिक सन्नाटा साल में एक दिन उत्सव में बदल जाता है. वह विशेष दिवस होता है 31 जुलाई, मुंशी प्रेमचंद जी की जयंती. इस दिन लमही में मेला लगता है.
इस भव्य मेले में देश-दुनिया से साहित्यकार, रंगकर्मी, गायक, कवि, पत्रकार, चित्रकार, बुद्धिजीवी और शोधकर्ताओं की भारी भीड़ जुटती है. इस दिन लमही में महानुष्ठान जैसा माहौल होता है. प्रेमचंद जयंती पर लमही में रंगकर्मियों का भी विशेष मज़मा लगता है. कलाकार और साहित्यकार अपने प्रिय कथाकार को याद करने के लिए नाटक, गोष्ठी और परिचर्चाएं आयोजित करते हैं.
उस एक दिन के बाद फिर लमही को पूरे साल उसी के हाल पर हाल पर छोड़ दिया जाता है. यह एक रवायत की तरह पिछले कई वर्षों से चला आ रहा है. यह कहा जा सकता है कि तमाम घोषणाओं के बावजूद मुंशी प्रेमचंद का घर और गांव आज भी उपेक्षा का शिकार है. मुंशीजी की जयंती पर उनके पात्र होरी, माधो, धनिया, घीसू की गहरी संवेदना से जुड़े कलाकार नाटक के जरिए उन्हें याद कर करते हैं और सरकारी महकमों द्वारा फर्ज़ अदायगी के लिए टेंट भी लगा दिया जाता है लेकिन जयंती के बाद लमही के लोगों की सुध लेने कोई नहीं पहुंचता है.
एक बार तो प्रेमचंद जयंती के चार दिन पहले ही प्रेमचंद जी के घर की बिजली इसलिए काट दी गई क्योंकि चौदह साल से बिल का भुगतान नहीं हुआ था. जब यह खबर मीडिया में आई तो आनन-फानन में बिजली जुड़वा दी गई.
कोई विभाग इसकी जिम्मेदारी नहीं ले रहा था. पहले यह मकान और प्रेमचंद जी का स्मारक नागरी प्रचारिणी सभा के पास था. फिर उसने नगर निगम को दे दिया. नगर निगम ने भी बाद में यह भवन वाराणसी विकास प्राधिकरण को देकर अपना पल्ला झाड़ लिया.
अब जब यह विवाद सामने आया है तो इसे जिलाधिकारी ने इस परिसर को संस्कृति विभाग को सौंप दिया. अब इस गांव को गोद लेकर इसे देश के बड़े फलक पर लाने की योजना बनाई जा रही है.
बदल रहा है लमही. . .
मड़ई (फूस की झोपड़ी) और पोखर (तालाब) वाली लमही में दो-तीन मंजिला मकानों और दुकानों ने भी अपनी जगह बना ली है. घरों में मार्बल और टाईल्स के फर्श बनने लगे हैं. पांडेपुर से लमही तक की सड़क पर नजर डालें तो बाजारवाद के पसराव (फैलाव) का आभास हो जाता है.
गांव में लिट्टी – चोखा और गोलगप्पे के साथ-साथ चाउमीन, मोमोज और एगरोल के फूड स्टाल भी खूब फल-फूल रहे हैं. एक महान साहित्यकार की जमीन से साहित्य की कोई कलकल धारा आज फूट रही हो, ऐसा लमही में घूमने से महसूस नहीं होता है.
वहां के निवासियों के बीच साहित्य बातचीत और विमर्श का केन्द्रीय बिंदु नहीं है और न ही नई पीढ़ी में कोई लिखने – पढ़ने वाला साहित्यकार लमही की उर्वरक जमीन से अंकुरित हो पाया है.
वहां बच्चों को प्रेमचंद के बारे में बहुत ही सतही जानकारी है और बहुत कम बच्चों ने प्रेमचंद के समृद्ध साहित्य को पढ़ा है. लमही के आस-पास अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय खुल गए हैं.
लमही नाम से ही हिंदी की एक साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन होता है लेकिन इसका प्रकाशन, मुद्रण और सम्पादकीय कार्य लमही से नहीं होता है.
लेखन-पठन के क्षेत्र में अब लमही में कोई क्रांतिकारी या आशान्वित करती ही तस्वीर नजर नहीं आती है. नया लमही बाजारवाद और चमकदार भौतिकतावाद के गहरे प्रभाव से ग्रसित दिखता है.
युवाओं में साहित्य को लेकर सामान्यतः अरुचि ही देखने को मिलती है. बहुत खोजने पर एक असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. रीता गौतम के बारे में पता चला, जो लमही गांव की ही निवासी हैं. वे ‘बेड़ियां तोड़ती औरतें’ शीर्षक से एक पुस्तक का लेखन कर रही हैं, जिसमें साधारण महिलाओं की असाधारण उपलब्धियों की कहानियों को संकलित किया जा रहा है.
उन्होंने बातचीत के दौरान कहा – “वर्तमान में लमही में कोई साहित्यिक समूह सक्रिय नहीं है. एक प्रेमचंद जी के आवास से संचालित पुस्तकालय है जो नियमित तौर पर खुलता है, बस, इसके अलावा कहीं कोई विशेष साहित्यिक हलचल गांव में देखने को नहीं मिलती है.”
बहरहाल, जिस मिट्टी ने दुनिया के महान कथाकार को गढ़ा, वहां की आबोहवा में साहित्य की खुशबू फैल पाती तो आज लमही एक तीर्थ से कम न होता.
सरकारी प्रयास सिर्फ सड़क, भवन और स्वागत द्वार बनाने तक सिमित न होकर नई पीढ़ी में साहित्य के प्रति जिज्ञासा और रुचि पैदा करने तक जाते तो लमही अपने वास्तविक अर्थ हो हासिल कर पाती.
सरकारी प्रयासों के साथ – साथ देश के साहित्य जगत की भी जिम्मेवारी है कि लमही को साहित्य का तीर्थ कैसे बनाया जाए, इस दिशा में मंथन एवं सार्थक प्रयास हो. कम से कम लमही तो एक ऐसा गाँव जरुर बन सकता है, जहां हर घर में किताबों की अलमारियां हों, हवाओं में साहित्य का रस घुला हो और जहाँ की मिट्टी से कलम के नवांकुर फूटते हुए दृष्टिगोचर हों.
(सुशील स्वतंत्र पत्रकार हैं, लेखक और विचारक हैं. उनका अपना ‘स्वतंत्र प्रकाशन’ नाम से प्रकाशन संस्थान भी है. ‘संभावनाओं का शहर’ (कविता संग्रह) और ‘त्रिलोकपति रावण’ (उपन्यास) उनकी चर्चित पुस्तकें हैं.साभार न्यूज 18.)