समाजवादी चले गए, अंधविश्वास छोड़ गए. . .
राजेंद्र शर्मा
समाजवादी चले गए, पर अपने पूर्वाग्रह, बल्कि कहना चाहिए कि अंधविश्वास छोड़ गए। अब वही हर चीज में ‘गरीबों की सुनो’ का राग। चावल, आटे, छाछ वगैरह पर जीएसटी मत लगाओ, गरीबों को तकलीफ होगी। रसोई गैस के दाम इतने मत बढ़ाओ, गरीबों को फिर से अंगीठी/ चूल्हा युग में लौटना पड़ेगा। पैट्रोल-डीजल के दाम मत बढ़ाओ, गरीबों को हर चीज का ज्यादा दाम देना पड़ेगा। बिजली का रेट मत बढ़ाओ, रेल का किराया मत बढ़ाओ, स्कूल की फीस मत बढ़ाओ, अस्पताल के चार्ज मत बढ़ाओ, यहां तक कि राजमार्गों पर टोल, दाखिले से लेकर भर्ती तक हर तरह के फार्मों की फीस; कुछ भी मत बढ़ाओ, गरीबों की आंखों में आंसू आ जाएंगे।
और इसके बाद भी इसकी शिकायतें कि देश आगे क्यों नहीं बढ़ रहा है। जब गरीबों के चक्कर में दाम ही नहीं बढ़ेंगे, तो देश आगे कैसे बढ़ेगा? मुफ्त की रेबडिय़ों से! पर बेचारे सरकार माई-बाप सब कुछ जानते-समझते हुए भी, कुछ कह भी नहीं सकते हैं। गांधी जी देश के गले में कतार के सबसे पीछे के आंसू पोंछने का खटखटा जो डाल गए हैं। मारे जाने के इतने साल बाद भी बापू कहलाते हैं और उसके ऊपर से थे भी हुजूर वाले गुजरात से। पब्लिक के लिए मुफ्त की रेवडिय़ों को कोसने की बात और है, वर्ना कम से कम पब्लिक के बीच तो गलत को गलत कह भी नहीं सकते।
फिर भी हमारी मोदी जी से हाथ जोड़ विनती है कि किसानों को एमएसपी की गारंटी दें न दें, सांसदों/ विधायकों और उनसे नीचे वालों के लिए भी, एक न्यूनतम बिक्री मूल्य या मिनिमम सेलिंग प्राइस यानी एमएसपी जरूर लागू करा दें।
विधायकों वगैरह की एमएसपी के कानून में प्लीज अब और देरी नहीं। और इसलिए तो देरी हर्गिज नहीं कि किसानों के लिए एमएसपी का कानून नहीं बना सकते हैं। एमएसपी के बिना किसान कोई मर नहीं जाएंगे, पर चुनाव में जीतने वालों के लिए एमएसपी के बिना, डैमोक्रेसी का कारोबार चलना मुश्किल है।
और डैमोक्रेसी रो-पीटकर अगर बच भी गयी, तो भी अमृतकाल में देश का सचमुच विकसित बन पाना तो नामुमनिक ही समझिए। निर्वाचितों के ‘‘एक रेट’’ के बिना देश विपक्ष मुक्त कैसे होगा और विपक्ष मुक्त ही नहीं होगा, तो 2047 तक विकसित कैसे होगा?
और किसी चमत्कार से विकसित हो भी जाए तब भी, ‘एक देश, एक रेट’ के बिना दुनिया हमें विश्व गुरु कभी नहीं मानेगी। इस मुगालते में कोई नहीं रहे कि एक देश, एक टैक्स (जीएसटी) के लिए दुनिया हमें विश्व गुरु मान लेगी। एक देश, एक टैक्स के चक्कर में हमने अपनी इकॉनमी की वॉट भले ही लगा ली हो, पर यह कुर्बानी भी हमें विश्व गुरु का आसन नहीं दिला सकती है। एक देश, एक टैक्स तो दुनिया के दर्जनों छोटे-मोटे देशों में तो मिल ही जाएगा। हांं! ‘एक देश, निर्वाचितों का एक रेट’ लागू कर के दिखाने में जरूर होगी कुछ विश्व को सिखाने वाली बात, विश्व गुरु कहलाने वाली बात।
वैसे भी समाजवादी पूर्वाग्रहों को भूल भी जाएं तो भी, एक देश में, रेट में हद से ज्यादा गैर-बराबरी तो अपने आप में ही खतरे की घंटी है। और यहां तो खतरे की घंटी छोड़िए, मामला पगली घंटी के दर्जे पर पहुंच चुका है। बताइए, मुश्किल से दो महीने पहले, महाराष्ट्र में विधायकों का रेट पचास खोका तय हुआ था कि नहीं हुआ था। पर दिल्ली में अब पांच-पांच खोका का ऑफर हुआ बताते हैं। हद्द तो यह है कि पहले एक खोखा की ही पेशकश की खबर उड़ी थी। खैर, एक खोखा वाली खबर में कुछ गलती की भी गुंजाइश मान ली जाए तब भी, कहां पांच खोखा और कहां पचास खोखा।
महाराष्ट्र के एक विधायक के रेट में दिल्ली में दस विधायक! महाराष्ट्र के चार विधायक के रेट में दिल्ली में पूरी सरकार! यह तो चलने वाली बात नहीं है। सवाया हो, ड्योढ़ा हो, वहां तक तो फिर भी ठीक है, आखिरकार चुनाव आयोग की खर्चे की सीमाओं में भी कुछ न कुछ अंतर तो रहता ही है। लेकिन, एक देश, एक ही पद और रेट में दस गुने का अंतर, यह चलने वाली बात नहीं है।
फिर, रेट में अंतर की ये कहानी, दिल्ली और महाराष्ट्र के अंतर पर ही खत्म नहीं हो जाती है। जरा याद कीजिए कर्नाटक की, वहां पूरे पांच सौ खोका का रेट चला बताया गया था। और उसके चंद महीने बाद मध्य प्रदेश में, सिर्फ बीस खोका। पच्चीस गुने का अंतर। जितने में कर्नाटक में एक विधायक आया, उतने में मप्र में पूरी सरकार आ गयी। माना कि मप्र वाले टैम पर कोरोना था और कोरोना में सारे बाजार डॉउन थे, पर बाजार इतना भी डाउन थोड़े ही था। पर रेट के अंतर की ये कहानी तो इतने पर भी खत्म नहीं होती। मुंबई और दिल्ली के रेट खुुलने के बीच में, झारखंड के चार विधायक, बंगाल में हावड़ा में नकदी के साथ पकड़े गए। पर नकदी कितनी, कुल पचास लाख। पर हैड सिर्फ साढ़े बारह लाख! जनाब विश्व की प्राचीनतम डैमोक्रेसी बल्कि जनतंत्र की अम्मा के घर में विधायक खरीद रहे हैं या मूंगफली। ऐसी नाबराबरी विधायकों के रेट में और वह भी तब, जबकि हरेक सौदे में खरीददार एक ही है। ऐसे सिस्टम का तो फेल होना ही तय है। और वही हुआ भी। पहले झारखंड में ‘‘ऑपरेशन कमल’’ विफल हो गया और अब सुनते हैं कि दिल्ली में ‘‘आपरेशन कमल’’ फेल हो चुका है। और दिल्ली में विधानसभा में विधायकों की खरीद-फरोख्त करने वालों को ही, विपक्षी सरकारों के सीरियल किलर का खिताब दिया गया है, ऊपर से।
सबक ये कि बाजार में खरीददार एक ही हो, तब तो इसका खतरा और भी ज्यादा होता है कि बिकने वाले की मजबूरी में, खरीददार रेट इतना कम कर दे कि बिकने वाले के घाटे को छोड़ो, विपक्ष मुक्त देश का मिशन ही फेल होने लग जाए। और मिशन फेल होने लग जाए, तो कुछ भी हो सकता है, बिहार भी। रेट ज्यादा गिर जाएगा, तो दूसरे खरीददार भी तो खड़े हो सकते हैं। मिट्टी के मोल खरीद का लालच धन्नासेठों के लिए ठीक है, सरकार सेठों के लिए नहीं। सरकार फौरन से भी जल्दी विधायकों आदि के लिए एमएसपी का कानून बनाए और विपक्ष-मुक्त डैमोक्रेसी, विकसित भारत, विश्व गुरु की दावेदारी, सब को बचाए।
(इस व्यंग्य के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)