एक घाघ राजनेता होने के नाते मोदी अच्छी तरह जानते होंगे कि उनकी लोकप्रियता और जीतें महज हिंदू हितों के रक्षक की उनकी छवि के कारण नहीं हैं.
नेशन अलर्ट / 97706 56789
डीके सिंह
आज ये कहना कि भारतीय जनता पार्टी का प्रभाव कम होता जा रहा है, किसी राजनीतिक पत्रकार के लिए हाराकीरी जैसा प्रयास ना भी हो तो ईशनिंदा जैसी हिमाकत तो है ही.
आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने ढंग की चुनौती पेश करने वाला कोई दिख नहीं रहा. विपक्ष में बिखराव हो रखा है.
भाजपा विपक्ष की एक और सरकार, राजस्थान में, गिराने पर आमादा है– सवाल सिर्फ वक्त का है कि ऐसा जुलाई में होता है या फरवरी में.
मोदी सरकार राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के दौरान कोरोनावायरस से ‘लाखों ज़िंदगियां बचाने’ का श्रेय ले रही है.
जो भी भूल-चूक हुई है उसके लिए अब उद्धव ठाकरे और ममता बनर्जी जैसे नेताओं को जवाब देना है.
अर्थव्यवस्था यदि ऑटोपायलट मोड में है तो उसके लिए कोरोना को दोषी ठहराया जाएगा. इसलिए सत्तारूढ़ पार्टी के किसी तरह से कमज़ोर होने की बात निरर्थक ही मानी जाएगी.
फिर भी, कुछ गड़बड़ियां दिख रही हैं. आमतौर पर आक्रामक दिखने वाले प्रधानमंत्री मोदी रविवार को अपने रेडियो संबोधन ‘मन की बात’ में अस्पष्ट या कम से कम रक्षात्मक ज़रूर लग रहे थे.
उनके भाषण की विषयवस्तु नीरस और उबाऊ थी. उन्होंने जो कहा उससे ज़्यादा गूंज उनकी अनकही बातों की महसूस की गई.
मोदी का सार्वजनिक व्यक्तित्व पांच स्तंभों पर निर्मित है— मजबूत और निर्णायक नेता, विकास पुरुष, वैश्विक राजनेता, जनसेवा के लिए अपने परिवार से दूर रहने वाला फकीर, और हिंदू हृदय सम्राट.
इनमें से पहले तीन स्तंभ काफी दबाव में दिखते हैं— जो कि ‘मन की बात’ में उनकी अनकही बातों से स्पष्ट है.
मोदी की अनकही बातों के तीन संदेश
21वें कारगिल विजय दिवस के अवसर पर सशस्त्र सेनाओं का आभार व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान पर तो हमला किया, पर चीन पर चुप रहे.
वास्तव में, उन्होंने पाकिस्तान के बारे में जो भी कहा– पीठ में छुरा घोंपना या बेमतलब झगड़ा मोल लेने वाला दुष्ट स्वभाव – वो बात चीन पर भी लागू होती है.
प्रधानमंत्री ने चीनी अतिक्रमण का कोई उल्लेख नहीं किया और लद्दाख का जिक्र उन्होंने खुबानी फल के लिए किया – एक मज़बूत और निर्णायक नेता की दृष्टि से देखा जाए तो ये बिल्कुल अनपेक्षित है.
भले ही जनता वास्तविक नियंत्रण रेखा पर स्थिति को लेकर चिंतित हो, प्रधानमंत्री चाहते हैं कि लोग इस बात को नहीं भूलें कि उनकी कही बातों का सैनिकों और उनके परिजनों के मनोबल पर असर पड़ेगा. सारांश में: ‘सवाल नहीं पूछें.’
मोदी ने अन्य कई देशों के मुकाबले भारत में कोविड से होने वाली मौत की दर कम रहने का जिक्र किया लेकिन ऐसा कहते हुए उनके पूर्व के संबोधनों – जब उन्होंने राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की थी और फिर लोगों से थालियां बजाने और कैंडल जलाने को कहा था– वाला आत्मविश्वास नदारद था.
कोविड से लड़ाई का जिम्मा जनता पर छोड़ दिया गया है जो मास्क पहने और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करे. ऐसा कुछ ही प्रतीत होता है.
12वीं कक्षा में शानदार रिजल्ट लाने वाले छात्रों से प्रधानमंत्री की हाउ-इज़-जोश मार्का बातचीत उनकी महत्वाकांक्षाओं की राजनीति और विकास पुरुष की छवि के अनुरूप थी.
लेकिन मोदी ने इस बारे में कुछ नहीं कहा कि खस्ताहाल अर्थव्यवस्था और बढ़ती बेरोज़गारी के दौर में अपने भविष्य को लेकर छात्रों का आशावाद किस बात के लिए होगा.
ये तो निश्चित है कि इन छात्रों की महत्वाकांक्षाएं मोती की खेती करने वाले बिहार के युवाओं या स्वरोजगार में लगे लोगों की कहानियों से मेल नहीं खाती हैं.
‘मन की बात’ में मोदी के सार्वजनिक व्यक्तित्व का जो तीसरा पहलू नहीं उभर पाया, वो है डोनल्ड ट्रंप और शी जिनपिंग जैसों के साथ उठने-बैठने वाले वैश्विक राजनेता की उनकी छवि.
भारत चीन को अलग-थलग करने और दूरी बनाते दिखते छोटे पड़ोसियों को साथ मिलाकर रखने के लिए मोदी की वैश्विक नेता की छवि को भुनाना चाहता है.
लेकिन प्रधानमंत्री और उनके लिए जनसंपर्क करने वाले भी, हाल के दिनों में उनकी वैश्विक छवि के प्रदर्शन को लेकर सतर्कता बरतते दिख रहे हैं.
अपने रेडियो कार्यक्रम के पूर्व के अंक में मोदी ने इस बात का उल्लेख करना जरूरी समझा था कि कैसे सूरीनाम के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ने वेदों पर हाथ रखकर संस्कृत में शपथ ली.
उसकी वजह ये है मोदी पड़ोसी देशों के बीच उत्तरोत्तर अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं. वुहान और मामल्लपुरम शिखर बैठक लद्दाख संकट को बनने से रोक नहीं सके.
अमेरिका भले ही भरोसेमंद सहयोगी हो, पर महामारी ने ताकतवर देशों को अपने में सिमटे रहने और खुद को संभालने पर ध्यान लगाने के लिए बाध्य कर दिया है.
मौजूदा वक्त अमेरिका के लिए भारत के सीमा संघर्षों में वैश्विक पुलिस की भूमिका निभाने का नहीं है. कोरोनावायरस से निपटने में संदिग्ध भूमिका के कारण चीन के खिलाफ गुस्से का माहौल अल्पकाल में भारत के लिए एक आर्थिक और रणनीतिक अवसर हो सकता है.
लेकिन एलएसी पर सैनिकों को पीछे हटाने को लेकर देरी और टालमटोल के चीनी रवैये से यही लगता है कि भारत की अमेरिका से मित्रता का बीजिंग पर कोई असर नहीं पड़ रहा है. मोदी की अंतरराष्ट्रीय ठसक परिस्थितियों को भारत के पक्ष में करने के लिए पर्याप्त नहीं है.
ऐसा लगता है कि मोदी की ताकत के इन तीन स्तंभों में दरारें पड़ रही हैं, टूट-फूट हो रही है. रविवार की ‘मन की बात’ से नदारद मुद्दों से भी परोक्षत: इसकी पुष्टि होती है.
सत्ता की राजनीति और फकीर की कमजोर होती छवि
प्रधानमंत्री के सार्वजनिक व्यक्तित्व का चौथा तत्व है नि:स्वार्थ नेता की उनकी छवि जिसने कि अपना जीवन राष्ट्र को समर्पित कर दिया है, अपने परिवार को छोड़ दिया है.
यह छवि वंशवादी पार्टियों के बिल्कुल विपरीत है जिनका कि कथित प्राथमिक लक्ष्य है कतिपय परिवारों की सेवा करना, न कि जनता की सेवा.
यह छवि अब कमज़ोर पड़ रही है— मोदी के अपने हित में किए कार्यों के कारण नहीं बल्कि उन कार्यों के कारण जिनके लिए कि उन्होंने अपनी पार्टी भाजपा को छूट दे रखी है.
ब्रांड मोदी का अधिकतम फायदा उठाने के फेर में भाजपा ने ब्रांड को ही खतरे में डालना शुरू कर दिया है.
प्रधानमंत्री की ना-खाऊंगा-ना-खाने-दूंगा की छवि आज कमज़ोर पड़ चुकी है क्योंकि भाजपा खुद को ऐसी पार्टी के रूप में पेश करने लगी है जो राज्यों में सत्ता हासिल करने के लिए विपक्ष से दल-बदल पर असीमित पैसा खर्च कर सकती है.
एक के बाद एक राज्यों में किए जाने वाले ऑपरेशन कमल की सफलता पर गर्व और जश्न से भाजपा नेताओं के सामूहिक मूर्खता में यक़ीन की बात ही जाहिर होती है.
क्योंकि हर बार किसी सरकार को गिराने और अमित शाह की चाणक्य की छवि पर मुहर लगाने की भाजपा की कवायद से राष्ट्रहित को सर्वोच्च मानने वाले नेता की मोदी छवि भी कमज़ोर होती है.
मोदी के व्यक्तित्व का पांचवां स्तंभ — हिंदू हृदय सम्राट — अब अकेला है जिसे कोई नुकसान या क्षति नहीं पहुंची है.
वास्तव में इसमें अभी और मज़बूती ही आएगी जब प्रधानमंत्री 5 अगस्त को अयोध्या में राम मंदिर के लिए भूमि पूजन करेंगे.
वर्तमान दौर के सबसे घाघ भारतीय नेता के रूप मोदी निश्चय ही जानते होंगे कि उनकी भारी लोकप्रियता और चुनावी जीतें महज हिंदू हितों के रक्षक की उनकी छवि के कारण नहीं हैं.
उन्हें सर्वाधिक लोकप्रिय नेता बनाने के पीछे इन पांचों तत्वों या स्तंभों की भूमिका है, खासकर महत्वाकांक्षाओं की उनकी राजनीति की. और इसी मुद्दे पर भाजपा की स्थिति कमज़ोर पड़ती दिख रही है.
सबसे अलग पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा 2020 में पहले ही लोकप्रिय चुटकुलों का विषय बन चुकी है. कांग्रेस से इसे अलग दिखाने वाली एकमात्र चीज अब ब्रांड मोदी ही है.
आज समीकरणों से ब्रांड मोदी को निकाल दिया जाए तो भाजपा की राजनीतिक हैसियत कांग्रेस से बेहतर नहीं रह जाती है. भाजपा की सत्ता की राजनीति अब इस ब्रांड को ही नुकसान पहुंचा रही है.
( साभार : दि प्रिंट )