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(नजरिया : राजेन्द्र शर्मा)
पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने 6 सितम्बर को औपचारिक मुलाकात की। इसके साथ ही पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता वाली उस उच्चस्तरीय कमेटी ने गंभीरता से अपना काम शुरू कर दिया है‚ जिसे मोदी सरकार ने ‘एक देश‚ एक चुनाव’ का रास्ता तय करने की जिम्मेदारी सौंपी है।
बेशक‚ 2014 के भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में इस नारे के शामिल किए जाने के बाद से‚ मोदी राज के नौ साल से ज्यादा के दौरान‚ इस मुद्दे पर संसदीय स्थायी समिति‚ नीति आयोग और विधि आयोग में काफी चर्चा हुई है। एक साथ चुनाव कराने के लक्ष्य से सहमत होते हुए भी‚ इस मुद्दे की जटिलताओं को देखते हुए‚ इनमें से कोई भी प्रक्रिया इसके लिए कोई निश्चित रोड मैप पेश नहीं कर पाई थी।
नीति आयोग के इससे संबंधित पेपर में जरूर इसे संभव बनाने के लिए विधानसभाओं के कार्यकाल बढ़ाए या घटाए जाने से लेकर मध्यावधि चुनाव न होने देने के लिए राज्यपालों के अधिकारों के विस्तार से होकर‚ अविश्वास प्रस्ताव की प्रक्रिया बदले जाने तक के‚ कई विवादास्पद तथा स्पष्ट रूप से लोकतांत्रिक दृष्टि से संदिग्ध सुझाव दिए गए थे।
बहरहाल‚ अब कोविंद कमेटी‚ जिसकी विचार शर्तों से ही स्पष्ट है कि उसे ‘एक देश‚ एक चुनाव’ की जरूरत पर विचार नहीं करना है और सिर्फ उसके लागू किए जाने का रास्ता बनाना है‚ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पसंदीदा इस नारे पर अमल का रोडमैप तैयार करने जा रही है। बेशक‚ प्रधानमंत्री मोदी का प्रिय ‘सरप्राइज’ या झटका देने का तत्व ‘एक देश‚ एक चुनाव’ के नारे के इस समय आगे बढ़ाए जाने में भी देखा जा सकता है।
गौरतलब है कि कानून मंत्री मेघवाल ने इसी 27 जुलाई को एक साथ चुनाव कराने के मुद्दे पर किरोड़ीलाल मीणा के प्रश्न के लिखित उत्तर में जहां साथ–साथ चुनाव कराने के कुछ लाभ गिनाए थे‚ वहीं इस पर अमल के रास्ते की पांच बड़ी बाधाएं भी गिनाई थी। इनमें पहली बाधा तो इसके लिए संविधान की पांच धाराओं में संशोधन की जरूरत ही थी – संसद के सदनों के कार्यकाल से संबंधित धारा–83‚ राष्ट्रपति द्वारा लोक सभा के भंग किए जाने से संबंधित धारा–85‚ राज्य विधायिकाओं के कार्यकाल से संबंधित धारा–172‚ राज्य विधानसभाओं के भंग किए जाने से संबंधित धारा–174 और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने से संबंधित धारा–356.
सर्वानुमति की मुश्किल
कानून मंत्री के कहे के अनुसार‚ पांच संविधान संशोधन अगर एक प्रकार की बड़ी कठिनाई पेश करते थे‚ तो दूसरी ओर साथ–साथ चुनाव की व्यवस्था तक पहुंचने के रास्ते में बड़ी राजनीतिक कठिनाई भी थी। वह स्पष्ट थे कि साथ–साथ चुनाव कराने के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों की सर्वानुमति की जरूरत होगी। इशारा साफ था कि यह सर्वानुमति नहीं थी।
दूसरे‚ देश के संघीय ढांचे को देखते हुए इसके लिए सभी राज्य सरकारों की सर्वानुमति हासिल करना भी जरूरी होगा। इस मामले में भी मेघवाल का इशारा साफ था कि यह मुश्किल होगा। कहने की जरूरत नहीं है कि 27 जुलाई के बाद गुजरे करीब छह हफ्तों में उक्त कठिनाइयां कोई गायब नहीं हो गई हैं। इसके बावजूद‚ मोदी निजाम ‘एक देश‚ एक चुनाव’ के रास्ते पर आगे बढ़ने पर आमादा है।
यह तुरंत संभव है या नहीं‚ इससे अलग यह वर्तमान निजाम के तेजी से बढ़ते तानाशाहीपूर्ण मिजाज को ही दिखाता है‚ जहां अपनी मनमर्जी पूरी करने के लिए वह सिर्फ संवैधानिक जरूरतों को ही नहीं‚ सर्वानुमति से चलने के मूल जनतांत्रिक तकाजों को भी ताक पर रखने को तैयार है। खुद मोदी सरकार के कानून मंत्री को छह हफ्ते पहले तक‚ राजनीतिक पार्टियों तथा राज्यों की जो सर्वानुमति‚ इस कथित रूप से ‘सबसे बड़े चुनाव सुधार’ के लिए अपरिहार्य आवश्यकता लग रही थी‚ लगता है कि उसकी जरूरत को ही उनके सर्वोच्च नेता ने अब नकार दिया है और आगे बढ़ चलने का आदेश दे दिया है!
बेशक‚ सांसद के उक्त सवाल के अपने उसी लिखित जवाब में कानून मंत्री ने साथ–साथ चुनाव कराने के लाभ भी गिनाए थे। फिर भी‚ मुट्ठीभर छोटे–छोटे देशों में साथ–साथ चुनाव के उदाहरण को ही दलील के तौर पर पेश करने अलावा‚ उन्होंने साथ–साथ चुनाव कराने के सारतः दो लाभ ही गिनाए थे।
पहला‚ साथ–साथ चुनाव कराने से चुनाव पर होने वाले सरकारी खर्च में भारी बचत होगी और राजनीतिक पार्टियों व उम्मीदवारों के खर्चों में भी बचत होगी और दूसरा‚ अलग–अलग चुनाव होने से जो आदर्श चुनाव संहिता लंबे समय तक लागू रहती है‚ उसका विकास संबंधी तथा कल्याणकारी कार्यक्रमों पर प्रतिकूल असर पड़ता है।
कल्याणकारी कार्यक्रमों में बाधा
जहां तक आदर्श चुनाव संहिता के लागू होने से विकास संबंधी तथा कल्याणकारी कार्यक्रमों पर प्रतिकूल असर पड़ने का सवाल है‚ तो क्या यहां विकास संबंधी तथा कल्याणकारी कार्यक्रमों में इस तरह बाधा पड़ने से साधारण जनता का ही नुकसान होने का ही दावा नहीं किया जा रहा हैॽ तो क्या जनतंत्र में इस पर भी जनता की राय का कोई अर्थ नहीं है कि क्या उसके फायदे में है‚ और किसमें उसका नुकसान है!
क्या किसी भी स्तर पर जनता की ओर से ऐसी कोई मांग सुनने को मिलती है कि आदर्श चुनाव संहिता के अंकुशों या आम तौर पर चुनावों के राजनीतिक दबाव से‚ उसका अहित हो रहा है। चुनाव सिर पर आता देखकर शासन गैस के सिलेंडर के दाम में दो सौ रुपये की कमी कर देता है‚ या तेल के दामों को जहां का तहां रोक दिया जाता है‚ तो जनता को चुनाव के दबाव में अपना नुकसान नहीं, फायदा ही दिखाई देता है।
वास्तव में जनता तो चाहेगी कि हर रोज सत्ताधारियों और सत्ता हासिल की चाहत वालों को भी चुनाव का ऐसा ही डर रहे! हां! सत्ताधारियों को और वे, जो जनता की ओर से मुंह फेरकर जिन धनपतियों की सेवा अविराम करना चाहते हैं‚ उन्हें जरूर चुनाव अपने हितों के खिलाफ लगता है और बार–बार चुनाव होना तो बिल्कुल ही असह्य है! दरअसल‚ साथ–साथ चुनाव करा के पांच साल के लिए छुट्टी पा लेने की मांग‚ सिर्फ उन्हीं के हितों के लिए है।
अब आएं खर्च में कमी की बात पर। राजनीतिक पार्टियों और उम्मीदवारों के चुनाव खर्चों की चिंता हम उन्हीं पर छोड़ दें। अगर यह पहलू वाकई गंभीर होता, तो राजनीतिक पार्टियों को इस पर एक राय होना चाहिए था‚ जो दूर–दूर तक नजर नहीं आता। बहरहाल‚ जहां तक चुनाव में सरकारी खर्च में बचत का सवाल है‚ यह दावा भी किसी गंभीर विचार के बिना ही बार–बार दोहराया जाता रहा है। वास्तव में पूरे देश में विभिन्न स्तरों के चुनाव एक साथ करा लेना‚ सिर्फ मतदाता से एक ही बार में एक की बजाय तीन या उससे ज्यादा बटन दबवा लेने भर का मामला नहीं है। उसके लिए कम से कम उतनी ही गुनी बड़ी व्यवस्थाएं भी करनी होंगी।
कानून मंत्री ने 27 जुलाई के अपने उसी जवाब में साथ–साथ चुनाव कराने की दो व्यावहारिक कठिनाइयों का जिक्र और किया था‚ जिनका महत्व अब सरकार के उनकी ओर से आंखें बंद करने से खत्म नहीं हो जाएगा। एक स्वतःस्पष्ट कठिनाई तो यही है कि साथ–साथ चुनाव कराने के लिए‚ चुनावकर्मियों और सुरक्षा बलों की बहुत भारी अतिरिक्त संख्या की जरूरत होगी!
इसके अलावा‚ जितने स्तर के चुनाव एक साथ होंगे, उतने ही गुना ज्यादा इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों तथा वीवीपैट मशीनों की जरूरत होगी और यह अतिरिक्त खर्चा दसियों हजार करोड़ रुपये का हो सकता है। वास्तव में कानून मंत्री ने एक और तथ्य की ओर ध्यान खींचा था‚ जो एक साथ चुनाव कराने में सरकारी खर्च में कमी के सारे दावों को ही सिर के बल उल्टा खड़ा कर देता है।
उन्होंने ध्यान दिलाया था कि ‘एक ईवीएम मशीन का जीवन काल पंद्रह वर्ष भी मानें तो‚ एक साथ चुनाव की व्यवस्था में एक मशीन का अपने पूरे जीवन काल में सिर्फ तीन या चार बार ही उपयोग किया जाएगा‚ जिससे हर पंद्रह साल पर उन्हें बदलने पर बहुत भारी खर्चा होगा।’ अलग–अलग समय पर चुनाव होने से अगर एक मशीन का इस्तेमाल साल में एक बार भी हो तो‚ पंद्रह साल में पंद्रह बार होगा‚ वहीं साथ–साथ चुनाव कराने की सूरत में उसी मशीन का सिर्फ तीन बार इस्तेमाल होगा।
यानी सिर्फ ईवीएम और वीपीपैट मशीनों पर खर्चा ही आसानी से पांच गुना तक बढ़ सकता है। यही है खर्च में कमी की दलील की सचाई। और संघीय व्यवस्था तथा जनतंत्र को तो खैर ‘एक देश‚ एक चुनाव’ का अमल‚ काट–छांट कर पहचान में न आने वाला ही बना देगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं। यहां प्रकाशित विचार उनके अपने हैं। विचारों से सहमति नहीं होने पर नेशन अलर्ट इसके लिए जिम्मेदार नहीं है।)