करणी माँ : चूहों वाला मँदिर के नाम से प्रसिद्ध है देशनोक
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देशनोक.
यहाँ स्थापित करणी माँ का मँदिर देश विदेश में चूहों का मँदिर के नाम से प्रसिद्ध है. इस मँदिर में माँ करणी का आज जन्मोत्सव बडे़ धूमधाम से मनाया जा रहा है.
माँ करणी की सेवा में जुटे उनके परम भगत कैप्टन सज्जन सिंह बताते हैं कि माध देशनोक के नाम से भी इसे जाना जाता है. यह बीकानेर से 30 किमी दक्षिण में स्थित है.
सेना से सेवानिवृत्त हुए सज्जन सिंह के घर पर भी माता की पूजा होती है. वे कहते हैं कि देशनोक में करणी माता को समर्पित एक प्रमुख हिंदू मंदिर है.
उनके बताए मुताबिक भारत के विभाजन के बाद हिंगलाज तक पहुँच प्रतिबंधित होने के बाद यह चरणी सगतियों के भक्तों के लिए सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल बन गया है. यह मंदिर पर्यटकों और तीर्थयात्रियों के लिए भी एक लोकप्रिय गंतव्य है.
सज्जन सिंह कहते हैं कि भारत और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर “चूहों के मंदिर” के रूप में प्रसिद्ध है, क्योंकि यहाँ काबा नामक कई कृंतक हैं जिन्हें पवित्र माना जाता है. भक्त उनके साथ बहुत सावधानी से पेश आते हैं. इसे कभी-कभी “पर्यावरण के प्रति जागरूक हिंदू लोकाचार” के अनुकरणीय के रूप में बरकरार रखा जाता है.
यह मंदिर देश भर से आशीर्वाद के लिए आगंतुकों को आकर्षित करता है. साथ ही दुनिया भर से उत्सुक पर्यटक भी आते हैं. मँदिर का निर्माण मूल रूप से करणी माता के महाप्रयाण के बाद 1530 के आसपास हुआ था.
जन्म का नाम ऋद्धि कंवर था . . .
करणीजी का जन्म ऋद्धि कंवर नाम से हुआ था. इनका जन्म विक्रम संवत 1444 (1387 ई.) की आसोज शुक्ल 7 को सुवाप गांव में हुआ था.
उनके पिता मेहाजी किनिया गांव के स्वामी थे. चारणों के किनिया वंश से थे. किनिया वंश के संस्थापक गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र के खोड़ में रहते थे.
13वीं शताब्दी में, संस्थापक के 4वीं पीढ़ी के वंशज भीमल ने घर छोड़ दिया. उत्तरी राजस्थान के जांगलू क्षेत्र में चले गए. उन्हें जांगलू के शासक राय सांखला से भूमि का अनुदान मिला, जहाँ उन्होंने किनिया-की-बस्ती नामक एक गाँव की स्थापना की और वहाँ रहने लगे.
मेहाजी किनिया का जन्म भीमल के वंश में चार पीढ़ियों बाद हुआ था. वे जोधपुर के आस-पास के क्षेत्र के शासक मेहा मांगलिया के समकालीन थे, जिनसे मेहाजी किनिया को ” सुवा-ब्राह्मण-की-ढाणी ” नामक एक गाँव का अनुदान मिला था, जिसका बाद में नाम बदलकर सुवाप कर दिया गया.
करणीजी की माता देवल बाई अरहा (या अधा) वंश की थीं. देवल बाई जोधपुर और जैसलमेर की सीमा पर स्थित अधा (या असाड़ा) गाँव के शासक अरहा मंधा की पोती थीं. करणीजी का जन्म भगवती करणीजी के पिता और हिंगलाज के महान भक्त मेहाजी किनिया की प्रार्थनाओं और धर्मपरायणता की लंबे समय से प्रतीक्षित परिणति थी.
उन्होंने वरदान की तलाश में पाकिस्तान के वर्तमान बलूचिस्तान प्रांत के लास बेला में हिंगलाज की लंबी और कठिन यात्रा की थी. जब करणीजी के पिता हिंगलाज की तीर्थयात्रा कर रहे थे, तब देवी हिंगलाज ने उनकी मां को दर्शन दिए और देवी के आने की भविष्यवाणी की.
करणीजी का जन्म लगातार छठी लड़की के रूप में हुआ. ऐसा कहा जाता है कि उनकी माँ का गर्भकाल असामान्य रूप से लंबा था जो 21 महीने तक चला. लड़की का नाम ऋधि कंवर रखा गया था.
सज्जन सिंह के अनुसार देशनोक मँदिर की स्थापना गुंबद से ढके आंतरिक गर्भगृह से हुई थी. बाद की शताब्दियों में भक्तों द्वारा किए गए निर्माणों के साथ आकार बढ़ता गया.