विभाजन की त्रासदी की महागाथा
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नजरिया : दिवाकर मुक्तिबोध
प्रतिभू बनर्जी के उपन्यास ‘ स्मृति शेष : कथा अशेष ‘ पर चंद पंक्तियां लिखने के पूर्व कुछ देर तक सोचता रहा कि शीर्षक क्या दिया जाए पर ज्यादा दिमाग खपाने की जरूरत नहीं पड़ी। एकाएक ख्याल आया कि ‘ स्मृति शेष: कथा अशेष ‘ से बेहतर शीर्षक और क्या हो सकता था लिहाज़ा अपनी समीक्षात्मक टिप्पणी कहें या वृत्तांत, इसी शीर्षक के साथ आगे बढने का निर्णय लिया।
प्रतिभू बैंकिंग सेवा से रिटायर होने के बाद रायपुर में निवासरत हैं। गौरेला-पैंडरा में उनका बालपन बीता, शिक्षा-दीक्षा भी वहीं हुई और बैंक की नौकरी करते हुए तबादले में शहर-दर शहर भटकते रहे।
मेरा उनसे दीर्घ परिचय नहीं है। करीब सात वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश के शहर इंदौर में रहते हुए उन्होंने मुझे फोन किया। उनका अनुरोध था कि चूँकि वे अपने पहले उपन्यास ‘ मैं जोहिला ‘ का विमोचन रायपुर में करना चाहते हैं अत: उन्हें शहर के प्रतिष्ठित साहित्यकारों के नाम चाहिए थे। उनका कहना था कि वे बरसों से छत्तीसगढ में नहीं हैं अत: इधर के वर्षों में क्या कुछ महत्वपूर्ण लिखा जा रहा है, कौन लिख रहा है, इसकी जानकारी उन्हें नहीं है।
मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ कि मुझे ही फोन क्यों ? फिर ख्याल आया कि पत्रकारिता में एक बात तो तय है, भले ही आप लोगों को व्यक्तिगत तौर पर जानते हो या न जानते हो पर आपको पढ़ने वाले आपका नाम जरूर जानते हैं।
बहरहाल, एक अपरिचित लेखक से इस तरह मेरा परिचय हुआ और मैंने कुछ नाम और उनके मोबाइल नंबर उन्हें भेज दिये । यथासमय रायपुर में किताब के विमोचन का कार्यक्रम हुआ जिसमे मैं भी आमंत्रित था।
और जैसे कि साहित्यिक आयोजनों की तासीर है , मुट्ठीभर साहित्यिक कार्यक्रम में आए। मुख्य अतिथि के रूप में भिलाई से आने वाले कथाकार महोदय सभा समाप्ति के अंतिम दौर में पहुंचे। जैसी कि संभावना थी, साहित्य जगत में इस उपन्यास की कोई चर्चा नहीं हुई , छत्तीसगढ़ में भी नहीं।
मीडिया कवरेज का तो खैर प्रश्न ही नहीं था। दो-चार लाइनों के अलावा रायपुर के अखबारों में विशेष कुछ नहीं छपा।
वह उपन्यास तो मैंने नहीं पढ़ा। पिछले वर्ष प्रकाशित ‘ स्मृति शेष : कथा अशेष ‘ भी संयोगवश तब हाथ में तब आई जब मैं एक कार्यक्रम के सिलसिले में उनके साथ बिलासपुर प्रवास पर था। इस दौरान उन्होंने इसकी प्रति मुझे भेंट की।
जैसा कि कम से कम मेरे साथ होता है, मैं कोई भी किताब चाहे वह खरीदी हुई हो या भेंट में मिली हो, पढ़ने के लिए तुरंत हाथ में नहीं लेता। पहले उन्हें देख- देखकर ही तृप्त हो लेता हूं। फिर किसी समय किताब को बुक- शेल्फ से निकालकर पन्ने पलटता हूं , पढता हूं। रोचक लगी तो आगे बढ़ता हूं अन्यथा आधी-अधूरी पढी हुई किताबें पुन: बुक शेल्फ में रख देता हूं।
प्रतिभू बनर्जी का यह उपन्यास भी कई दिनों तक यों ही पड़ा रहा। फिर एक दिन मैंने इसे किताबों की आलमारी से बाहर निकाला और पढ़ना शुरू किया। पन्ने-दर पन्ने आगे बढ़ते हुए मुझे यह इतनी रोचक लगी कि एक सप्ताह के भीतर 280 पेज की यह किताब मैंने पूरी पढ़ डाली। अद्भुत उपन्यास है।
‘ स्मृति शेष: कथा अशेष ‘ में देश विभाजन के दौरान पूर्वी बंगाल से विस्थापित हुए लोगों की जिंदगी की , उनकी बेशुमार कठिनाइयों की बहुत मार्मिक दास्तान है। शब्दों में इतनी ताकत है कि 1947 के विभाजन की त्रासदी का समूचा चित्र आंखों के सामने झलकने लगता है, भले ही हम और आप इसके गवाह न हो पर यह उपन्यास हमें वहां ले जाता है। और हम भी अव्यक्त पीड़ा से भर उठते हैं, पीड़ितों का दर्द सीधे दिल में उतर आता है। महसूस होता है।
देश विभाजन पर अनेक किताबें हैं। बरसों पहले यशपाल के ‘झूठा-सच ‘ सहित कुछ उपन्यास पढ़े भी हैं। किंतु अविभाजित देश के बड़े भूभाग रहे पूर्वी बंगाल की त्रासदी पर केन्द्रित यह उपन्यास ऐसा पहला उपन्यास है जिसे पढ़ते हुए मैं खो सा गया।
घटनाओं व पात्रों के जरिए उस दुनिया में पहुँच गया जहां कभी अमन-चैन का वातावरण था, हिन्दूओं-मुस्लिमों के बीच कोई भेदभाव नहीं था, जात-पात की दीवार नहीं थी, सामाजिक सौहार्द्र था किंतु जिसे विभाजन की काली नज़र लग गई और फ़िर जो कुछ घटित हुआ उसका तथ्यात्मक विवरण इस उपन्यास में है।
मेरे लिए अधिक प्रसन्नता की बात है कि प्रतिभू मेरे शहर के हैं। किंतु अफसोस इस बात का है कि हिंदी साहित्य में इस उपन्यास की या लेखक के कृतित्व की कोई चर्चा नहीं हुई। उच्चस्तरीय लेखन के बावजूद प्रतिभू को कोई प्रकाशक नहीं मिला। यह किताब भी उन्होंने अपने पैसे से छपवाई और करीब-करीब मुफ्त बांटी। इसकी किसी अखबार के साहित्य पेज पर या पत्रिकाओं में कोई समीक्षा छपी हो, ज्ञात नहीं।
उपन्यास की भाषा व शैली बेजोड़ है। मुग्ध करती है। कथा-उपकथाओं के जरिए 1920 से 1980 तक की देश की, विशेषकर पूर्वी बंगाल की सामाजिक -राजनीतिक स्थितियों को परखा गया है। अपने कथन को पुष्ट करने प्रतिष्ठित लेखकों की किताबों या उनके बहुचर्चित लेखों से उद्धरण लिए गए हैं।
विभाजन के पूर्व दशकों से ढाका व चटगांव में रहने वाले के एक बंगाली परिवार को केन्द्र में रखकर कथा बुनी गई है। बंटवारे के दौरान विभिन्न शहरों में सामूहिक हिंसा, अत्याचार, आगजनी व लूटपाट की घटनाएं मन को द्रवित करती है और उत्तेजित भी।
उनके दर्द की कल्पना से ही मन में सिहरन भर उठती है कि कैसे सैकड़ों परिवारों ने अपना सब कुछ खोकर भी हौसला नहीं खोया, उसे बनाए रखा तथा अपने अस्तित्व को बचाने के लिए कठिन संघर्ष किया।
विस्थापित हुए परिवारों की संताने , उनकी अगली पीढ़ियां यद्यपि छत्तीसगढ़ सहित देश के अनेक स्थानों में सुरक्षित व व्यवस्थित हैं किंतु उनके पिता, दादा- परदादाओं ने विभाजन का जो दंश झेला था, उसकी चुभन वे आज भी रह रहकर महसूस करते हैं।
उपन्यास के संदर्भ में प्रतिभू ने प्रारंभिक कथन में लिखा है – ‘ यह उपन्यास, आज़ादी के नाम पर हुए देश के धर्म आधारित विभाजन के उस रक्त रंजित इतिहास को , सबक के तौर पर, याद करने का एक प्रयास है। प्रयास है आज़ादी के नाम पर अपने पुरखों की माटी, भाषा संस्कृति, इतिहास, घर-द्वार से विस्थापित हुए लाखों-लाख मनुष्यों के संत्रास व वेदना भरे हाहाकार को याद करने, अनुभूत करने का।
इसके लिए उपन्यास में बंगाल से जुड़े कुछ पन्नों को फिर से पढ़ने की कोशिश की गई है। बंगाल इसलिए क्योंकि देश विभाजन के दर्द का सर्वाधिक भुक्तभोगी निर्विवाद रूपेण तत्कालीन बंगाल ही रहा।
स्पष्ट है कि लेखक ने उस दौर की घटनाओं को जानने-समझने के लिए यात्राएं की होंगी, विस्थापितों के परिजनों का दुख दर्द सुना होगा, विभिन्न स्त्रोतों से जानकारी ली होगी और तब जाकर पूर्वी बंगाल की त्रासदी पर एक मुकम्मल उपन्यास तैयार हुआ और अब वह हमारे सामने है। इसे पढ़ा जाना चाहिए।
( लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं.)