कौन हैं सौदागर जिन्हें साहित्य अकादमी ने पुरस्कार के लिए चुना
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नागपुर। देविदास सौदागर… जिस नाम से उनके अपने शहर के लोग भी अच्छी तरह से वाकिफ नहीं हैं अब उस नाम से पूरा प्रदेश वाकिफ हो गया है। साहित्य अकादमी ने उन्हें युवा पुरस्कार 2024 के लिए चुना है। दर्जी समुदाय पर लिखे गए उपन्यास के साथ-साथ इसके लेखक की चर्चा अब लोगों की जुबां पर चढ़ गई है।
एक उपन्यास आता है… उसवण नाम के इस उपन्यास के लेखक देविदास सौदागर हैं। इस उपन्यास की पहले भले ही चर्चा नहीं हुए हो लेकिन अब यह साहित्यिक हल्कों में अपनी जगह बना चुका है। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि दर्जी समुदाय की कठिनाइयां हैं।
स्कूल छूटा, मजदूरी की
गरीब परिवार से आने वाले देविदास नियमित तौर पर स्कूल नहीं जा पाए। शाला जाने का क्रम भले ही बीच में छूट गया हो लेकिन उन्होंने अपने अध्ययन से कभी भी मुंह नहीं मोड़ा। मजदूरी करने के साथ उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। दर्जी का काम भी उन्होंने शुरू किया था। इस दौरान उन्हें इस समुदाय की तकलीफे समझ आयी।
5000 रू. की चौकीदारी करने वाले सौदागर ने इस उपन्यास में इस बात को जोर शोर से उठाया है कि किस तरह से रेडीमेड कपड़ों ने सिले हुए वस्त्रों की जरूरत कम कर दी है। अब जबकि उपन्यास ‘‘उसवण’’ प्रकाशित ह ुआ तो देविदास का नाम देश के उन 23 लेखकों में शामिल हैं जिनका चयन साहित्य अकादमी ने किया है।
देविदास बताते हैं कि उपन्यास छपवाने के लिए उन्होंने बहुत से पापड़ बेले हैं। सौदागर के शब्दों मंे वर्ष 2021 में उन्होंने कविताओं का संकलन प्रारंभ किया था। 2022 में उपन्यास उसवण पर उन्होंने काम प्रारंभ किया। 10 प्रमुख प्रकाशकों के पास इसे लेकर वह गए लेकिन सभी ने इस उपन्यास को अस्वीकार कर दिया।
अंततः देशमुख एंड कंपनी की मुक्ता गोड़बोले ने इस उपन्यास की 500 प्रतियां प्रकाशित की। तुलजापुर जो कि सुखाग्रस्त धाराशिव जिले में आता है कि निवासी मुक्ता महज 33 साल की हैं। इनके परिवार के पास खुद की जमीन नहीं थी। दादा और पिता एक अस्थायी घर में रहते थे और खेतिहर मजदूर का काम करते थे।
इधर सौदागर बताते हैं कि मुक्ता ने ही उन्हें कविताएं लिखने और संग्रह संकलित करने प्रोत्साहित किया था। 2006 में 2 साल के लिए उन्हें आईटीआई में मोटर मैकेनिक की पढ़ाई करने का अवसर मिला। 2008 की आर्थिक मंदी के आते तक उनके हाथ में कोई काम नहीं था। तब उन्होंने सिलाई का काम शु रू किया।
उस समय उन्हें जूनियर कॉलेज में दाखिला तो मिल गया लेकिन न तो पढ़ने पैसे थे और न ही समय। इसके बावजूद वह हिम्मत नहीं हारने वाले थे। उन्होंने एक मुक्त विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। वहां से उन्होंने इतिहास में एमए किया। अंग्रेजी-मराठी टायपिंग सीखी।
सातवीं कक्षा से ही लिखने का शौक रखने वाले सौदागर बताते हैं कि उनके घर में रेडियो भी नहीं था। पास के ही एक गांव में लाइब्रेरी थी जिसमें कॉमिक्स हुआ करती थी। इन्हें पढ़ने के साथ-साथ उनकी रूचि अन्नाभाउ साठे की किताबों में लगने लगी। तब उन्होंने कविताएं और कहानियां लिखना शुरू किया।
सौदागर बताते हैं कि 2015 में उनकी एक कविता मराठी अखबार में प्रकाशित हुई थी तो उन्हें और रूचि जागृत हुई। उपन्यास के बारे में बताते हुए वे कहते हैं कि उन्होंने मराठी के कुछ प्रसिद्ध लेखकों को इसे भेजा था। सिर्फ भालचंद्र निमाड़े ने दो पन्नों के पत्र सहित उन्हें 100 रू. का चेक भेजा है जो कि इस पुस्तक की मूल कीमत है। पत्र को लेमिनेट कर उसे अपने पास रखने वाले सौदागर अब शिक्षित युवाओं में बेरोजगारी के संदर्भ में अगले उपन्यास पर काम कर रहे हैं।