सँत नामदेव जन्मोत्सव पर 17 को कार्यक्रम

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रायपुर.

सँत शिरोमणि नामदेवजी महराज का 754 वाँ जन्मोत्सव मँगलवार को मनाया जाएगा. इस उपलक्ष्य में रविवार यानिकि 17 नवंबर को कार्यक्रम रखा गया है.

नामदेव समाज विकास परिषद की रायपुर शाखा के तत्वाधान में कार्यक्रम का आयोजन किया जाने वाला है. इसकी तैयारियाँ प्रारँभ हो गई हैं.

बताया गया है कि पुरानी बस्ती स्थित महामाया मँदिर के मँगल भवन प्राँगण में कार्यक्रम आयोजित होंगे. उपस्थित श्रद्धालुओं के लिए सुबह चाय नाश्ते सहित दोपहर व रात में भोजन की व्यवस्था की जा रही है.

17 नवंबर की सुबह 10 से साढे़ दस बजे तक पूजा व आरती का कार्यक्रम रखा गया है. 11 बजे तक सँत नामदेव जी का जीवन परिचय प्रस्तुत किया जाएगा.

दोपहर के 12 बजे तक का समय चित्रकला के लिए निर्धारित है. दोपहर के एक बजे तक का समय केश सज्जा के कार्यक्रम के लिए तय किया गया है.

मेहँदी स्पर्धा एक से दो बजे के मध्य होगी. फैंसी ड्रेस स्पर्धा के लिए तीन से चार बजे का समय निर्धारित है. सँगीत व नृत्य स्पर्धा चार से साढे़ सात बजे तक होगी.

इसके बाद सम्मान व पुरस्कार वितरण का कार्यक्रम साढे़ सात बजे से प्रारँभ होगा. साँस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेने वाले सभी प्रतिभागियों को पुरस्कृत कर उनका उत्साहवर्धन किया जाएगा.

उक्त सभी कार्यक्रमों में भाग लेने के इच्छुक सामाजिक बँधु अपना नाम पँजीकृत करा सकते हैं. इसके लिए वह श्रीमती प्रीति मनीष नामदेव, श्रीमती नेहा विक्की वर्मा, श्रीमती प्रीति अविनाश नामदेव सहित समाज के अन्य युवाओं से सँपर्क कर सकते हैं.

कौन थे सँत नामदेव जी महराज . . ?

सँत शिरोमणि नामदेव जी महराज भारत के प्रसिद्ध सँत थे. इनके समय में नाथ और महानुभाव पंथों का महाराष्ट्र में प्रचार था.

इनका जन्म २६ अक्तूबर १२७० (शके ११९२) में महाराष्ट्र के सतारा जिले में कृष्णा नदी के किनारे बसे नरसीबामणी नामक गाँव में एक शिंपी (जिसे सुचिकार दर्जी भी कहते हैं) के परिवार में हुआ था. इनके पिता का नाम दामाशेट और माता का नाम गोणाई देवी था.

इनका परिवार भगवान विट्ठल का परम भक्त था. नामदेव का विवाह राधाबाई के साथ हुआ था. इनके पुत्र का नाम नारायण था.

सँत नामदेव ने विसोबा खेचर को गुरु के रूप में स्वीकार किया था. ये सँत ज्ञानेश्वर के समकालीन थे. सँत नामदेव ने सँत ज्ञानेश्वर के साथ पूरे महाराष्ट्र का भ्रमण किया, भक्ति – गीत रचे और जनता जनार्दन को समता और प्रभु-भक्ति का पाठ पढ़ाया.

सँत ज्ञानेश्वर के परलोकगमन के बाद इन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया. इन्होंने मराठी के साथ ही साथ हिन्दी में भी रचनाएँ लिखीं. इन्होंने अठारह वर्षो तक पंजाब में भगवन्नाम का प्रचार किया. अभी भी इनकी कुछ रचनाएँ सिक्खों की धार्मिक पुस्तकों में मिलती हैं.

मुखबानी नामक पुस्तक में इनकी रचनाएँ संग्रहित हैं. आज भी इनके रचित गीत पूरे महाराष्ट्र में भक्ति और प्रेम के साथ गाए जाते हैं. ये संवत १४०७ में समाधि में लीन हो गए थे.(साभार विकीपीडिया)

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