सच कहती थी इरा . . !

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नज़रिया : राजेश बादल

सुन्न हूँ. इरा चली गई. भरोसा नहीं होता. एक बेख़ौफ़ और बहादुर पत्रकार ज़िंदगी से हार गई. अफ़सोस !

तुम्हारे अंतिम दर्शन भी नहीं कर सका. बीस बरस के दिल्ली प्रवास में चंद दोस्त ही थे, जिन पर इतना यक़ीन था कि आधी रात को फ़ोन करूंगा तो वे प्रकट हो जाएंगे. इनमें से एक इरा भी थी.

भले ही कई कई दिन हम बात न करें लेकिन जब भी मिलते, बड़े ख़ुलूस के साथ. उसी चालीस बरस पुरानी चुंबक के साथ.

वह अगस्त 1985 का पहला सप्ताह था, जब हम पहली बार मिले. राजस्थान की राजधानी जयपुर में. प्रधान संपादक राजेंद्र माथुर के निर्देश पर हम सब नवभारत टाइम्स का संस्करण निकालने एकत्रित हुए थे.

मैं वरिष्ठ उप संपादक था और इरा मेरी शिफ्ट में उप संपादक. क्या संयोग था कि हम लोग एक साथ मकान खोजने निकलते थे.

उन दिनों का जयपुर आज की तुलना में भिन्न था. एकदम किसी बड़े कस्बे की तरह.

कहीं से भी राजधानी का असर नहीं दिखाई देता था. इसलिए अविवाहित लड़के लड़कियों को कमरा या घर खोजने में बहुत पापड़ बेलने पड़ते थे.

अकेले युवक या युवती को कमरा मिल जाए तो वह ख़बर बन जाती थी. ऐसे में हमें एक प्रगतिशील गंगवार परिवार मिल गया, जो कमरे देने के लिए तैयार हो गया.

भूतल पर मैं सवा या डेढ़ कमरे वाले हिस्से में था. ऊपर अनंत मित्तल और इरा झा के कमरे थे. एक दो साथी और भी उसी घर में रहने लगे थे.

हम सब मकान मालिक के परिवार का ही जैसे हिस्सा बन गए थे. सबका पता था पी-4, मधुबन कॉलोनी, टोंक फाटक के पास, जयपुर.

इरा और अनंत ऊपर रहते रहते क़रीब आए और एक दूसरे के जीवन साथी बन गए. दोनों मस्तमौला और औघड़.

खादीधारी अनंत और कपड़ों तथा खाने पीने पर वेतन उड़ा देने वाली इरा के बीच अजब विरोधाभासी केमिस्ट्री थी. लेकिन काम में दोनों पक्के थे.

कोई उनके काम को चैलेंज नहीं कर सकता था. मैं यदि पीटीआई की किसी ख़बर का अंग्रेज़ी से हिंदी में अच्छा अनुवाद चाहता तो दो लोगों पर ही भरोसा कर सकता था अनंत या फिर इरा.

अलबत्ता पेज लगवाने में दोनों का हुनर अलग अलग था. दोनों अपने उसूलों के पक्के थे और यह असर उनमें ख़ानदानी था.

इरा के पिता मध्यप्रदेश के विधि सचिव रह चुके थे. वे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी रहे थे. पुराने दौर के खांटी न्यायविद.

कुछ बरस पहले एक पत्रकार सम्मेलन में मेरा बस्तर जाना हुआ था. इरा का परिवार भी बस्तर का ही था. ज़ाहिर है उसमें इरा को जाना ही था.

वह बस्तर की बेटी थी और इसका उसे गर्व था. बड़े प्रेम से अपने पप्पा से मिलाने घर ले गई. बड़ा सा घर; पुरानी शैली का.

मैंने उनके पैर छुए तो उन्होंने सीने से लगा लिया. जब वहाँ से चलने लगे तो उन्होंने पाँच सौ रूपए का नोट निकाला और मेरी जेब में डाल दिया.

मैं ना नुकुर करता, इससे पहले ही इरा टपक पड़ी. बोली, ना मत करना. यह पप्पा का तरीक़ा है. मेरी आँखें भीग गईं.

मेरे अपने अनुभव भी ऐसे ही थे. चाहे मैं कुछ भी कमाता रहा होऊँ. वैसे झा साहब सख़्त और निष्पक्ष न्यायाधीश थे. मुख्यमंत्री तक उन्हें अनुचित काम के लिए नहीं कह सकता था.

वही असर इरा में आया था. वह ग़लत बात बर्दाश्त नहीं करती थी. कुछ ऐसा ही मिजाज़ अनंत का था.

उसके पिता स्वर्गीय नैमिशरण मित्तल भी नवभारत टाइम्स के सहायक संपादक थे. सिद्धांतवादी और किसी भी दबाव को नहीं मानने वाले.

विश्व की प्राचीन सभ्यताओं पर उनकी एक शानदार पुस्तक उन्होंने मुझे भेंट की थी. आज तक वह धरोहर मेरे पास है. वे भी इरा की लेखन शैली के क़ायल थे.

जयपुर के वे दिन अनमोल विरासत की तरह मेरे साथ हैं.
एक दौर ऐसा भी आया था, जब जयपुर नवभारत टाइम्स में भाचावत आयोग की सिफारिशों के अनुरूप वेतनमान लागू करने की माँग के समर्थन में हड़ताल हो गई.

मैनेजमेंट ने तालाबंदी घोषित कर दी. शायद 1989 का साल था. अनेक पत्रकार अपने अपने घर पर ही रहे, लेकिन कुछ लोगों का दिल्ली मुख्यालय में तबादला कर दिया गया.

तब तक मैं मुख्य उप संपादक हो गया था. इरा, अनंत, अजीत के साथ साथ मेरा भी तबादला दिल्ली में कर दिया गया.

मेरा रहने का ठिकाना नहीं था. लेकिन इरा – अनंत के पास पंचकुइयाँ के आरामबाग फ्लैट्स में एक घर था. यह इरा और अनंत का बड़प्पन था कि कोई ठिकाना मिलने तक उन्होंने मेरे और अजीत के लिए अपना घर खोल दिया.

हम उपकृत थे, लेकिन इरा और अनंत के चेहरे पर कभी उपकृत करने का भाव नहीं आया. हम उसी तरह रहते थे, जैसे इरा और अनंत.

लंबे समय तक हम वहाँ रहे और इरा बहन की तरह हमारा ध्यान रखती रही. इसी बीच नवभारत टाइम्स के विशेष संवाददाता और जयपुर में मेरे एक तरह से अभिभावक आदित्येन्द्र चतुर्वेदी ने मयूर विहार के नवभारत टाइम्स अपार्टमेंट में अपना फ़्लैट निशुल्क रहने के लिए दे दिया. हम वहाँ चले गए.

लेकिन दफ्तर में इरा से नियमित मुलाक़ातें होती रहीं. उन्ही दिनों प्रधान संपादक राजेंद्र माथुर और कार्यकारी संपादक एसपी सिंह ने मुझे फीचर एडिटर की ज़िम्मेदारी सौंप दी. प्रति सप्ताह पूरे पेज का फीचर प्रकाशित करना होता था.

चूँकि मेरे पास कोई फीचर बैंक तो था नहीं, इसलिए शुरुआत में मुझे ही लिखना था या अपने साथियों से लिखवाना था. पहला फीचर लिखने के लिए मैंने इरा से अनुरोध किया.

वह मान गई. मगर, कुछ ऐसा हुआ कि जिस दिन वह फीचर देने वाली थी, अचानक किसी वजह से हो वह आलेख नहीं दे पाई. मेरे हाथ पाँव फूल गए. मुझे मैटर एक दिन पहले कंपोज़ के लिए देना होता था.

फिर मैंने सारे दिन बैठकर फीचर लिखा. शीर्षक था – पामेला, एक बयान पर इतना झमेला. उन दिनों पामेला बोर्डेस का एक बयान बड़ी सुर्ख़ियों में रहा था.

पामेला ने कई अंतरराष्ट्रीय हस्तियों के साथ अपने संबंधों की बात स्वीकारी थी और उससे सियासी भूचाल आ गया था. हालाँकि इरा अपना फीचर नहीं दे पा रही थी और उसका उसे बड़ा अफ़सोस था.

फिर भी पामेला प्रसंग को फीचर के रूप में लिखने का आईडिया उसने ही मुझे दिया था. यह बात मैं नहीं भूल सकता क्योंकि वह फ़ीचर बेहद सराहा गया था. एसपी ने मुझे बुलाकर बधाई दी थी.

कुछ समय बाद मैनेजमेंट ने तालाबंदी खोलने का फ़ैसला किया और मैं अख़बार शुरू करने जयपुर चला गया. इरा – अनंत दिल्ली में ही रह गए. हमारी मुलाक़ातें कम हो गईं.

लेकिन जब भी मिलते, इरा बड़ी गर्मजोशी से मिलती. हम जयपुर के दिनों की याद करते. जयपुर से मैं 1991 में दैनिक नई दुनिया भोपाल में समाचार संपादक के तौर पर काम करने आ गया. कभी इरा का फ़ोन आ जाता, तो कभी मैं कर लेता.

चूंकि मैं जयपुर के दिनों में ही टीवी से जुड़ गया था, इसलिए भोपाल में नई दुनिया छोड़ने के बाद धीरे धीरे टीवी की दुनिया में व्यस्त हो गया.

उधर, इरा नवभारत टाइम्स में प्रबंधन के ख़िलाफ़ मुक़दमेबाज़ी में उलझ गई. लंबी लड़ाई में वह जीती. वह हिंदुस्तान में भी रही.

पर कभी भी अपने उसूलों और पत्रकारिता के नैतिक धरातल को नहीं छोड़ा. इन दोनों संस्थानों में उसके संघर्ष और साहस की लंबी दास्तान है.

शायद उस पर अनंत कभी लिखना चाहें. पर, इरा ने वहाँ भी अपना सच और जज़्बा नहीं छोड़ा. इसके बाद 2005 में मैंने आज तक चैनल में संपादक पद से इस्तीफ़ा दे दिया और अमेरिका चला गया.

लौटा तो दिल्ली एक बार फिर मेरा बसेरा बन गई थी. यह दिल्ली बदली हुई थी. सब अपने आप में ग़ुम हो गए थे. दोस्त व्यस्त हो गए थे.

इरा भी व्यस्त थी. लेकिन, चार छह महीने में हमारी मुलाक़ात हो ही जाती थी. उसी गर्मजोशी और अपनेपन के साथ.

मैं उन वर्षों में अनेक टीवी चैनलों का प्रमुख रहा और इरा ने कभी भी मुझसे जॉब के लिए नहीं कहा. मैंने उस दरम्यान क़रीब दो – ढाई हज़ार लोगों की नियुक्ति की.

बहुत बाद में एक दिन महिला प्रेस क्लब में कॉफी पीते हुए उसने कहा – बादल ( मुझे हमेशा वह बादल या बुंदेली अंदाज़ में काय भैय्या ! बोलती थी ) मालूम है मैं कुछ समय बहुत तंगी में थी.

मैंने कहा, लेकिन तुमने कभी बताया नहीं ?

इरा बोली ; क्या बताती ! बाद में सब ठीक हो गया था.

इधर हाल के समय में हम लोगों को फेसबुक, व्हाट्सप और कभी कभार की लंबी फ़ोन कॉल्स ने जोड़ कर रखा था.

मैं उससे हर बार कहता ; इरा तुम्हारी एक बड़ी पारी बाक़ी है. मैं उसका इंतज़ार करूँगा.

वह कहती ; बादल ! अब मेरे लायक संस्थान नहीं बचे. सच कहती थी इरा.

उसके मूल्यों और सिद्धांतों को संरक्षण देने वाले संस्थान कहाँ बचे हैं ? शायद वह अपनी लंबी पारी खेलने अनंत यात्रा पर चली गई.

हिंदी में ऐसे पत्रकार अब दुर्लभ हैं. जाओ ! इरा ! तुम्हारी जयपुर वाली मंडली हमेशा तुमको दिल में बसा कर रखेगी. इरा के चरणों में विनम्र श्रद्धांजलि.

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