विनोद कुमार शुक्ल : बचपन को थोड़ा-सा फिर से जी सकें

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नज़रिया : दिवाकर मुक्तिबोध

आज हिन्दी के शीर्ष कवि विनोद कुमार शुक्ल के लिए साहित्य अकादेमी अपना सबसे बड़ा सम्मान ‘महत्तर सदस्यता’ घोषित करके स्वयं सम्मानित हुई है। मेरी इच्छा है कि भारतीय ज्ञानपीठ भी ज्ञानपीठ पुरस्कार जल्द उन्हें देकर अपनी विश्वसनीयता सुनिश्चित करे।

एक ओर विनोद जी को बेहद प्रतिष्ठित अन्तरराष्ट्रीय पेन-नाबाकोव पुरस्कार मिल चुका है, दूसरी तरफ़ भारत की ही साहित्यिक संस्थाएँ इस कर्तव्य-पालन में पिछड़ रही हैं।

एक सर्वमान्य बड़े रचनाकार के लिए यह रवैया नया नहीं। अचरज नहीं होना चाहिए कि निराला और मुक्तिबोध सरीखे शीर्ष कवियों को तो साहित्य अकादेमी पुरस्कार भी नहीं दिया गया और आज भी नरेश सक्सेना जैसे यशस्वी कवि इससे दूर रखे गए हैं।

आख़िर ऐसी साहित्य – विमुखता की वजह क्या है?

मुझे याद है कि विनोद कुमार शुक्ल को साहित्य अकादेमी पुरस्कार कविता नहीं, बल्कि उपन्यास के लिए दिया गया था। उन दिनों निर्णायक समिति में शामिल एक वरिष्ठ आलोचक ने बयान दिया था कि ‘कविता नहीं, कथा-साहित्य के उपलक्ष्य में इस पुरस्कार के लिए मैं उन्हें सुयोग्य मानता हूँ।’

यह उनकी निजी राय हो सकती है और लोकतंत्र में इसका भी सम्मान होना चाहिए; मगर कविता को जो अभिनव उत्कर्ष और अद्वितीय भाषा-शिल्प विनोद जी ने दिया, उससे क्या कोई इनकार कर सकता है?

मैं ख़ुशनसीब हूँ कि मुझे कई वर्ष पहले विनोद कुमार शुक्ल ने रायपुर में अपने घर पर लगभग ग्यारह दिनों में सम्पन्न होने वाला एक लम्बा इंटरव्यू दिया था, जिसमें सौ सवाल थे।

यह साक्षात्कार प्रतिष्ठित पत्रिका ‘तद्भव’ के अंक–35 में प्रकाशित हुआ और आप चाहें, तो इसे वहाँ पढ़ सकते हैं। विनोद जी के बेटे ने मुझे बताया कि यह उनका सबसे विस्तृत साक्षात्कार है।

इंटरव्यू के दौरान कुछ ऐसी निजी बातें भी विनोद जी ने मुझसे साझा कीं, जो उसमें शामिल नहीं हैं। उनमें-से दो का यहाँ ज़िक्र कर रहा हूँ।

एक तो यह कि वर्षों पहले जब उन्हें दिल का दौरा पड़ा, तो वह दिल्ली से रायपुर लौट रहे थे और विमान में थे। दर्द के कारण अपने सामने की सीट के पिछले हिस्से पर वह माथा टेके छटपटा रहे थे।

विनोद जी ने बताया : “उस सीट पर घुँघराले बालों वाले एक नेता बैठे थे, जो मेरी समस्या न समझ पाने के कारण झुँझला गए थे।” वह नाम नहीं याद कर पा रहे थे, फिर सहसा उन्हें याद आया, तो बोले : “सीताराम येचुरी।”

इतने दर्द के बावजूद — अनजाने ही सही — जो झुँझला गया हो, उसे जिस विशेषण के साथ विनोद जी ने याद किया, उससे उनके हृदय की सुन्दरता और उदात्तता का पता चलता है।

दूसरी बात उन्होंने यह कही कि शायद कभी बचपन में उनका कुछ समय कानपुर में बीता था। यहाँ की एक ख़ास तरह की तम्बाकू ‘मैनपुरी’ की सुगन्ध वह नहीं भूल पाए हैं।

मुझसे पूछा : “अगली बार जब कभी आप यहाँ आएँ, तो क्या मेरे लिए थोड़ी-सी ‘मैनपुरी’ ला देंगे?”

मैंने जिज्ञासा की : “क्या आप ‘मैनपुरी’ खाना चाहेंगे?”

उन्होंने जवाब दिया : “नहीं। तम्बाकू तो मैंने कभी खाई नहीं। मैं बस ‘मैनपुरी’ को सूँघना चाहता हूँ। मुझे वह अच्छा लगेगा।”

एक बच्चे की-सी निश्छलता के साथ एक बहुत छोटी चीज़ वह मुझसे माँग रहे थे, जैसे कोई दुर्लभ और अमूल्य वस्तु हो। उसकी भी सिर्फ़ सुगन्ध चाहिए थी।

इसलिए नहीं कि नशा करना है, बल्कि बचपन को थोड़ा-सा फिर से जी सकें। दुनिया में विकार बहुत हैं, विनोद जी उनसे रूबरू रहकर भी उनसे अछूते हैं।

उनसे मिलना एक बड़े रचनाकार ही नहीं, बड़े मनुष्य से भी मिलना है।

  • लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

{फ़ोटो में विनोद कुमार शुक्ल के साथ ‘आलोचना’ के सम्पादक आशुतोष कुमार}

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