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पं जयगोविंद शास्त्री, ज्योतिषाचार्य
ज्योतिष में महाग्रंथ बृहस्पतिसंहिता में कहा गया है कि,
ग्रहाधीनं जगत्सर्वं ग्रहाधीनाः नरावराः।
कालज्ञानं ग्रहाधीनं ग्रहाः कर्मफलप्रदाः।।
अर्थात- सम्पूर्ण चराचर जगत ग्रहों के अधीन ही है। ग्रहों के अधीन ही सभी श्रेष्ठ मनुष्य होते हैं। कालका ज्ञान भी ग्रहों के अधीन है और ग्रह ही कर्मो के फल को देने वाले होते हैं।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम पारलौकिक लीला में तो ग्रहों से परे हैं किन्तु जब वे पृथ्वी पर लौकिक लीला करने आते हैं तो वे भी ग्रह योगों और उनके प्रभाव से भाग नहीं पाते।
वर्तमान श्रीश्वेतवाराहकल्प के सातवें वैवस्वत मन्वंतर के पच्चीसवें चतुर्युगीय के मध्य त्रेतायुग में जब परम विष्णु श्रीराम के रूप में जन्म लिया तो शुभ-अशुभ ग्रहों के प्रभाव का सामना करते हुए भी मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाये।
भगवान राम की कुंडली
भगवान राम का जन्म कर्क लग्न और कर्क राशि में ही हुआ। इनके जन्म के समय लग्न में ही गुरु और चंद्र, तृतीय पराक्रम भाव में राहु, चतुर्थ माता के भाव में शनि, और सप्तम पत्नी भाव में मंगल बैठे हुए हैं।
जबकि नवम भाग्य भाव में उच्चराशिगत शुक्र के साथ केतु, दशम भाव में उच्च राशि का सूर्य और एकादश भाव में बुध बैठे हुए हैं।
इनकी की जन्मकुंडली में श्रेष्ठतम गजकेसरी योग, हंस योग, शशक योग, महाबली योग, रूचक योग, मालव्य योग, कुलदीपक योग, कीर्ति योग सहित अनेकों योगों की भरमार है।
कुंडली में बने योगों पर ध्यान दें तो, चंद्रमा और बृहस्पति का एक साथ होना ही जातक धर्म और वीर वेदांत में रुचि लेने वाला होता है।
बृहस्पति की पंचम विद्या भाव पर अमृत दृष्टि, सप्तम पत्नी भाव पर मारक दृष्टि और नवम भाग्य भाव पर भी अमृत दृष्टि पड़ रही है।
जिसके फलस्वरूप भगवान राम की कीर्ति और भाग्योदय का शुभारंभ 16वें वर्ष में ही हो गया था और पूर्ण भाग्योदय 25 वर्ष से आरंभ हुआ।
पराक्रम भाव में उच्च राशिगत राहू ने इन्हें शत्रुमर्दी और पराक्रमी बनाया तो चतुर्थ भाव में उच्चराशिका शनिदेव भी ‘चक्रवर्ती योग’ निर्मित किये हुए हैं।
माता के शनि होने के कारण मात्र सुख में कमी दर्शा रहे हैं जबकि जन्म कुंडली में बने हुए अन्य योग परम शुभ फलदाई हैं।
सप्तम पत्नी भाव गुरु की नीच और मारक दृष्टि तथा मंगल का उच्च राशि का तो होना दांपत्य जीवन में कमी दिखाता है जो स्वयं भगवान राम के जीवन में भी दांपत्य जीवन के सुख की अल्पता का द्योतक है।
भौतिक सुख के कारक शुक्र का केतु के साथ बैठना और राहु की दृष्टि का परिणाम ही है कि भगवान राम कहीं न कहीं भौतिक सुखों से दूर रहे।
चर्चित विषय रहा सूर्य का दशम भाव में बैठना और शनि का चतुर्थ माता के भाव में बैठना परस्पर एक-दूसरे पर मारक दृष्टि का परिणाम रहा कि भगवान राम के जीवन में पितृ वियोग अधिक रहा।
यदि हम गौर करें तो उच्च राशि का शनि भगवान राम की जन्म कुंडली के मारकेश भी हैं जो सुख भाव में बैठे हैं इसलिए यह कहावत सत्य सिद्ध होती है कि राम को किसी ने हंसते हुए नहीं देखा। मंगल और शनि देव भगवान राम का जीवन अति संघर्षशील बनाया।
( साभार : अमर उजाला )