नेशन अलर्ट / 97706 56789
प्रदीप कुमार
राज्य सभा सांसद अमर सिंह का लंबी बीमारी के बाद शनिवार को सिंगापुर के एक अस्पताल में निधन हो गया. वे 64 वर्ष के थे.
अमर सिंह की कहानी भारतीय राजनीति में बीते दो दशक के दौरान किसी अमर चित्र कथा की तरह रही. वे एक दौर में समाजवादी पार्टी के सबसे प्रभावशाली नेता रहे, फिर पार्टी से बाहर कर दिये गए जिसके बाद भी उन्होंने ज़ोरदार वापसी की.
इस दौरान गंभीर बीमारी और राजनीतिक रूप से हाशिए पर चले जाने के चलते वे कुछ समय तक राजनीतिक पटल से ग़ायब ज़रूर हुए लेकिन अपने पुराने रंग को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा.
इसी वजह से यह सवाल हमेशा उठता रहा कि ‘आख़िर अमर सिंह में ऐसा क्या है जिसके चलते मुलायम सिंह का उन पर भरोसा हमेशा बना रहा?’
अमर सिंह का राजनीतिक सफ़र और बॉलीवुड कनेक्शन
कुछ लोग हमेशा यह दावा करते रहे कि भारतीय राजनीति में संसाधनों की बहुत ज़रूरत होती है और अमर सिंह इन्हें जुटाने में ‘मास्टर’ थे. वहीं राजनीतिक गलियारों में दबे-छिपे जो अटकलें लगायी जाती रही, वो ये कि ‘मुलायम सिंह की किसी कमज़ोर नस को अमर सिंह बखूबी जानते थे.’
पर इसकी सही वजह क्या थी? और अमर सिंह की दमदार वापसी आख़िर कैसे हुई?
2016 में यूपी विधानसभा चुनाव से पहले इन सवालों के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार अंबिकानंद सहाय ने कहा था, “सबसे बड़ी वजह तो ये थे कि मुलायम सिंह अमर सिंह पर बहुत भरोसा करते थे. राजनीति में जिस तरह की ज़रूरतें रहती हैं, चाहे वो संसाधन जुटाने की बात हो या जोड़ तोड़ यानी नेटवर्किंग का मसला हो, उन सबको देखते हुए वे अमर सिंह को पार्टी के लिए उपयुक्त मानते थे. ये बात अपनी जगह बिल्कुल सही है कि अमर सिंह ‘नेटवर्किंग के बादशाह’ आदमी थे.”
समाजवादी पार्टी में वापसी से पहले क़रीब छह साल तक अमर सिंह सक्रिय राजनीति से दूर रहे.
उस समय वे गंभीर बीमारी से जूझ रहे थे.
हालांकि उस दौर में उन्होंने अपने लिए दूसरे दरवाज़े भी देखे. ख़ुद की राजनीतिक पार्टी भी बनाई लेकिन राष्ट्रीय लोक मंच के उम्मीदवारों की 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान ज़मानत ज़ब्त हो गई.
2014 में वे राष्ट्रीय लोक दल से लोकसभा का चुनाव लड़े, पर बुरी तरह हारे. इतना ही नहीं, उन्होंने कांग्रेस में शामिल होने की भी ख़ूब कोशिश की, लेकिन कहीं उनकी दाल नहीं गली और आख़िर में उन्हें ठिकाना उसी पार्टी में मिला जिसके रंग ढंग को अमर सिंह ने बदल दिया था.
मुलायम का भरोसा
कभी ‘धरती-पुत्र’ कहे जाने वाले मुलायम सिंह और किसानों व पिछड़ों की पार्टी – समाजवादी पार्टी को आधुनिक और चमक-धमक वाली राजनीतिक पार्टी में तब्दील करने वाले अमर सिंह ही थे.
चाहे वो जया प्रदा को सांसद बनाना हो, या फिर जया बच्चन को राज्य सभा पहुँचाना हो, या फिर संजय दत्त को पार्टी में शामिल करवाना रहा हो, ये सब अमर सिंह का करिश्मा था. उन्होंने उत्तर प्रदेश के लिए शीर्ष कारोबारियों को एक मंच पर लाने का भी प्रयास किया.
एक समय में समाजवादी पार्टी में अमर सिंह की हैसियत ऐसी थी कि उनके चलते आज़म ख़ान, बेनी प्रसाद वर्मा जैसे मुलायम के नज़दीकी नेता नाराज़ होकर पार्टी छोड़ गए थे.
लेकिन मुलायम का भरोसा अमर सिंह पर बना रहा. दरअसल, मुलायम-अमर के रिश्ते की नींव एचडी देवेगौड़ा के प्रधानमंत्री बनने के साथ शुरू हुई थी.
देवेगौड़ा हिंदी नहीं बोल पाते थे और मुलायम अंग्रेजी. ऐसे में देवेगौड़ा और मुलायम के बीच दुभाषिए की भूमिका अमर सिंह ही निभाते थे. तब से शुरू हुआ ये साथ, लगभग अंत तक जारी रहा.
अमर-मुलायम के रिश्ते के बारे में वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार शरद गुप्ता कहते हैं, “अमर सिंह की बात मुलायम कितना मानते थे, इसका उदाहरण है कि अखिलेश और डिंपल की शादी के लिए मुलायम पहले तैयार नहीं थे, लेकिन ये अमर सिंह ही थे जिन्होंने मुलायम को इस शादी के लिए तैयार किया.”
अंबिकानंद सहाय कहते हैं, “दरअसल मुलायम कभी अपना कोई काम ख़ुद से किसी को करने के लिए नहीं कह सकते. इतने लंबे राजनीतिक जीवन में उनकी ऐसी आदत ही नहीं रही. वे मंझे हुए राजनेता हैं, लेकिन राजनीति में उन्हें ढेरों काम करवाने भी होते हैं. एक दौर ऐसा भी था कि जिस किसी के काम को मुलायम करवाना चाहते थे, तो बस यही कहते थे कि अमर सिंह को बोल दूंगा, हो जाएगा.”
राजनीतिक हैसियत
उसी दौर में देश में गठबंधन की राजनीति का दौर चला और इसमें समाजवादी पार्टी जैसी 20 से 30 सीटों वाली पार्टियों की अहमियत बढ़ी और जानकार मानते हैं कि इसके साथ ही अमर सिंह की भूमिका भी ख़ूब बढ़ी.
इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं. एक वाकया तो यही है कि 1999 में सोनिया गांधी ने 272 सांसदों के समर्थन का दावा कर दिया था, लेकिन उसके बाद समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस को अपना समर्थन नहीं दिया और सोनिया गांधी की ख़ूब किरकिरी हुई.
इसके बाद 2008 में भारत की न्यूक्लियर डील के दौरान वामपंथी दलों ने समर्थन वापस लेकर मनमोहन सिंह सरकार को अल्पमत में ला दिया. तब अमर सिंह ने ही समाजवादी सांसदों के साथ-साथ कई निर्दलीय सांसदों को भी सरकार के पाले में ला खड़ा किया था.
विवादों में
संसद में नोटों की गड्ढी लहराने का मामला भी देश ने देखा और इस मामले में अमर सिंह को तिहाड़ जेल भी जाना पड़ा था.
उस दौर में मीडिया के सामने वो टेप भी आये जिनमें कथित तौर पर बिपाशा बसु का नाम लेकर की गई अमर सिंह की बातों ने उनके व्यक्तित्व की एक और परत को बंद दरवाज़ों के पीछे चर्चा का विषय बना दिया था.
संसदीय राजनीति को कवर करने वाले वरिष्ठ टीवी पत्रकार मनोरंजन भारती कहते हैं, “अमर सिंह वो शख़्स थे जिनके सभी पार्टियों में शीर्ष स्तर पर क़रीबी दोस्त थे. चाहे वो भारतीय जनता पार्टी हो या फिर कांग्रेस हो या फिर वामपंथी पार्टियाँ ही क्यों ना हों. अमर सिंह का व्यक्तित्व पानी जैसा था जो हर किसी में मिल जाता या मिल सकता था.”
अमर सिंह अपने इन्हीं गुणों के चलते केवल राजनीतिक गलियारों तक सीमित नहीं रहे.
अमर सिंह ने जब अमिताभ बच्चन को डरपोक कहा था…
वे एक ही समय में बॉलीवुड के स्टार कलाकारों के साथ उठने-बैठने लगे थे और देश के शीर्षस्थ कारोबारियों के साथ नज़र आने लगे थे.
बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन के साथ अमर सिंह की इतनी बनने लगी थी कि दोनों एक दूसरे को परिवार का सदस्य बताते थे.
हालांकि 2010 में जब समाजवादी पार्टी से अमर सिंह निकाले गए और उनके कहने पर भी जया बच्चन ने राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफ़ा नहीं दिया, तो दोनों को अलग होते देर नहीं लगी.
उद्योग जगत में अनिल अंबानी और सुब्रत राय सहारा जैसे कारोबारियों के साथ भी अमर सिंह की गाढ़ी दोस्ती रही.
नेटवर्किंग
अमर सिंह के व्यक्तित्व के बारे में अंबिकानंद सहाय कहते हैं, “अमर सिंह की सबसे बड़ी ख़ासियत यह थी कि वे सामने वाले को किस चीज़ की किस समय पर जरूरत है, इसे भांप लेते थे. अगर सामने वाला मुसीबत में हो, तो वो सीमा से आगे जाकर भी उसकी मदद करते थे. इस गुण के चलते उन्हें लोगों का भरोसा मिलता रहा.”
“जब अमिताभ बच्चन की एबीसीएल कंपनी कर्जे़ में डूब गई थी और अमिताभ अपने करियर के सबसे मुश्किल दौर से गुज़र रहे थे और कोई उनकी मदद के लिए तैयार नहीं था, तब अमर सिंह ही थे जो कथित तौर पर दस करोड़ की मदद लिए अमिताभ के साथ खड़े नज़र आये थे.”
अमर सिंह को नज़दीक से जानने वाले लोगों की मानें तो कोई भी बड़ी समस्या और मुश्किल का हल अमर सिंह चुटकियों में निकाल सकते थे.
शरद गुप्ता कहते हैं, “हम लोगों ने ऐसा भी देखा कि जिस काम को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल मंत्री कराने से इनकार कर देते, अमर सिंह उस काम को करा देते थे.”
अमर सिंह समाजवादी पार्टी के लिए ही नेटवर्किंग का काम करते रहे हों, ऐसा नहीं था. वे दरअसल 1996 में राज्यसभा में आने से पहले ही दिल्ली की सत्ता के गलियारों में अपनी जगह बना चुके थे.
नेताओं और उद्योगपतियों से नज़दीकियां
मूल रूप से आज़मगढ़ के कारोबारी परिवार में जन्मे अमर सिंह का बचपन और युवावस्था के दिन कोलकाता में बीते थे, जहाँ वे बिड़ला परिवार के संपर्क में आये, और केके बिरला का भरोसा हासिल करने के बाद दिल्ली पहुँच गये.
बिड़ला और भरतिया परिवार की नज़दीकियों के चलते एक समय में अमर सिंह ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के निदेशक मंडल में भी रहे.
उस दौर में अमर सिंह राजनीति में भी सक्रिय हो गये थे. वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हुआ करते थे और उन्हें पूर्व केंद्रीय मंत्री माधव राव सिंधिया ने मध्य प्रदेश के कोटे से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का सदस्य बनवाया था.
गठबंधन सरकारों के दौर में मार्क्सवादी नेता हरकिशन सिंह सुरजीत से भी अमर सिंह के घनिष्ठ संबंध रहे थे.
हालांकि उत्तर प्रदेश की राजनीति को लंबे समय से देखने वाले ये मानते हैं कि मुलायम सिंह यादव से पहले 1985 से 1988 के बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे वीर बहादुर सिंह से भी अमर सिंह की काफी घनिष्ठता रही थी और जब-जब वीर बहादुर सिंह नोएडा के सिंचाई विभाग गेस्ट हाउस आते थे, अमर सिंह वहीं पाये जाते थे. जबकि कई लोग उन्हें ‘रिलायंस मैन’ के तौर पर भी देखते रहे.
नज़दीकियां दूरियां बनीं और दूरियां नज़दीकियां
ये महज़ संयोग की बात हो सकती है, पर अमर सिंह का एक अतीत ये भी रहा कि वे जिनके साथ रहे, उनका घर ज़रूर टूटा.
बच्चन भाईयों के अलावा अंबानी भाईयों में भी अमर सिंह से नज़दीकी के बाद बंटवारा हो गया. बाद में मुलायम के बेटे अखिलेश यादव और उनके छोटे भाई शिवपाल में भी झगड़ा हुआ.
बहरहाल, अमर सिंह राजनीति की बयार को खूब समझ लेते थे और वे किस तरह से हर पार्टी में पहुंच रखते थे इसका अंदाज़ा लोगों को 29 जुलाई, 2018 में लखनऊ में हुआ.
योगी आदित्यनाथ सरकार की ग्राउंड सेरेमनी में अमर सिंह भगवा कुर्ता में फ़िल्मकार बोनी कपूर के साथ पहुंचे थे. लेकिन बात यहीं तक नहीं रुकी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में उनका नाम ले लिया. पीएम मोदी ने कहा, अमर सिंह यहां बैठे हैं, सबकी हिस्ट्री निकाल देंगे.
जिसका विरोध उसी का समर्थन
मोदी ने कहा इतना ही लेकिन इस एक लाइन में बहुत कुछ था. मोदी उस वक्त राजनेताओं और उद्योगपतियों के गठजोड़ पर बोल रहे थे.
मोदी ने जब अमर सिंह का जिक्र किया तो अमर सिंह हाथ जोड़कर शुक्रिया जताया. खास बात यह थी कि इस आयोजन में अमर सिंह की कुर्सी बीजेपी के कई नेताओं से आगे थी.
वे तब भी समाजवादी पार्टी के महासचिव भी थे. लेकिन लखनऊ के इस आयोजन में मोदी ने जिक्र करके जो संकेत दिया था उसके तुरंत बाद अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी से अपना नाता तोड़ते हुए एलान कर दिया कि उनका जीवन अब मोदी के लिए समर्पित है.
तब अनुमान ये लगाया जा रहा था कि अमर सिंह शायद 2019 में चुनाव लड़ें लेकिन उन्होंने ना तो बीजेपी ज्वाइन किया और ना चुनाव लड़ा. लेकिन उन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान बीजेपी के टिकट पर आजम ख़ान के ख़िलाफ़ जया प्रदा को उम्मीदवार ज़रूर बनवा लिया.
जयाप्रदा के चुनाव प्रचार में तबियत ख़राब होने के बाद भी वे जुटे रहे. इस दौरान हुई एक मुलाकात में जया प्रदा ने कहा था कि साहब इतनी मेहनत कर रहे हैं लग रहा है कि मैं आसानी से चुनाव जीत जाऊंगी. जया प्रदा चुनाव हार गईं लेकिन आज़म खान को चुनाव जीतने में बहुत मशक्कत करनी पड़ी.
फिर अमर सिंह की तबियत भी लगातार बिगड़ रही थी लेकिन गाहे बगाहे सोशल मीडिया पर वे प्रधानमंत्री मोदी और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तारीफ़ करते नज़र आए.
जिस कांग्रेस की बैसाखी से अमर सिंह राजनीति आए, उसी कांग्रेस की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी को 272 सीटों के समर्थन को लेकर अमर सिंह ने किरकिरी करवाई, फिर वहां से समाजवादी पार्टी के रास्ते वह भारतीय जनता पार्टी में शामिल भले नहीं हुए लेकिन पार्टी के शीर्ष नेताओं तक उनकी सीधी पहुंच ज़रूर रही.
इसलिए पीएम मोदी ने उन्हें श्रदांजलि देते हुए उनकी कई तबके के लोगों की फ्रेंडशिप को याद किया है.
अंबिकानंद सहाय कहते हैं, “अमर सिंह की कमज़ोरी कहिये या फिर ख़ासियत, वे ग्लैमर के बिना नहीं रह सकते थे. इसके लिए वे मीडिया का इस्तेमाल करना भी जानते थे. पहले वे हिंदुस्तान टाइम्स के निदेशक रहे, फिर सहारा मीडिया के निदेशकों में भी रहे. अंतिम दिनों में ज़ी समूह के मुखिया से भी उनकी नज़दीकियाँ रहीं.”
इस लिहाज़ से देखें तो अमर सिंह राजनीति, ग्लैमर, मीडिया और फ़िल्म जगत को एक कॉकटेल बना चुके थे. इसलिए जब वे कहते कि ‘मेरा मुँह मत खोलवाइए, कोई नहीं बचेगा’, तो सब वाक़ई चुप रहना बेहतर समझते थे.
( साभार : बीबीसी )