सांप्रदायिक मुद्दे हों, अंधविश्वास पर चोट करना हो या समाज के हाशिए के तबके पर पड़े लोगों के सवाल हों, एसपी ने इन बारीक और समाज के भीतर जम चुकी समस्याओं को अपनी लेखनी और प्रस्तुति के जरिए दुनिया के सामने रख दिया.
• कृष्ण मुरारी
नेशन अलर्ट / 97706 56789
‘जिंदगी तो अपनी रफ्तार से चलती रहती है….’ टेलीविजन के पर्दे पर ये कुछ अंतिम शब्द थे जिसे सुरेंद्र प्रताप सिंह (एसपी) ने बोला था. एसपी को धर्मयुग, रविवार, नवभारत टाइम्स और आज तक में उनकी पत्रकारिता को लेकर याद किया जाता है. कहा जाता है कि उन्होंने बेलौस और बेखौफ होकर हिंदी में तथ्यपरक और खोजी पत्रकारिता को बढ़ावा दिया.
जिंदगी के अपने महज़ 49 बरस के सफर में से एसपी सिंह ने पत्रकारिता को लगभग 25 साल दिए. इतने छोटे सफर में उन्होंने अपनी पत्रकारिता के कलेवर के दम पर जो प्रतिष्ठा पाई वो बिरले ही किसी को मिलती है.
उन्होंने जनसरोकारों को पत्रकारिता का केंद्र बनाकर उनकी समस्याओं को नई दिल्ली में बैठी सत्ता तक पहुंचाया. लेकिन ऐसा करने के दौरान उनके सामने कई चुनौतियां भी आईं लेकिन उन्हें करीब से जानने वाले कहते हैं कि एसपी ने कभी ईमानदारी नहीं छोड़ी और अपनी शर्तों पर काम करते रहे.
एसपी के तेवर को समझने के लिए 1996-97 में घटी एक घटना पर नज़र डालनी पड़ेगी. बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक और नेता रहे कांशीराम ने पत्रकार आशुतोष को तमाचा जड़ दिया था.
इस बारे में आशुतोष ने खुद लिखा भी है कि इस घटना के बाद पत्रकारों ने प्रधानमंत्री कार्यालय तक प्रोटेस्ट मार्च किया लेकिन ध्यान देने वाली जो बात है वो ये है कि इस घटना पर एसपी ने जो कहा वो उनकी सोच और पत्रकारिता को लेकर उनकी दृढ़ता को दिखाता है.
एसपी ने कहा, ‘जितने लोगों को आप आतंकित कर सकें उतने ही बड़े आप नेता हैं. पहले आप इस देश की जनता को आतंकित करना चाहते हैं और जनता के प्रतिनिधि के तौर पर जो हम उनकी रिपोर्टिंग करते हैं, आप हमें भी आतंकित करना चाहते हैं’.
इन शब्दों से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि एसपी की पत्रकारिता का तेवर क्या रहा होगा. लेकिन बीते कई सालों में एक सवाल उठता रहा है कि आज के समय में पत्रकारिता की जो स्थिति है खासकर टेलीविजन पत्रकारिता की, तो ऐसे में अगर एसपी होते तो क्या करते?
सुरेंद्र प्रताप सिंह की 23वीं पुण्यतिथि पर आइए उनके जीवन के सफर पर नज़र डालते हैं.
जनसरोकार के अक्ष के इर्द-गिर्द एसपी की पत्रकारिता
एसपी की पत्रकारिता का एक लंबा सफर रहा है जिसके अक्ष में जनसरोकार की बातें प्रमुखता और मुखरता से रही है.
धर्मयुग से औपचारिक तौर पर पत्रकारीय कैरिअर की शुरुआत कर आज तक को खड़ा करने के बीच दो दशकों से भी ज्यादा का जो उनका सफर रहा वो पत्रकार के तौर पर जनसरोकारों को जीना और एक ऐसी आवाज बनकर उभरने की यात्रा थी जिसने हिंदी पत्रकारिता के आधार को मजबूत किया.
उत्तर प्रदेश के गाजीपुर के पातेपुर में 4 दिसंबर 1948 में जन्मे सुरेंद्र प्रताप सिंह कुछ सालों बाद ही पश्चिम बंगाल चले गए. वहीं उन्होंने अपनी शिक्षा पाई. नौकरी की तलाश उन्हें मुंबई लेकर आ गई. जहां उनकी मुलाकात धर्मयुग के समूह संपादक और अपने सख्त तेवरों के लिए चर्चित धर्मवीर भारती से हुई.
एसपी सिंह का धर्मवीर भारती के साथ हुआ साक्षात्कार का किस्सा काफी चर्चित है. साक्षात्कार में धर्मवीर भारती ने एसपी से सवाल किया था कि पहले से नौकरी करते तो हो फिर यहां क्यों आए हो.
जवाब में एसपी ने कहा कि अच्छी नौकरी है इसलिए आ गया. तो पलट कर धर्मवीर भारती ने कहा कि अगर इससे अच्छी नौकरी कहीं और मिलेगी तो वहां चले जाओगी क्या?
इस पर एसपी ने जो जवाब दिया उसने धर्मवीर भारती को चौंका दिया. एसपी ने कहा कि यहां गुलामी करने थोड़ी न आया हूं. ये सुनने के कुछ मिनटों के भीतर ही धर्मवीर भारती ने एसपी को नौकरी दे दी.
लेकिन कुछ दिनों बाद ही धर्मवीर भारती ने माधुरी पत्रिका में एसपी का तबादला कर दिया. एसपी के जाते ही माधुरी पत्रिका के तेवर भी बदल गए. इस दौरान एसपी ने एक चर्चित लेख लिखा- ‘खाते हैं हिंदी का, गाते हैं अंग्रेज़ी का ‘. इस लेख ने इस कदर चर्चा पाई कि धर्मवीर भारती तुरंत ही उन्हें फिर से धर्मयुग में वापस ले आए.
पत्रकारीय सफर में एसपी ने आनंद बाजार पत्रिका की निकलने वाली रविवार पत्रिका में भी काम किया. रविवार के दौरान की लेखनी को उनके सबसे अच्छे और गंभीर कामों में से माना जाता है.
इसके बाद राजेंद्र माथुर के नेतृत्व में नवभारत टाइम्स और फिर इंडिया टुडे, देव फीचर्स से लेकर आज तक की शुरुआत करने के तौर पर उन्होंने एक लंबा सफर तय किया.
लेकिन इस बीच जो एक चीज़ बनी रही वो थी स्वतंत्र होकर पत्रकारिता करने की उनकी दृढ़ता. इस बात को उनके समकालीन और सहयोगी रहे कई लोगों ने खुद कहा भी है.
एसपी के आलेखों का संकलन कर किताब का शक्ल देने वाली आर अनुराधा ने कहा था, ‘एसपी की पॉलिटिकल दृष्टि बहुत पैनी थी और वो अक्सर मुद्दों पर स्टैंड भी लेते थे’.
टीवी स्क्रीन पर पहली बार अंधविश्वास के खिलाफ मोर्चा खोला
बीते दिनों देशभर में सूर्यग्रहण पर टीवी से लेकर सोशल मीडिया पर अंधविश्वास और पोंगापंथी संस्कृति का नमूना एक बार फिर से सामने उघड़कर आ गया.
लेकिन इस बीच एक निजी चैनल आज तक पर सूर्य ग्रहण पर हुए एक कार्यक्रम का एक छोटा हिस्सा खूब वायरल हुआ. इस वीडियो में एक ज्योतिषी ने कहा कि ग्रहण के दौरान कुछ भी खाना नहीं चाहिए.
लेकिन उसी वक्त स्क्रीन पर जाने-माने वैज्ञानिक गौहर रज़ा कुछ खाते हुए दिखे. जो कि सांकेतिक तौर पर उस अंधविश्वास की संस्कृति को तोड़ने की कोशिश थी जो हिन्दुस्तानी समाज के एक बड़े वर्ग में पसरी हुई है.
याद करें तो आज से ठीक 23-24 बरस पहले देशभर में गणेश की मूर्ति के दूध पीने की बात आग की तरह फैली थी जिसपर गौहर रजा ने उस वक्त आज तक पर ही आकर इसके वैज्ञानिक पहलुओं (सरफेस टेंशन) पर चर्चा की थी और अंधविश्वास की परंपरा को तोड़ने की कोशिश की थी. उस वक्त आज तक के संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह थे जिन्होंने ये काम करने का बीड़ा उठाया था.
सांप्रदायिक मुद्दे हों, अंधविश्वास पर चोट करना हो या समाज के हाशिए के तबके पर पड़े लोगों के सवाल हों, एसपी ने इन बारीक और समाज के भीतर जम चुकी समस्याओं को अपनी लेखनी और प्रस्तुति के जरिए दुनिया के सामने रख दिया.
‘ये थी खबरें आज तक, इंतज़ार करिए कल तक’
एसपी सिंह के पत्रकारीय सफर में दूरदर्शन पर शुरू हुए आज तक को सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव माना जाता है. इसे टेलीविजन पर हिंदी पत्रकारिता के लिए भी एक मील का पत्थर कहा जाता है.
1995 में आज तक की शुरुआत होती है और एसपी इस पर सामाचार बुलेटिन पेश करते हैं, जो देशभर में लोगों के बीच खासा चर्चित हुआ. बुलेटिन में उनके द्वारा कहे जाने वाली एक लाइन काफी चर्चित है. जिसमें वो कहते थे- ‘ये थी खबरें आज तक, इंतज़ार करिए कल तक ‘.
इसी बीच 1997 में दिल्ली के उपहार सिनेमा में आग लगी. आज तक पर एसपी सिंह ने पूरा बुलेटिन उपहार कांड पर ही किया. इसके कुछ रोज़ बाद ही एसपी सिंह की ब्रेनहेमरेज़ से मौत हो गई. उनके करीबियों का मानना है कि उपहार कांड ने उन्हें भीतर तक झकझोर दिया था.
उनकी मृत्यु के बाद आज तक के प्रमुख अरुण पुरी ने लिखा, ‘वास्तव में एसपी अचानक टेलीवीजन में आया था.’ उन्होंने लिखा कि जब मैं एसपी को आज तक में लाने जा रहा था तो ये बात मुझे मालूम थी कि वो टेलीविजन के बारे में ज्यादा नहीं जानते हैं लेकिन उनकी साख काफी मजबूत थी और भाषा पर उनकी पकड़ लाजवाब थी. बिना किसी लागलपेट के अपनी मुस्कान बिखेरते हुए उन्होंने मुझसे कहा, ‘क्यों नहीं, कोशिश करेंगे’.
फिल्मों में संवाद लेखन
काफी कम लोग ये बात जानते हैं कि सुरेंद्र प्रताप सिंह ने फिल्मों के लिए संवाद भी लिखे हैं. फिल्मकार गौतम घोष की फिल्म महायात्रा (1987) और पार (1984) के लिए उन्होंने संवाद लिखे लेकिन पार के संवाद को काफी सराहना मिली.
फिल्मकार मृणाल सेन की फिल्म जेनेसिस (1986) के लिए भी एसपी ने संवाद लिखे. सेन ने एसपी के बारे में कहा था, ‘वो एक शानदार लेखक है और समझार व्यक्ति भी.’
एसपी सिंह ने पार फिल्म के संवादों में जो देशज अभिव्यक्ति को उभारा वो कमाल का है. यह फिल्म अपने संवादों के जरिए समाज की उन बारीकियों पर प्रहार करती है जिसमें तथाकथित ऊंचे तबके के लोगों ने हरिजनों को दबाकर रखा और उनके अधिकारों को कुचला.
इस फिल्म के एक संवाद पर गौर करिए. हरिजनों के हकों के लिए जब गांव के एक मास्टर साहब जमींदार के पास जाते हैं और कहते हैं कि सरकार ने मजदूरी के दाम बढ़ा दिए हैं और इन्हें इनके काम का वाजिब दाम मिलना चाहिए.
तब जमींदार (उत्पल दत्त) कहता है, ‘सरकार का काम है कानून बनाना, तो सरकार कानून बना देती है लेकिन कानून लागू होता है या नहीं होता है ये देखना भी सरकार का काम है….ठीक. लेकिन देखता कौन है. सरकार सिर्फ उतना ही देखती है जितने में उसका फायदा है. अगर हम सब कानून लागू करने लगे तो आप ही बताइए मास्टर जी कि काम कैसे चलेगा…’
तो ये थी एसपी सिंह के शब्दों की ताकत जो पत्रकारिता से लेकर फिल्मी पर्दे तक असरदार रही.
(व्यक्त विचार निजी हैं. साभार : द प्रिंट)