टीके और वैक्सीन की कथा और कोरोना वैक्सीन का भविष्य
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• बादल सरोज
महामारियों से बचाव का सबसे भरोसेमंद रास्ता है टीका, जिसे अंग्रेजी में वैक्सीन कहते हैं. इसकी समझदारी का मूल एक पुराने शेर की तर्ज में कहें तो “खुदी को कर बुलन्द इतना कि हर आघात से पहले बीमारी आके ये पूछे बता तेरी रजा क्या है”!
इसका सार इस बात में है कि शरीर में इस तरह की प्रतिरोधात्मक शक्तियां (एंटी-बॉडीज) तैयार कर दी जाएँ कि वे खुद ही बीमारी के बैक्टीरिया और वायरस को हराकर ख़त्म कर दें.
इसके लिए जो मिश्रण तैयार किया जाता है, वह उसी बीमारी से प्रभावित प्राणियों के शरीर के तरल – सीरम – से बनता है. कोरोना काल में इस बीमारी से ठीक हुए लोगों के प्लाज्मा की उपयोगिता का आधार.
यूं तो मानव इतिहास में इस तरह के टीकों या वैक्सीन का जिक्र बुद्ध भिक्खुओ द्वारा चीन में साँप के काटने के इलाज के रूप में मिलता है.
कहा जाता है कि – पहले खुद सांप का जहर पी पीकर अपने को इस लायक बना लेते थे किन्तु आधुनिक इतिहास में क्लिनिकली प्रमाणित पहला टीका चेचक का टीका था, जिसे एडवर्ड जेनर नाम के वैज्ञानिक ने सबसे पहले 1796 में आजमाया.
1798 में आम प्रचलन में आया – अगली दो सदियों में दुनिया में फैला और 1979 में इसने 3000 साल पुरानी इस खतनाक बीमारी को धरती से हमेशा के लिए मिटा दिया.
एंटीबायोटिक्स के खोजकर्ता लुइ पाश्चर (1822 – 1895) की खोजों और उनके जरिये विकसित सिद्धांतों तथा पद्धतियों ने नई-नई वैक्सीन के लिए जैसे दरवाजे खोल दिए.
नतीजे में 1879 में हैजे का टीका बना, 1904 में एंथ्रेक्स (हिंदी में पुष्पराग) का टीका आया. पृथ्वी की मानवता की सबसे बड़ी दुश्मन प्लेग के नए-नए टीके 1890 से 1950 के बीच में विकसित होते गए.
1950 में वायरल टिश्यू कल्चर की तकनीक खोजी जाने के बाद टीबी के टीके – बीसीजी – और पोलियो के लगाने और पिलाये जाने वाले टीकों के अनुसंधान के रास्ते खुले. हाल ही में आणविक आनुवंशिकी (मॉलिक्यूलर जेनेटिक्स) की क्रांतिकारी खोज ने हिपेटाइटिस बी तक का वैक्सीन बना दिया.
कोविद-19 के टीके की खोज इस समय दुनिया की 125 प्रयोगशालाओं में की जा रही है. इनमे से 10 को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने खासतौर से उच्च स्तर के मानक अनुसंधानों के रूप में शिनाख्त की है.
भारत में 30 से ज्यादा कोशिशें हुयी हैं. इनमे पुणे की नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी द्वारा ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के साथ किया जा रहा काफी महत्वपूर्ण काम शामिल है.
सेंटर फॉर डिसीज कण्ट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के मुताबिक़ वैक्सीन बनाने का काम 6 चरणों में पूरा होता है और आम इस्तेमाल के लायक पुष्टि होने में वर्षो लग जाते हैं – महीनो तो पक्के से लगते हैं.
मगर कोविद-19 (जिसे वैज्ञानिकों ने सार्स-कोव 2 कहा है) की वैक्सीन तैयार होने का काम इसलिए फ़टाफ़ट हो पा रहा है, क्योंकि वुहान में इसके पहली बार सामने आते ही चीन ने तुरंत इसकी जेनेटिक जन्मकुंडली बना ली थी और दुनिया की सारी प्रयोगशालाओं और वैज्ञानिकों के लिए भेज भी दी थी.
इन पंक्तियों के लिखते समय तक वैक्सीन की 7 खोजें पहले चरण में थी. मतलब टीका खोजा जा चुका है – प्रयोग करना बाकी है. दूसरे चरण में भी 7 थीं – मतलब वैक्सीन का कई लोगों पर ट्रायल किया जा चुका है और वह सफल है.
इसी के साथ साथ स्थान पर यह तीसरे चरण के पहले अध्याय तक पहुँच चुकी थी. मतलब सैकड़ों लोगों पर आजमाई जा चुकी है – अब फाइनल टच और सब के लिए जारी करना बाकी है.
एकदम पुष्ट प्रमाणों तथा क्लिनिकल साक्ष्यों के साथ तैयार हो जाने के बाद एक समस्या बचेगी और वह है इसके बड़े, काफी विराट पैमाने पर उत्पादन की समस्या.
इसका एक पहलू जरूरी तकनीक इत्यादि का है, जो जाहिर है अभी नहीं है, मगर हो ही जाएगी. दूसरा पहलू दवा उद्योगों के धनपशु डायनासोरों का है. ये घोषित नरभक्षी बिरादरी है.
वे चाहेंगे कि इसके पेटेंट को हथिया कर अरबों-खरबों डॉलर की कमाई का अवसर बनाएं. इनसे यह उम्मीद करना किसी भक्त की खोपड़ी में दिमाग ढूंढने से भी कठिन काम है कि ये पोलियो के टीके के खोजकर्ता जोनास साक की तरह इसे मनुष्यता के प्रति समर्पित कर देंगे.
यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है, जिसका जवाब शकुनि के पांसों से कारपोरेट की चौसर पर जुआ खेलने के लती युधिष्ठिरों के पास तो पक्के से नहीं है ; लेकिन अवाम के पास जरूर है. जनता ही है, दुनिया भर की जनता : जो अपनी ताकत से इन डायनासोरों को नाथ सकती है.
(लेखक पाक्षिक पत्रिका लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)