अलवर से किराए का वाहन कर आदिवासी युवतियां लौट रहीं घर
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रायपुर.
चाहे देश पर राज करने वाली भाजपा हो . . . या फिर प्रदेश में शासन करने वाली कांग्रेस . . . या फिर प्रदेश का अन्य कोई विपक्षी दल . . . सभी का नेतृत्व कहने को तो आदिवासियों के हाथों में है लेकिन फिर भी आदिवासियों के साथ अन्याय हो रहा है.
लाकडाउन के चलते अलवर ( राजस्थान ) में फंसी आदिवासी युवतियां खुद व्यवस्था कर किराए के वाहन से अपने घर छत्तीसगढ़ लौटने को मजबूर हैं. क्या यही है आदिवासी जागरूकता . . . आदिवासी विकास ?
पहले बात कांग्रेस की कर ली जाए. जब प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनीं तो तत्कालीन अध्यक्ष व वर्तमान मुख्यमंत्री ने प्रदेश कांग्रेस की कमान विधायक मोहन मरकाम को सौंपी थी.
अब यह या तो मोहन मरकाम के लिए दुर्भाग्यजनक है अथवा उनके विधानसभा क्षेत्र क्रमांक 83 कोंडागांव के लिए कि उनके कानों तक उन आदिवासी युवतियों की पुकार नहीं पहुंची जोकि घर लौटने हाथपैर मार रहीं थी.
कोंडागांव उस कांकेर जिले का पडो़सी जिला है जहां की आदिवासी युवतियों से जुडा़ हुआ यह मामला है. इसके बावजूद सार्वजनिक तौर पर इस विषय को लेकर मरकाम कोई प्रयास करते अब तक नज़र नहीं आए हैं.
भाजपा के विष्णुदेव से पहले थे उसेंडी़
अब बात उस भारतीय जनता पार्टी की जोकि अपने आपको राष्ट्र के लिए समर्पित एक राष्ट्रवादी दल बताती है. इस राष्ट्रवादी दल की प्रदेश स्तारीय कमान अभी हाल ही में रायगढ के पूर्व सांसद आदिवासी नेता पूर्व सांसद विष्णुदेव साय को सौंपी गई है.
विष्णुदेव तो छोडिए उस विक्रम उसेंडी़ को भी आदिवासी बच्चियों से जुडा़ यह मसला समझ नहीं आया जोकि खुद कांकेर जिले से आते हैं.
उल्लेखनीय है कि निवृत्तमान सांसद, निवृत्तमान प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विक्रम उसेंडी़ का जन्म बोंदानार गांव का बताया जाता है. यह गांव कांकेर जिले में शामिल अंतागढ ब्लाक अंतर्गत आता है.
न तो विक्रम उसेंडी़ ने और न ही वर्तमान प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विष्णुदेव साय ने अपने ही समाज की युवतियों की परेशानियों को समझने का कोई प्रयास सार्वजनिक तौर पर किया हो.
जकांछ-आप भी असफल
जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ जे फिलहाल दुखी है. प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री जकांछ के संस्थापक अजीत जोगी के निधन के चलते उपजे दुख से वह उभरने का प्रयास कर रही है लेकिन उसने भी इस विषय पर कुछ किया हो यह लगता नहीं.
हालांकि जकांछ के प्रदेश अध्यक्ष अमित जोगी की जात पर विवाद उनके पिता के समय से ही जुडा़ हुआ है. जकांछ के प्रदेश अध्यक्ष भले ही पारिवारिक दुख से ग्रसित हैं लेकिन उनके दल ने भी इस विषय पर कोई पहल की हो ऐसा नहीं लगता.
रही बात आम आदमी पार्टी यानिकि आप की तो उसकी स्थिति तो और भी कमजोर नज़र आती है जिसके प्रदेश अध्यक्ष कोमल हुपेंडी हैं. यह वही हुपेंडी हैं जिन्हें आप ने मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित किया था.
हुपेंडी की स्थिति इससे कमजोर लिखी गई है क्यूं कि वह उस मुंगवाल गांव के हैं जोकि सौभाग्य – दुर्भाग्य जो भी कहिए कांकेर जिले का ही एक हिस्सा है.
और तो और हुल्की महोत्सव, पर्रा जलसा, कोलांग महोत्सव जैसे आयोजन की शुरुआत करने वाले हुपेंडी शराब बंदी आंदोलन में शामिल होते रहे हैं.
इससे लगता तो है कि हुपेंडी सामाजिक स्तर पर सक्रिय हैं लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है ? वर्ष 2016 में सहकारिता विस्तार अधिकारी की नौकरी छोड़ कर राजनीति में शामिल होने वाले, इतिहास में एमए करने वाले हुपेंडी लगता है सामाजिक इतिहास ही भूल गए हैं.
अंतागढ से हुई हार तो भूला दिया कांकेर
बहुजन समाज पार्टी . . . यानिकि बसपा . . . बडी़ उम्मीद से इस पार्टी ने पिछले विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद ओपी वाजपेयी के स्थान पर बस्तर के हेमंत पोयाम को प्रदेश इकाई की कमान सौंपी थी.
युवा स्नातक हेमंत पोयाम ने पिछला विधानसभा उसी कांकेर जिले की अंतागढ विधानसभा सीट से लडा़ था जिस जिले की ये आदिवासी युवतियां बताईं जा रही हैं. पोयाम ने भी इस विषय पर कुछ किया हो ऐसी कोई खबर नहीं है.
. . . तो क्या यह माना जाना चाहिए कि पोयाम ने विधानसभा चुनाव में हुई अपनी करारी हार के बाद अंतागढ सीट और कांकेर जिले को पूरी तरह से भूला दिया है. यदि ऐसा नहीं है तो इस विषय पर उन्होंने किया क्या ?
मतलब, भाजपा-कांग्रेस या फिर जकांछ-आप या फिर बसपा ही क्यूं न हो . . . इनमें से किसी ने भी उन आदिवासी युवतियों के संदर्भ में शायद ही कोई प्रयास किया हो जोकि इस समय अलवर में अपने घर छत्तीसगढ़ लौटने की विनती कर रही हैं.
वह तो भला हो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ( माकपा ) के राज्य सचिन संजय पराते का जिन्होंने इस विषय पर न केवल पहल की बल्कि अभी भी प्रयासरत हैं.
पराते बताते हैं कि इनमें से कुछ युवतियों के कल सुबह रायपुर पहुंचने की उम्मीद है. पराते कहते हैं इन युवतियों ने अपने खुद के खर्च पर एक गाडी़ कर अपने घर छत्तीसगढ़ आने का निर्णय लिया है.
चूंकि संजय की उनसे बातचीत जारी है इस कारण वह बताते हैं कि अब तक न सरकार और न ही विपक्षी दलों की ओर से इस मुद्दे पर कोई पहल की गई है.
. . . तो क्या आदिवासी राज्य में आदिवासी प्रदेश अध्यक्षों के समय इसी तरह आम आदिवासी छला जाते रहेगा ?
सवाल अब भी जिंदा है कि काहे का आदिवासी विकास ?