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- दिवाकर मुक्तिबोध
छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी के निधन के बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि उनके नेतृत्व में गठित जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ का भविष्य क्या होगा।
कांग्रेस से अलग होने के बाद जोगी ने तीन वर्ष पूर्व नई प्रादेशिक पार्टी बनाई थी जिसकी पहिचान राज्य की तीसरी राजनीतिक शक्ति के रूप में हुई और इसने काफी हद तक इसे सिद्ध भी किया।
वर्ष 2018 के अंत में हुआ विधान सभा चुनाव उसका पहिला चुनाव था जिसमें उसके पाँच उम्मीदवारों ने जीत हासिल की। बसपा से उसका चुनावी गठबंधन था।
बहुजन समाज पार्टी , राज्य की पुरानी प्रादेशिक इकाई है लेकिन इसके बावजूद उसे केवल दो सीटें मिलीं। इस दृष्टि से भी जनता कांग्रेस छत्तीसगढ का चुनाव में प्रदर्शन बेहतर माना गया।
अब चूँकि अगले विधान सभा चुनाव में काफी वक्त है और अजीत जोगी भी जीवित नहीं है लिहाजा यह प्रश्न मुँह-बाएँ खड़ा है कि आगे क्या होगा।
पार्टी की मूल ताकत अजीत जोगी थे , वे शक्ति के अजस्त्र स्रोत थे। ऊर्जा उनसे मिलती थी। उनका तगड़ा जनाधार था। किंतु अब ? अब क्या होगा ?
यद्दपि पार्टी की कमान अमित जोगी के हाथ में है पर सवाल है कि क्या वे पिता की राजनीतिक विरासत को कायम रख पाएँगे ? क्या उन्हें नेताओं , कार्यकर्ताओं व आम जनता का वैसा ही समर्थन मिलेगा जैसा कि उनके पिता को मिलता रहा ?
इसका जवाब तो समय ही देगा लेकिन यह बात ज़रूर कही जा सकती है कि संगठन में यदि वे अहंकार को परे रखकर एक आम कार्यकर्ता की तरह , उनका विश्वास जीतने की दृष्टि से , उनके बीच घुलमिलकर कार्य करेंगे तो मंज़िल आसान होगी।
यह नहीं भूलना चाहिए कि अंतागढ टेपकांड व नकारात्मक राजनीति का अतीत उनके वर्तमान के साथ चिपका हुआ है जिसकी वजह से प्रदेश कांग्रेस में , वे चाहें तो भी उनका प्रवेश लगभग नामुमकिन है।
इस सचाई से वे भी वाक़िफ़ है लिहाजा राजनीति में वे अपने स्वतंत्र अस्तित्व को दाँव पर नहीं लगाएँगे। पर इसमें संशय नहीं कि पार्टी के वजूद को बरक़रार रखना , नेताओं , विधायकों व कार्यकर्ताओं को एकजुट रखना उनके सामने सबसे बडी चुनौती है।
विधान सभा चुनाव के बाद इस तरह की ख़बरें लगातार आती रही हैं कि वे नई राह तलाश रहे हैं। अरसे से दर्जनों कांग्रेस के दरवाज़े के पास आकर खडे भी हैं। कुछ को प्रवेश भी मिला।
अजीत जोगी के निधन के पश्चात मीडिया में यह खबर भी अवतरित हुई कि कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रदेश इकाई को संकेत दिया है कि यदि जोगी कांग्रेस विलय की पेशकश करें तो उसे स्वीकार कर लिया जाए।
इस खबर के पीछे सोनिया गांधी व जोगी परिवार के बीच बेहतर संबंधों को आधार माना गया। लेकिन माना जा रहा रहा है कि ये महज़ अफ़वाहें है । फिलहाल ऐसा कोई संकेत कांग्रेस की ओर से नहीं है ।
अजीत जोगी के निधन का शोक जैसे-जैसे कम होता जाएगा, चीज़ें सामान्य होती चली जाएँगी व पार्टी की राजनीतिक गतिविधियाँ भी शुरू हो जाएँगी।
भाजपा की जनता कांग्रेस के शेष बचे चारों विधायकों जिसमें अजीत जोगी की विधायक पत्नी रेणु जोगी भी शामिल है, दिलचस्पी हो सकती क्योंकि यदि रेणु जोगी को छोड़ अन्य सभी भाजपा में शामिल हो जाते हैं तो भाजपा की विधान सभा में संख्या 15 से बढ़कर 18 हो जाएगी।
कांग्रेस का चूँकि भारी बहुमत है लिहाजा उसे जोगी कांग्रेस के विधायकों में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं है। ये विधायक भी कांग्रेस में शामिल होने इसलिए आतुर नहीं है क्योंकि वे जानते हैं कि वे शर्तें मनवाने की स्थिति में नहीं हैं और वे केवल गिनती बढ़ाने के अलावा कुछ नहीं कर सकते।
ऐसे में भाजपा उनकी संभावना के ज्यादा निकट है हालाँकि वे सोच सकते हैं कि जोगी कांग्रेस में ही उनका राजनीतिक वजूद ज्यादा मजबूत है।
बहरहाल इस किंतु-परंतु से परे यह बात कही जा सकती है कि जनता कांग्रेस छत्तीसगढ का अस्तित्व बना रहेगा और अपने संस्थापक अजीत जोगी के नाम का झंडा लिए पार्टी नए सिरे से संगठित और विस्तारित होने का प्रयत्न करेगी।
यह ठीक भी है। प्रदेश में कांग्रेस व भाजपा का यदि कोई ठोस विकल्प तैयार होता है , जिसकी नींव अजीत जोगी ने रखी है, और जिसे ऊचांइयां देना अब वर्तमान नेतृत्व की ज़िम्मेदारी है, स्वस्थ लोकतंत्र की दृष्टि से बेहतर है।
किंतु यह देखने की बात है कि वर्तमान अध्यक्ष अमित जोगी सबल नेतृत्व दे पाएँगे या कमान रेणु जोगी को सौंपी जाएगी जो लोकप्रिय है , कार्यकर्ताओं में सम्मानित हैं और जिनकी स्वीकार्यता बेटे अमित से कहीं अधिक है।
पार्टी के भविष्य की दृष्टि ऐसा किया जाना चाहिए। यह भी संभव है कि वे अजीत जोगी की तरह पार्टी की सुप्रीम अथारिटी रहें और अमित उनके मार्गदर्शन में काम करें।
अमित इस व्यवस्था को कितना स्वीकार कर पाएँगे यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि जैसी उनकी प्रकृति है, वे सारे सूत्र अपने हाथ में रखना पसंद करेंगे हालाँकि यह क़दम आत्मघाती होगा।