नेशन अलर्ट / आलेख : संजय पराते
पिछले पांच सालों में देश की घरेलू बचत दर में जीडीपी के 6% के बराबर गिरावट आई है। वर्ष 2012 में यह 23.6% थी, जो आज 17% से भी कम रह गई है।
घरेलू बचत गिरेगी, तो देश की कुल बचत में भी गिरावट आएगी ही। इसका नतीजा यह हुआ है कि देश की कुल बचत में 4% की बड़ी गिरावट आई है। मोदी राज में यह बचत 30.5% ही रह गई है, जबकि इससे पहले यह 34.6% थी।
बचत में गिरावट आने से निजी निवेश में भी गिरावट आनी ही थी। मोदी राज में 2014-19 के दौरान निजी निवेश 30% पर सिमटकर रह गया है, जबकि इसके पूर्व संप्रग राज में यह 50% था।
बचत और निवेश में गिरावट आने का मतलब है कुल देनदारियों का बढ़ना, और पांच साल में यह देनदारी 58% बढ़कर 7.4 लाख करोड़ तक पहुंच गई है। यह हमारे कुल वार्षिक बजट के एक-तिहाई के बराबर है। वर्ष 2017 में देनदारी में बढ़ोतरी महज 22% थी।
कहावत की भाषा में इस स्थिति को ऋणम_कृत्वा_घृतम_पीवेत या आमदनी_अठन्नी_खर्चा_रुपैया के अर्थ में समझा जा सकता है। इन पांच सालों में औसत भारतीय परिवारों का कर्ज दुगुना हो गया, जबकि खर्च करने की उनकी क्षमता आधी ही रह गई है।
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के रिसर्च विंग ने मोदी सरकार के इस रिपोर्ट कार्ड को पेश किया है। इसलिए यह सरकारी रिपोर्ट है और भक्तगण इसे हवाईबाजी और “विपक्ष का काम है, विरोध करना” न बताएं। यह रिपोर्ट मोदी सरकार के तथाकथित विकास के दावों की पोल खोलने के लिए काफी है।
तो जो मंदी दिख रही है, वह केवल वित्तीय संकट भर नहीं है और न सुस्ती है। वास्तव में इसकी जड़ें कहीं ज्यादा गहरी है। इस मंदी की जड़ में उत्पादन का संकट नहीं है और न ही खरीददारों के अभाव का संकट।
उत्पादन आवश्यकता से अधिक तो नहीं, लेकिन अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाये रखने के लिए पर्याप्त है। यह देश 135 करोड़ लोगों का बाजार है, इसलिए खरीददारों की भी कमी नहीं।
संकट बस यह है कि इन ख़रीददारों की जेब में इतने पैसे नहीं है कि अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए इस उत्पादन को खरीद सके।
कर्ज़ लेकर खरीदने की उनकी क्षमता भी खत्म हो चुकी है, क्योंकि कर्ज़ मिलता है चुकाने की औकात पर, और चुकता करने की उनकी क्षमता दुगुनी कर्जदारी के कारण खत्म हो चुकी है।
अब इस देश के गरीब लोगों को अपने बच्चों की पारले-जी बिस्कुट खिलाने की जिद को भी पूरी करने के लिए दस बार सोचना पड़ता है कि वह अपने खर्चों में कहां कटौती करेगा।
तो इस मंदी का अर्थ उत्पादन में कमी नहीं, देश की आम जनता की जेब मे पैसों की कमी का है, उनकी क्रयशक्ति में गिरावट आने का है। यह कमी आती है खुदरा महंगाई की तुलना में मजदूरी में बढ़ोतरी न होने और नए रोजगार का सृजन न होने से काम न मिलने के कारण।
मोदी राज में ये दोनों आर्थिक प्रक्रियाएं साथ-साथ चली है। इसके साथ ही नोटबंदी और जीएसटी ने आग में घी डालने का काम किया है। इसने लोगों का रोजगार छीना है और छोटे व्यापारियों की कमर तोड़ दी है।
यदि बीमारी आम जनता की क्रयशक्ति में कमी आने की है, तो दवाई सिर्फ यही हो सकती है कि उसकी क्रयशक्ति को बढ़ाया जाए।
यह क्रयशक्ति बढ़ेगी ग्रामीणों को मनरेगा में काम देने और आधारभूत संरचना के विकास से, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सार्वभौमिक बनाकर उन्हें सस्ता अनाज देने से, सरकारी खाली पोस्टों को भरने से, किसानों की फसल के एक-एक दाने को लाभकारी समर्थन मूल्य पर खरीदने से, पेट्रोल-डीजल पर अनाप-शनाप टैक्स वसूलना बंद करने से और जनकल्याण के कामों पर बजटीय घाटे की कीमत पर भी सरकारी खर्च बढ़ाने से।
लेकिन मोदी सरकार जनता को राहत देने की कीमत पर इस मंदी से निपटना नहीं चाहती।
स्टेट बैंक की यह सरकारी रिसर्च उल्टे इस बात को बता रही है कि इस वित्तीय वर्ष में जनकल्याण के लिए बजट में आबंटित पूंजीगत व्यय का 32% से कम खर्च किया गया है, जबकि पिछले वित्तीय वर्ष में इसी अवधि में 37% से अधिक खर्च किया गया था।
यानी कि जनकल्याण के कामों में अभी तक 5% कम खर्च किया गया है। रुपयों में यह राशि एक लाख करोड़ रुपये से अधिक होती है। इस राशि से 571 करोड़ श्रम दिवस रोजगार पैदा किया जा सकता है और देश के 5.7 करोड़ ग्रामीण परिवारों को 100 दिन का रोजगार मनरेगा में उपलब्ध कराया जा सकता है।
इससे ग्रामीणों की बढ़ी हुई क्रयशक्ति के साथ मंदी का मुकाबला किया जा सकता था। इसीलिए स्टेट बैंक ने अपनी रिपोर्ट में आम जनता के कल्याण कार्यों पर सरकारी खर्च बढ़ाने का भी सुझाव दिया है।
लेकिन इस रास्ते पर चलना मोदी के कॉर्पोरेटपरस्त उदारवादी दर्शन के ही खिलाफ है। उसने इस राशि को बड़े पूंजीपतियों और कॉरपोरेट घरानों पर ही खर्च करने का फैसला किया है और उनके लिए बेल-आउट पैकेज की घोषणा की है।
लेकिन इस पैकेज से ये तबके न तो उत्पादन बढ़ाने वाले है और न ही रोजगार देने वाले हैं, क्योंकि आम जनता की क्रयशक्ति में इस पैकेज से कोई बढ़ोतरी तो होने नहीं जा रही है! तो मंदी से निपटने के नाम पर पूंजीपतियों के औसत मुनाफों को ही बरकरार रखने की कोशिश की जा रही है, जिसमें मंदी के कारण गिरावट आने की संभावना थी।
यही है इस सरकार का जनविरोधी चेहरा, जिस पर फिर से विकास का मुखौटा लगाने की पुरजोर कोशिश की जा रही है। याद रखिये, वर्ष 2008 की मंदी में अमेरिकी अर्थव्यवस्था की बर्बादी को।
अमेरिकी जनता को कर्ज़ देकर विकास के जिस गुब्बारे को फुलाया गया था, वह धमाके के साथ फ़ट पड़ा था, क्योंकि अमेरिकी जनता के पास कर्ज़ चुकाने की क्षमता ही नहीं रह गई थी।
इस धमाके के कारण बड़े-बड़े बैंक और उद्योग दिवालिया हो गए थे। आज यही हालत भारतीय जनता की है, जिस पर आज पांच वर्ष पहले की तुलना में दुगुनी कर्जदारी है और अब वह कर्ज़ का और ज्यादा बोझ सहने की हालत में नहीं है।
2008 में भारत मंदी की मार झेल पाया था, तो उसका एक बहुत बड़ा कारण सार्वजनिक बैंकों और उद्योगों की मजबूती थी। लेकिन पिछले पांच सालों में इसमें सुनियोजित रूप से कीलें ठोंकी गई हैं।
बड़े पैमाने पर इन उद्योगों का विनिवेशीकरण-निजीकरण किया गया है और किया जा रहा है। रिज़र्व बैंक की संचित निधि को भी लूट लिया गया है और अब वह इस काबिल भी नही रह गया है कि आम जनता की जमा पूंजी की सुरक्षा की गारंटी भी दे सके।
अर्थशास्त्री_अरुणकुमार के अनुसार नोटबंदी और जीएसटी के कारण जो आर्थिक बदहाली पैदा हुई है, उसके चलते आज जीडीपी की वास्तविक विकास दर शून्य ही है और 5% का दावा भी फ़र्ज़ी ही है, क्योंकि इस दावे की निवेश, प्रति व्यक्ति औसत आय, क्रयशक्ति और रोजगार के साथ कोई संगति ही नहीं है।
यदि लूट ऐसी निर्मम है, तो अपनी बदहाली के खिलाफ जनता भी उठ खड़ी होगी ही। कोयला, बीएसएनएल, बैंक-बीमा, रेल सभी उद्योगों के मजदूर आज मैदान में उतर रहे हैं।
इनके संघर्षों को वामपंथी ताकतें स्वर दे रही हैं। मोदी के नेतृत्व में जनता के इस कॉर्पोरेटपरस्त बर्बादीकरण के खिलाफ आगामी_20_सितंबर को दिल्ली में होने जा रहे कन्वेंशन के जरिये संघर्ष का शंखनाद किया जा रहा है।
ये संघर्ष ही हमारे देश के भविष्य को गढ़ने का काम करेंगे। आईये, मंदी के कारण आम जनता के बर्बादीकरण को अपने संघर्षों के जरिये कॉर्पोरेटपरस्त मोदी सरकार की बर्बादी में तब्दील कर दें।