ऋतुपर्ण दवे
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की 150वीं वर्षगांठ के आखिरी जलसे के बहाने न्यायिक सुधार और कानूनों के बोझ की चर्चा बड़ी बेलागी और बेबाकी से हुई, जो आस जगा गई कि जल्द ही हम त्वरित न्यायिक युग में होंगे। मंचासीन थे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, देश के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे.एस. खेहर, राज्यपाल राम नाइक, देश के कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद, उप्र के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी और दर्शक दीर्घा में सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाईकोर्टो के बहुत से मौजूदा और निवर्तमान न्यायाधीश, जाने-माने वकील व तमाम विधिवेत्ता। न्यायमूर्ति खेहर ने मुस्कुराते हुए कहा कि `प्रधानमंत्री मन की बात करते हैं, आज मैं दिल की बात कहूंगा।` `बात एडीक्वेसी और इन एडीक्वेसी की है, इसमें छिपा हुआ है एक सवाल सफलता और एक सवाल विफलता का, जिंदगी की सफलता एक इंसान की हो, एक संस्था की हो या एक देश की हो, यह उसी पर निर्भर करती है कि आप अपनी बात करते हैं और इस एडीक्वेसी को कैसे डील करते हैं।` कार्यक्रम के दौरान बेहद खुशनुमा माहौल रहा, जिससे एक अच्छा संदेश भी गया।
न्याय प्रणाली में समय के अनुसार बदलाव की खूब बातें हुईं, जो जरूरी हैं। तकनीक को शुमार कर किस तरह से त्वरित न्याय की दिशा में बढ़ने की तैयारी है, इस पर न्यायमूर्ति खेहर ने कई यादगार बातों के बीच संदेश दिया कि न्यायाधीश छुट्टियों के दौरान भी सत्र लगाकर मुकद्दमों को सुनने की प्रक्रिया शुरू करें, तो काफी कुछ बकाए मामलों का निपटारा हो सकता है। कैसे केवल एक घंटे के सत्र से रोज छोटे-मोटे 15-20 प्रकरणों का निपटान हो रहा है। प्रधानमंत्री ने भी माना कि अदालतों में तकनीक का उपयोग कर, अदालतों और जेलों को विडियो कॉन्फ्रेंसिंग से जोड़कर, समय, धन और पुलिस बल के उपयोग को बचाया जा सकता है। एमएमएस से मुकदमों की तारीखें मिलें, इस दिशा में प्रयास जरूरी हैं। कानून जितना घटेंगे, न्याय पर उतना ही बोझ कमेगा।
बदलते युग में तकनीक का भी बहुत ही अहम रोल है। इससे सरलता भी आएगी और सुविधा भी बढ़ेगी। प्रधानमंत्री ने बताया कि देश में 1200 कानून खत्म किए गए हैं। उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्ण के दिए भाषण का जिक्र किया जो आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने कहा था, `कानून एक ऐसी चीज है जो लगातार बदलती है, लेकिन यह लोगों के स्वभाव, मूल्यों के अनुकूल होना चाहिए। आधुनिक मूल्यों की चुनौतियों का भी ध्यान रखना चाहिए। कानून का मकसद अमीरों का नहीं, सभी लोगों का कल्याण होना चाहिए। यही कानून का लक्ष्य होना चाहिए। इसे पूरा करने के लिए प्रयास किया जाना चाहिए।` सर्वविदित है कि देशभर की तमाम अदालतों में न्यायाधीशों की कमी है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व प्रधान न्यायधीश न्यायमूर्ति टीएस ठाकुर भी इस पर नाराजगी जता चुके हैं।
अप्रेल, 2016 में मुख्यमंत्रियों और हाईकोर्ट के मुख्यन्यायाधीशों के सम्मेलन में डबडबायी आंखों से उन्होंने कहा था कि देश की अदालतों में 4 हजार से ज्यादा जजों के पद खाली हैं, जबकि 3 करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं। ऐसे में इंसाफ की उम्मीद कैसी? उन्होंने दोबारा उसी साल लाल किले की प्राचीर से नरेंद्र मोदी द्वारा जजों की नियुक्ति पर कुछ न बोलने पर नाराजगी जताई थी, तंज कसते हुए मोहम्मद रफी के गाए `सौदा` की लिखी एक गजल की पंक्तियां दोहराते हुए कहा था, `गुल फेंके हैं औरों की तरफ बल्कि समर भी, ऐ खाना-बर-अंदाज-ए-चमन कुछ तो इधर भी।`
गौरतलब है कि 1987 में ही विधि आयोग ने प्रत्येक दस लाख जनसंख्या पर जजों की वर्तमान संख्या दस से बढ़ाकर पचास करने की सिफारिश की थी, लेकिन इसे केवल 17 ही किया गया। इसी से कमी का अंदाजा लगाया जा सकता है। विकसित और विकासशील देशों की तुलना में यह संख्या काफी कम है। जबकि कनाडा में 75, फ्रांस में 80, ऑस्ट्रेलिया में 58, ब्रिटेन में यह संख्या 100 है। वहां न्याय की सुगमता का इसी से अंदाजा लग सकता है। शायद इसीलिए न्यायमूर्ति खेहर ने छुट्टियों में भी सत्र की बात कहकर बोझ हलका करने का आह्वान किया। उन्होंने मलेशिया का उदाहरण दिया। साथ ही इस दिशा में पायलट प्रोजेक्ट की बात कही। साथ ही कहा कि जल्द ही उच्च तकनीक का सहारा लेकर भारतीय न्यायालय, पर्यावरण में सुधार के लिए कागजों का कम से कम उपयोग करेंगे बल्कि मोटी फाइलों, किताबों से जूझने और गैरजरूरी बोझ से बचेंगे।
तकनीक उपयोग से दावे-प्रतिदावे, अपील अर्थात कोर्ट की सारी प्रक्रिया स्वत: ही उच्च अदालतों, संबंधित पक्षकारों, वकीलों और आवेदनक-अनावेदकों के पास एक क्लिक पर पहुंचेगी। मतलब सब कुछ जहां चाहिए, वहां त्वरित स्थानांतरित करने का सिस्टम होगा। निश्चित रूप से समय, धन और श्रम अर्थात भागदौड़ से निजात मिलेगी। समन, सूचना, हाजिरी सब कुछ तकनीक से सुलभ होगा। निश्चित रूप से हम न्याय प्रणाली के सुनहरे भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायलय के गौरवशाली अतीत की चर्चा के साथ मुख्यन्यायाधीश ने न्यायप्रणाली की बदलती छवि से जल्द से जल्द न्याय की जो आशा जगाई है, निश्चित रूप से उससे आने वाले दिन न केवल सुनहरे, बल्कि एक नए युग में प्रवेश जैसे होंगे। तब शायद यह धारणा `जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड` यानी `न्याय में देरी ही अन्याय है` बीते दिनों की बात होगी। शायद जल्द ही हम त्वरित न्यायिक युग में होंगे।