पुण्य प्रसुन बाजपेयी… देश का जाना पहचाना एक नाम है. सौभाग्य कहिए अथवा दुर्भाग्य इस नाम के साथ पत्रकारिता का पेशा भी जुड़ा हुआ है. पेशे से पत्रकार पुण्य प्रसुन बाजपेयी का शनिवार शाम को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर प्रवास एक कार्यक्रम के सिलसिले में हुआ था.
गांधी ग्लोबल फैमिली नामक संस्था के द्वारा “प्रतिरोध के स्वर” नामक एक कार्यक्रम का आयोजन दीनदयाल उपाध्याय ऑडिटोरियम में किया गया था. कार्यक्रम के संपन्न होने के बाद अब उसकी कवरेज को लेकर बवाल मचा हुआ है.
दरअसल बाजपेयी को सुनने के लिए छत्तीसगढ़ के छोटे-बड़े अखबारों सहित चैनल्स के प्रतिनिधि भी मौजूद थे. ‘अपना मोर्चा’ में राजकुमार सोनी लिखते हैं कि एक-दो अखबार और चैनल को छोड़कर बाकी सब ने बाजपेयी की खबर से किनारा कर लिया.
ऐसा क्यूंकर हुआ?
पुण्य प्रसुन बाजपेयी ने तकरीबन ढाई घंटे तक न केवल भाषण दिया बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी अधिकारों को लेकर अपने तर्क के सामने सरकार को बौना कर दिया.
केंद्र सरकार पर उन्होंने कई तरह के आरोप भी लगाए… कई तरह के सवाल भी खड़े किए. आंकड़ों के बाजीगर माने जाने वाले बाजपेयी ने आंकड़ों को सामने रखकर यह समझाने की कोशिश की; कि सरकार बेहद खौफनाक ढंग से देश की जनता को बेवकूफ बनाए जा रही है.
केंद्र सरकार पर उन्होंने संवैधानिक संस्थाओं को खत्म करने को लेकर भी सवाल खड़े किए. सरकार की वेबसाइट में लोगों को भरमाने के लिए कई तरह के आंकड़ें गलत तरीके से देने की बात उन्होंने कही.
बाजपेयी ने कहा जब इस तरह के आंकड़ों को तस्दीक की कसौटी पर कसा जाता है तो ये सारे आंकड़ें झूठे निकलते हैं. हर विभाग को पर्याप्त बजट जारी होने की बात कहते हुए उन्होंने कहा कि भारी भरकम बजट राशि का उपयोग इस देश का कार्पोरेट जगत कर रहा है.
देश के होनहार बच्चे का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि जब वह देश छोड़कर जाता है तो दोबारा लौटने की क्यों नहीं सोचता है? क्योंकि देश का माहौल उतना बेहतर नहीं है.
कुछ समय पहले तक विदेशी बच्चों के भारत आने का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि विदेशी बच्चे भारत आकर सभ्यता और संस्कृति को जानने की कोशिश करते थे लेकिन अब इसमें भी भारी कमी आई है.
पेशे से पत्रकार बाजपेयी ने मीडिया को भी नहीं छोड़ा. उन्होंने कहा कि मीडिया का स्वरूप पूरी तरह से बदल गया है. मीडिया को प्रचार के लिए जारी होने वाली राशि का खुलासा करते हुए बाजपेयी कहते हैं कि अब मीडिया में जनता से जुड़ी अच्छी और सच्ची खबरों की गुंजाइश खत्म कर दी गई है.
अपने संबोधन का समापन उन्होंने उपस्थित श्रोताओं से एक अपील करते हुए किया. उन्होंने सलाह दी कि 23 मई तक टीवी मत देखिएगा. मौजूदा समय अंधेरे का समय अवश्य है. लेकिन देश के लोगों को तय करना होगा कि वे अंधेरे से लडऩा चाहते हैं या फिर अंधेरे में रहना चाहते हैं.
अब आते हैं शीर्षक पर… दरअसल हमारी सोच कहां गलत है? पुण्य प्रसुन बाजपेयी उस पीढ़ी के पत्रकार हैं जिस पीढ़ी के पत्रकारों में पत्रकारिता हर हाल में जिंदा रहती है.
इनमें फिर चाहे विनोद दुआ हो या फिर रविश कुमार या कहिए अभिसार शर्मा… ये कुछ एक ऐसे नाम हैं जिनसे सरकार दाएं बाएं होती रहती है. इनमें किसी को भी साक्षात्कार देने के पहले आज के नेता दस मर्तबा सोचते हैं.
ऊपर से आज की मीडिया… ये वही मीडिया है जो अपने आर्थिक लाभ को लेकर इस हद तक सोचने समझने मजबूर होती है कि उसे खबरों के लिए सोचने समझने का वक्त ही नहीं मिल पाता.
तो यदि किसी अखबार अथवा चैनल ने खबर नहीं छापी अथवा नहीं दिखाई तो इससे न तो पुण्य प्रसुन बाजपेयी का वजन कम हो जाता है और न ही उनके द्वारा कही गई बातों का…
यदि छत्तीसगढ़ का हर छोटा-बड़ा अखबार अथवा चैनल खबर छापता और दिखाता तो हमें सोचने मजबूर होना पड़ता कि इतनी दिलचस्पी क्यूं कर बाजपेयी जी के कार्यक्रम में ली गई? तब हमें यह भी सोचने मजबूर होना पड़ता कि क्या हिंदूस्तान में पत्रकारिता आज भी जिंदा है?
लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि हमें ये सब सोचने समझने की जहमत नहीं उठानी पड़ी क्योंकि पुण्य प्रसुन बाजपेयी के वक्तव्य की खबर आई और गई हो गई.