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भोपाल.
मध्यप्रदेश के मुखिया कमलनाथ खुद के द्वारा चली गई चाल में फंस गए हैं. लोकसभा चुनाव के लिए आलाकमान ने उन्हें भोपाल, इंदौर, ग्वालियर व जबलपुर से जिसे चाहे उसे प्रत्याशी बनाने की छूट दी है लेकिन शर्त रखी है कि उसे जीता कर लाना होगा.
दरअसल लोकसभा चुनाव के दौरान पार्टी के बाहर भीतर शह और मात का खेल कांग्रेस में कुछ ज्यादा ही खेला जाता है.
इस बार कमलनाथ ने बड़ी चतुराई से लोकसभा चुनाव की चुनौतियों को किनारे लगाने का प्रयास किया था कि दिग्विजय सिंह भोपाल या इंदौर से चुनाव लड़े.
सालों से नहीं जीती सीटें
राजधानी सहित इंदौर, जबलपुर, ग्वालियर सीट से मुख्यमंत्री कमलनाथ का चेहरा आगे कर पार्टी प्रत्याशी उतारने जा रही है. 1989 से भोपाल-इंदौर सीट पर भाजपा का कब्जा है.
इसी तरह 1996 से आज तक जबलपुर सीट से कांग्रेस जीत नहीं पाई है. यही हाल ग्वालियर सीट का है जहां से 2009 से भाजपा जीतती आ रही है.
मतलब साफ है कि कुल जमा 10 से 30 साल के दौरान मध्यप्रदेश के इन महानगरों को भाजपा ने अपना गढ़ बना लिया है.
इन सीटों पर कांग्रेस के पास कोई जीतने योग्य प्रत्याशी नहीं है. चूंकि इस बार कांग्रेस हर हाल में इन सीटों को जीतना चाहती है इसकारण दिग्गज नेताओं को भी उतारने से उसे कोई परहेज नहीं है.
मुख्यमंत्री कमलनाथ की इच्छा थी कि पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भोपाल-इंदौर से मैदान पर उतरे. हालांकि दिग्विजय सिंह की खुद की अपनी सीट राजगढ़ मानी जाती है.
इधर दिग्विजय सिंह ने यह कहकर कमलनाथ की चुनौती को स्वीकार किया है कि पार्टी आलाकमान जहां से कहेगा वह वहीं से चुनाव लड़ेंगे.
इधर दिग्गी राजा को भोपाल से प्रत्याशी बनाए जाने की घोषणा स्वयं कमलनाथ ने की है. यदि भोपाल से कांग्रेस जीतती है तो इसे दिग्गी की जीत कहा जाएगा.
. . . और हारती है तो यह कमलनाथ की हार होगी क्यूं कि उन्हें इन सीटों की जिम्मेदारी पार्टी ने इस आधार पर दी है कि हर हाल में जिताने की जिम्मेदारी कमलनाथ की होगी.