मेरे सवालों पर क्यूं हड़बड़ाए कुछ पत्रकार?
विक्रम बाजपेयी – नेशन अलर्ट
मंगलवार शाम लगभग 5 बजे.. जगह थी जिला भाजपा कार्यालय. मैं यहीं मौजूद था. तभी जानकारी लगी कि पूर्व मुख्ममंत्री रमन सिंह कुछ पत्रकारों से मुलाकात करेंगे.
जो अब तक उनका अधिकृत निवास था, उसके ही एक कमरे में हम तकरीबन 6 लोग दाखिल हुए. डॉ. रमन सिंह उसके बाद आए और उनके साथ उनके सांसद पुत्र अभिषेक सिंह भी मौजूद थे.
सवाल जवाब शुरु हुए. मुरझाए से रमन अनमने मन से सवालों का जवाब दे रहे थे. टेबल पर रखा उनका मोबाईल लगातार उनकी ऊंगलियों के इशारे पर स्क्राल हो रहा था.
नज़रें भी मोबाईल पर ही थी. मेरी अगली पंक्ति में बैठे तीन वरिष्ठ पत्रकार शायद अपने-अपने सवालों में और अपने पक्ष रखने में व्यस्त थे.
मैंने उनसे थोड़ा सा समय मांगा और जो मन में चल रहा था वह पूछ ही लिया.. कि आखिर क्यूं 15 सालों तक शासन करने के बाद आज आप में कॉन्फिडेंस की कमी लग रही है.. क्यूं हमारी ओर न देखकर आप मोबाईल पर नज़रें जमाएं हमसे बात कर रहें हैं.. ऐसा तो नहीं होना चाहिए.
मेरा कहना क्या हुआ, मेरी अगली पंक्ति में बैठे वरिष्ठ पत्रकार (नवभारत, हरिभूमि, पत्रिका) ही मुझे घूरने लगे. मुझे कहा गया कि ये पत्रकार वार्ता नहीं है. व्यक्तिगत चर्चा है. मैं ऐसे सवाल न करुं. हद हो गई.. धीर गंभीर माने जाने वाले सांसद ने मुझे रोकने का प्रयास भी किया लेकिन मैंने वहां से निकलना ही बेहतर समझा.
मैं बाहर निकला और चीज़ों को समझने की कोशिश करने लगा. थोड़ी देर में कमरे के भीतर से वरिष्ठ पत्रकार भी बाहर आए. प्रेस क्लब के अध्यक्ष ने मुझे समझाने की कोशिश की. हालांकि वह क्या और क्यूं समझा रहे थे, ये मेरी समझ से परे है. मेरा सवाल जायज था. उन्होंने ही मुझे टोका था.
इससे पहले उनके एक सहयोगी ने मुझसे नाराजगी जताई, तुमने अंदर में ऐसा क्यूं किया? सच कहूं तो मैं उसे जानता भी नहीं और मैंने जो जवाब देना था दे दिया.
क्या निकाले जाएं मायने ?
बेहद आसान है. राजनांदगांव जैसे शहर में हम हमेशा अखबारी गुटबाजी के शिकार हुए हैं. स्वार्थ, सेवा या जो कहें बड़े अखबार के बाशिंदों के ही काम आए हैं. मंगलवार की उस शाम भी यही हुआ.
वरिष्ठों की बात करना बेहद जरुरी है. उन्होंने गुटबाजी को काफी बढ़ावा दिया है. जो तीन वरिष्ठ पत्रकार उस कमरे में मौजूद थे वो तीनों मिलकर प्रेस क्लब चला रहे हैं (मैं उसका सदस्य नहीं हूं.). इसमें 156 सदस्य हैं.
मेरा पक्ष है कि क्यूं सिर्फ तीन ही वहां मौजूद थे? क्या बाकियों को पूर्व मुख्यमंत्री के सामने या फिर सांसद के सामने आने का, सवाल करने अवसर नहीं मिलना चाहिए?
पर अक्सर ही ऐसा होता है, अखबारी गुटबाजी में बड़े अखबार हावी होते हैं. राजनीतिक दलों ने भी (खासकर सांसद ने) हमेशा ही ऐसी व्यक्तिगत चर्चाओं को ही महत्व दिया है जिसमें 2-3 पत्रकार ही मौजूद होते हैं. वे पत्रकारवार्ता से बचते दिखते हैं. साक्षात्कार तो बहुत दूर की बात है.
लेकिन अफसोस कि वरिष्ठ कभी उनसे यह नहीं कहते कि आपको पत्रकारवार्ता के माध्यम से विषयों पर चर्चा करनी चाहिए. उन्होंने भी वीआईपी कल्चर ही फॉलो किया है.
रही बात सवालों कि.. तो सवालों के बीच रोक-टोक के कई किस्से मैं देख चुका हूं. मेरे ही साथ ऐसा कई बार हुआ है और शायद दूसरों के साथ भी. वरिष्ठता को दी गई हमारी इज्जत उनके लिए न जाने कौन सा औजार है.
बहरहाल, किस्सा साफ है. सवालों से बचने का काम राजनेताओं का है. उन्हें ही यह काम करने दिया जाए तो बेहतर. सभी विषयों के लिए ऐसी व्यक्तिगत चर्चाओं में शामिल होने वाले राजनेताओं को भी अपनी समझ बढ़ानी चाहिए.
संचार के इस माध्यम में अगर वे ये गफलत पाले बैठे हैं कि सिर्फ कुछ के ही सहारे मोर्चा संभाल लेंगे.. तो माफ कीजिए पर इसके नतीजे फिर से वैसे ही होंगे जैसे आपने अभी भी नहीं सोचे थे.
ओह हां, मैं तो भूल ही गया. आपने विपक्ष देखा ही कहां हैं. अभी तो आप नए हैं. कोई बात नहीं, आप जल्दी सीख जाएंगे.