विक्रम बाजपेयी
नेशन अलर्ट/राजनांदगांव।
वर्ष 1999 का चुनावी समर कौन भूल सकता है। भाजपा ने मुद्दतों बाद अपने दम पर केंद्र में सरकार बनाई थी। राजनांदगांव का लोकसभा क्षेत्र का चुनाव उस समय काफी चर्चित था। कारण था कि यहां से पूर्व मुख्यमंत्री, पूर्व राज्यपाल और कांग्रेस के कद्दावर नेता मोतीलाल वोरा चुनाव लड़ रहे थे और उनके सामने भाजपा ने एक अदने सी राजनीतिक हस्तीं रखने वाले डॉ. रमन सिंह को मैदान में उतारा था।
और इसके बाद वो हुआ जो किसी ने नहीं सोचा था। डॉ. रमन सिंह चुनाव जीत गए.. वे केंद्र में राज्यमंत्री बने, फिर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और उसके बाद अब वें 15 सालों से प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। क्या उस दौरान की राजनीतिक परिस्थितयां फिर दोहराई जा रहीं हैं? बड़ा सवाल है। इसके जवाब भी हैं, तथ्य हम बताते हैं।
तब आए थे प्रमोद महाजन, इस बार राहुल गांधी
उस दौरान भाजपा के कद्दावर नेता प्रमोद महाजन राजनांदगांव जिले के दौरे पर आए थे। उन्होंने डॉ. रमन सिंह के पक्ष में खैरागढ़ में पहली सभा की। उसके बाद देर शाम उन्होंने राजनांदगांव में जय स्तंभ चौक पर सभा ली। रात रुके तो भाजपा नेताओं को सीधी हिदायत उन्होंने दी कि अगर यहां से चुनाव हारे तो सारे नेता घर बैठा दिए जाएंगे। नतीजा आया.. डॉ. रमन सिंह चुनाव जीत गए और उनकी राजनीतिक हैसियत कांग्रेस को निगल गई।
अब क्या हो रहा है? दरअसल जैसा उस दौरान भाजपा ने किया था वैसा ही कुछ अब कांग्रेस में हो रहा है। राहुल गांधी राजनांदगांव आए। उन्होंने भी खैरागढ़ से ही शुरुआत की और वहां सभा ली। देर शाम वो राजनांदगांव पहुंचे और यहां रोड शो के बाद गंज चौक में उन्होंने सभा ली। वे भी यहां रात रुके। खबर है कि इस दौरान भी उन्होंने कांग्रेस नेताओं को सीधा सबक दे दिया कि यहां के चुनाव में जीत कांग्रेस को ही मिलनी चाहिए।
इन दोनों ही घटनाक्रम के बीच एक और बात ये कि उस दौरान अटल बिहारी बाजपेयी के दम पर जो डॉ. रमन सिंह प्रचार पर निकले थे आज उन्हीं मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के खिलाफ अटलजी की भतीजी करुणा शुक्ला चुनाव लड़ रही हैं। करुणा शुक्ला की राजनीतिक हस्ती मुख्यमंत्री से काफी कम है लेकिन उनका प्रभाव लोगों पर पड़ रहा है।
लोग अंदाजन कह रहे हैं कि मुख्यमंत्री जीत जाएंगे.. पर क्या वाकई ऐसा होगा? या वही होगा जो 1999 के आम चुनावों में हुआ था? ये दोनों ही स्थितियां दिलचस्प होंगी। नतीजा 11 दिसंबर को आएगा और देखना होगा कि पूर्व मुख्यमंत्री को हराने वाले डॉ. रमन सिंह क्या खुद भी वैसी ही चुनावी परिस्थितियों में फंस जाएंगे?
…खैर, जो भी हो लेकिन राजनांदगांव इस बार नए सिरे से इतिहास लिखेगा। 1999 में भले ही लोकसभा चुनाव में मोतीलाल वोरा को डॉ. रमन सिंह ने हराया रहा हो लेकिन उस बात का उदाहरण यहां हर किसी की जुबां पे है। भले ही तब लोकसभा चुनाव रहा हो और इस बार विधानसभा चुनाव की बात हो रही हो लेकिन परिस्थितियां तकरीबन एक जैसी हैं।
दरअसल, राजनांदगांव विधानसभा की गद्दी अच्छे-अच्छे को ज्यादा समय अपने पर बैठने नहीं देती है। कारण चाहे जो कुछ हो लेकिन यहां एक बात बड़े पैमाने पर की जाती है कि यह नागा गद्दी है। संतोष महाराज के बताए अनुसार नागा गद्दी पर ज्यादा दिनों तक कोई भी एक शख्स बैठ नहीं सका है क्यूंकि निरवंशियों की गद्दी का असर दिखता है।
तो इतिहास रचेगा राजनांदगांव
1967 व 1972 में किशोरी लाल शुक्ला यहां से विधायक थे। लेकिन 1977 में ठाकुर दरबार सिंह आ गए। हालांकि 1980 में फिर किशोरीलाल शुक्ला विधायक चुने गए लेकिन 1985 में बलबीर खनूजा विधायक बने। 1990 में लीलाराम भोजवानी विधायक रहे।
हालांकि 1993 में उन्हें उदय मुदलियार के हाथ पराजय झेलनी पड़ी। इसका बदला लीलाराम भोजवानी ने 1998 में उदय को हराकर लिया था। 2003 में फिर उदय मुदलियार ने लीलाराम भोजवानी को शिकस्त दी थी। 2008 व 2013 में डॉ. रमन सिंह यहां से विधायक हैं।
मतलब साफ है कि राजनांदगांव सीट से दो बार से अधिक कोई विधायक नहीं बना है। हालांकि किशोरी लाल शुक्ला जरुरत तीन मर्तबा विधायक रहे लेकिन इनमें भी दो महत्वपूर्ण बिंदु हैं। किशोरी लाल शुक्ल को दो मर्तबा कांग्रेस ने टिकट देकर विधायक बनाया था जबकि उन्हें तीसरी मर्तबा निर्दलीय विधायक बनना पड़ा था। पार्टी व निर्दलीय लडऩे के बीच एक मर्तबा ठाकुर दरबारा सिंह से हार भी झेलनी पड़ी थी।
…तो क्या राजनांदगांव इतिहास लिख रहा है। जीते कोई भी लेकिन इतिहास लिखा जाना तय है। डॉ. रमन सिंह जीतते हैं तो वह लगातार तीसरी मर्तबा विधायक बनकर इतिहास रच जाएंगे। जबकि यदि उन्हें हराकर करुणा शुक्ला विधायक बनती हैं तो वह भी इतिहास रचेंगी क्यूंकि उन्होंने सीटिंग सीएम को हराया है।