डाक्टर रमन सिंह : भाजपा का अदना सा कार्यकर्ता, नींव का पत्थर कैसे बना. . ?

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मृत्युंजय

बात 1999 की. तब अकस्मात लोकसभा के चुनाव सिर पर आ गए थे. देश इसके लिए तैयार भी नहीं था.

तकरीबन यही स्थिति राजनांदगाँव सँसदीय क्षेत्र की थी. तब स्वर्गीय मोतीलाल वोरा यहाँ का प्रतिनिधित्व कर रहे थे.

वोरा से मुकाबले के लिए कोई बडा़ भाजपा नेता तैयार नहीं था. उस समय स्वर्गीय विद्याचरण शुक्ल को नांदगाँव से लडा़ने की चर्चा इधर उधर की जा रही थी.

लेकिन तब के भाजपाई शीर्ष नेतृत्व और वीसी के नाम से लोकप्रिय रहे श्री शुक्ल के बीच बातचीत अँतिम चरण में असफल रह गई थी. उस समय वीसी शुक्ल निर्दलीय प्रत्याशी बतौर लड़ना चाहते थे.

उनकी इच्छा थी कि वोरा के खिलाफ लडा़ई में भाजपा उन्हें निर्दलीय प्रत्याशी बतौर समर्थन करे. तब भाजपा इतनी बडी़ पार्टी अथवा शुक्ल इतने छोटे नेता भी नहीं थे.

यह वह समय था जब स्वर्गीय प्रमोद महाजन भाजपा के प्रमुख रणनीतिकार हुआ करते थे. कहा जाता है कि महाजन, वोरा के खिलाफ लडा़ई में शुक्ल का इस्तेमाल करना चाहते थे.

लेकिन इसके लिए उनकी भी एक शर्त थी. वह वीसी शुक्ल को भाजपा के कमल निशान से ही चुनाव लड़वाना चाहते थे. यह तभी सँभव था जब शुक्ल विधिवत भाजपा प्रवेश कर लें.

और वीसी शुक्ल उस समय इस बात के लिए तैयार नहीं थे. बात बनते बनते रह गई थी. तब अचानक डाक्टर रमन सिंह का नाम सामने आया था.

उस समय तक डाक्टर साहब तब के अविभाजित राजनांदगाँव जिले की कवर्धा विधानसभा सीट के विधायक स्तर के नेता हुआ करते थे. हालाँकि बीता विधानसभा चुनाव वह 15 हजार 426 मतों से हार चुके थे. उन्हें तब कवर्धा राजघराने के योगेश्वर राज सिंह ने हराया था.

एक तो विधानसभा चुनाव की हार और ऊपर से रमन सिंह पर चुनावी कर्ज बताया जाता था. इस कारण किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि उन्हें पार्टी, प्रत्याशी बना सकती है.

लेकिन जिसे आज मास्टर स्ट्रोक के नाम पर मीडिया जगत प्रचारित करते रहता है वह भाजपा की बहुत पुरानी रणनीति रही है. स्वर्गीय महाजन ने इस रणनीति का भरपूर इस्तेमाल किया था.

स्वर्गीय वोरा पहली बार लोकसभा के लिए 1998 में राजनांदगाँव से ही निर्वाचित हुए थे. उन्होंने भाजपा के अशोक शर्मा को 52 हजार से अधिक मतों से हराया था.

तब महाजन की चाल थी कि डाक्टर रमन सिंह तब के दिग्गज काँग्रेसी साँसद रहे स्वर्गीय मोतीलाल वोरा के खिलाफ सँसदीय चुनाव लड़ने मैदान में उतार दिए गए थे. वो वक्त ऐसा था कि वोरा के खिलाफ लिखने कोई अखबार तैयार नहीं था.

उस समय नांदगाँव से एक नया अखबार निकल रहा था. इस अखबार को सर्वश्री राजेश शर्मा, अतुल श्रीवास्तव की देखरेख में डाक्टर आफताब आलम प्रकाशित कर रहे थे.

अखबार को अपनी जगह बनानी थी. सँभवत: इसी के मद्देनजर इस अखबार ने तब के साँसद मोतीलाल वोरा, काँग्रेस और उनकी चुनावी रणनीति की कमजोरियों पर बेबाकी से खबरें प्रकाशित करना शुरू कर दिया था.

तब अधिकाँश अखबार एक तरह से “वोरा पुराण” प्रकाशित कर रहे थे तो यह अखबार वोरा की हार की भविष्यवाणी कर रहा था. धीरे धीरे ही सही लेकिन इससे वोरा भी असहज महसूस करने लगे थे.

और नतीजा जिस दिन आया उस दिन वोरा पूर्व साँसद हो गए और डाक्टर रमन सिंह साँसद. उस समय भी अखबारनवीसों को वोरा की हार समझ नहीं आई थी. उन्हें तो यह भी समझ नहीं आया था कि डाक्टर साहब के लिए रणनीति कौन कौन तैयार कर रहा था.

तेरह महीने बाद ही हुए चुनाव में उलटफेर हो चुका था. 1999 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के डॉ. रमन सिंह ने 26 हजार 725 मतों से वोरा के खिलाफ जीत हासिल की थी.

यह वह दौर था जब रमन सिंह का चुनावी जनसंपर्क रात के तकरीबन दस ग्यारह बजे तक समाप्त हो जाता था. अनुपम नगर के किराए के मकान में दिनभर की थकान मिटाते हुए रमन सिंह तब अपने सहयोगी कवर्धा निवासी स्वर्गीय मिश्रा, राजेश शर्मा, अतुल श्रीवास्तव के साथ हँसी मजाक किया करते थे कि यदि वह जीत गए तो उन्हें खुद भी भरोसा नहीं होगा.

लेकिन हुआ भी ऐसा ही था. अब डाक्टर रमन सिंह नांदगाँव के नए साँसद थे. अब राजेश – अतुल – आफताब और नया अखबार उनके भविष्य के बारे में लिख रहा था.

उस समय स्वर्गीय कुशाभाऊ ठाकरे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हुआ करते थे. 1999 में जयललिता के समर्थन वापिस लेने की वजह से देश में मध्यविधि चुनाव कराए गए थे.

भाजपा ने यह चुनाव अटल के चेहरे और कुशाभाऊ की अध्यक्षता में लडा़ था. बीजेपी ने अपने प्रदर्शन को बरकरार रखा. पार्टी को 182 सीटों पर जीत मिली, जबकि एनडीए ने 303 सीटों पर जीत दर्ज की थी.

अटल बिहारी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने. कैबिनेट गठन के वक्त कुशाभाऊ के भी मंत्री बनने की चर्चा शुरू हुई. दरअसल, कुशाभाऊ से पहले अध्यक्ष बने तीनों ही नेता कैबिनेट में शामिल थे. हालांकि, ठाकरे सरकार में शामिल नहीं हुए.

राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते तब उनसे वाजपेयी ने केंद्रीय मँत्रिमंडल के लिए नाम माँगे थे. कहा जाता है कि तब ठाकरे ने जो इकलौता नाम दिया था वह डाक्टर रमन सिंह का ही था.

नांदगाँव इतिहास रचने जा रहा था. यह वह पहला अवसर था जब नांदगाँव के किसी साँसद को केंद्रीय मँत्रिमंडल में शामिल होने का सौभाग्य मिल रहा था.

दो बार के मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश जैसे बडे़ प्रांत के राज्यपाल रहे मोतीलाल वोरा को हराकर रमन सिंह पहले ही इतिहास रच चुके थे. अब नया इतिहास रचा जा रहा था.

ठाकरे की सलाह पर वाजपेयी ने उन्हें अपने मँत्रिमंडल में जगह दी. 13 अक्टूबर 1999 को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने वाले वाजपेयी के एक सहयोगी रमन सिंह भी थे. उन्हें उद्योग व वाणिज्य राज्यमंत्री बनाया गया था.

अब छत्तीसगढ़ के पृथक राज्य बनने का समय आ चुका था. विद्याचरण शुक्ल जैसे कद्दावर नेता, महेंद्र कर्मा जैसे बडे़ आदिवासी नेता को पीछे छोड़कर अजीत प्रमोद कुमार जोगी नए नवेले छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बनाए गए थे.

उस समय जोगी नाम से विपक्ष डरा करता था. दर्जनभर भाजपाई विधायकों को जोगी, काँग्रेस में शामिल भी करा चुके थे.

शायद इसी के कारण दिलीपसिंह जूदेव, रमेश बैस जैसे स्थापित भाजपाई नेताओं में से कोई भी छत्तीसगढ़ प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनने तैयार नहीं था. एक बार फिर अटल – आडवाणी – ठाकरे की निगाहें रमन सिंह पर आकर टिक गईं.

अँततः छत्तीसगढ़ भाजपा की कमान रमन सिंह को सौंप दी गई. रमन ने जैसे वोरा को पटखनी दी थी वैसी ही उन्होंने जोगी को भी दी. राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ में हुए पहले चुनाव में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिल चुका था.

चूँकि भाजपा ने यह चुनाव रमन के नेतृत्व में लडा़ था इस कारण अटल – आडवाणी जैसे दिग्गज उन्हें ही मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे. अब डाक्टर रमन सिंह का परिचय बदल चुका था.

अब वह राज्य की प्रथम निर्वाचित सरकार के मुखिया थे. सिंह को केंद्रीय मँत्री होने के बाद मुख्यमंत्री पद तक पहुँचने वाले नांदगाँव जिले के विधायक होने का सौभाग्य मिल रहा था.

उस समय तक रमन विधायक नहीं थे. उनके लिए प्रदीप गाँधी ने अपनी डोंगरगाँव सीट खाली कर दी थी. मुख्यमंत्री रहते हुए रमन ने डोंगरगाँव से उपचुनाव लड़कर विधायक बनने की पात्रता हासिल की थी.

मुख्यमंत्री रहते हुए पहली बार उन्हें विक्रम सिसोदिया के साथ साथ अपनी धर्मपत्नी श्रीमती वीणा सिंह से हर तरह की नेक सलाह मिली थी. अब अफसरशाही में जोगी की जगह रमन को खास तवज्जों मिलने लगी थी.

2008 में विधानसभा का दूसरा चुनाव लडा़ गया. काँग्रेसी खेमे में बँटे हुए थे. एक तरफ जोगी गुट था तो दूसरी तरफ जितने नेता उतने गुट. भाजपा सँगठित थी.

इसका उसे फायदा भी मिला. चाऊर वाले बाबा के नाम से दल्ली से दिल्ली तक मुख्यमंत्री रमन सिंह पहचाने जाने लगे थे.

रमन के नेतृत्व में 2008 का चुनाव जीतकर भाजपा लगातार दूसरी मर्तबा सरकार बना रही थी. इस समय तक शिवराज सिंह त्यागी, विवेक ढाँड जैसे अफसर मुख्यमंत्री के नए सलाहकार बन गए थे.

श्रीमती वीणा सिंह की अधिकाँश गतिविधियां ऊपर से रमन को और मजबूत किए जा रही थी. सलवा जुडूम के सहारे नक्सलियों को कुचलने के प्रयास को और अधिक प्रोत्साहित किया जाने लगा था.

2013 आते आते लगने लगा था रमन सिंह की चमक कम हुए जा रही है. झीरम घाटी के हादसे में प्रदेश काँग्रेस ने अपने तमाम बडे़ नेताओं को खो दिया था.

वीसी शुक्ल, नँदकुमार पटेल, महेंद्र कर्मा, उदय मुदलियार आदि परिवर्तन यात्रा पर बस्तर गए हुए थे. दुर्भाग्य देखिए कि इनमें से कोई जिंदा वापस घर नहीं आ पाया.

लगने लगा था कि नक्सली हमले के चलते केंद्र की मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार राज्य की रमन सरकार को बर्खास्त कर देगी. राजनीति के जानकारों को तब आश्चर्य हुआ भी कि रमन सरकार बर्खास्तगी से बच गई.

क्यों, कैसे यह सब हुआ इस पर आज भी सवाल उठते हैं. अजीत जोगी, कवासी लखमा पर जोकि नक्सली हमले में बच गए थे कि भूमिका पर भी सवाल उठते रहे हैं.

किंतु परँतु की स्थिति परिस्थिति के बीच डाक्टर रमन सिंह और उनकी सरकार ने फिर चुनावी जीत का सेहरा बाँध लिया था. लेकिन इस समय तक राजनीति से लेकर घरू मैदान तक में रमन नई परेशानियों से घिर गए थे.

उनकी पत्नी श्रीमती वीणा सिंह गँभीर रूप से बीमार पड़ गई थीं. रमन का ध्यान उनकी तरफ ज्यादा हो चला था.

सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में हिचकोले खाने लगी थी. रमन की मजबूती अब मजबूरी हो गई थी. नौकरशाहों पर उनका आश्रित होना भाजपा को कमजोर करने लगा था.

यह वही समय था जब छत्तीसगढ़ में सुपर सीएम के किस्से सुनाई पड़ने लगे थे. अमन सिंह, मुकेश गुप्ता जैसे अधिकारी बेहद मजबूत हो चले थे.

तब काँग्रेस में भी नया नेतृत्व आ गया था. भूपेश बघेल एक और सरकार से तो दूसरी और अजीत जोगी से लड़ रहे थे.

वह पार्टी आलाकमान को यह समझाने में सफल रहे थे कि काँग्रेस का भला तब तक नहीं हो पाएगा जब तक जोगी नामक बीमारी का स्थाई उपचार न हो जाए. धीरे धीरे ही सहीं लेकिन जोगी से आलाकमान ने दूरियाँ बनाना शुरू कर भी दिया था.

अँतागढ़ विधानसभा उपचुनाव ने एक तरह से आग में घी का काम किया था. भूपेश बघेल के नेतृत्व पर सवाल उठाते उठाते अजीत और अमित जोगी खुद सवालों के घेरे में खडे़ थे.

तब कहा गया कि मँतूराम पवार ने अजीत-अमित जोगी की शह पर मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह, उनके दामाद डा. पुनीत गुप्ता से सौदेबाजी कर ली थी.

नाम वापसी के अँतिम दिन, आखिरी समय में काँग्रेस प्रत्याशी रहे मँतूराम पवार ने अपना नाम वापस ले लिया था. बघेल और काँग्रेस के हाथ खाली ही रह गए थे.

इसका दोहरा असर हुआ था. भूपेश ने इसे इस तरह से प्रचारित करना शुरू किया कि रमन और जोगी मिले हुए हैं. ऊपर से इंदिरा प्रियदर्शिनी बैंक घोटाला ने रमन की छवि को भी प्रभावित किया.

भूपेश के प्रहार दिन प्रतिदिन गँभीर हुए जा रहे थे. पहले अमित जोगी काँग्रेस से बाहर किए गए. धीरे धीरे ऐसी परिस्थिति बन गई कि अजीत जोगी स्वयं काँग्रेस से अलग हो गए.

अब रमन सिंह पर दोनों तरफ से प्रहार हो रहे थे. भूपेश जहाँ रमन और अजीत को ए और बी टीम बता रहे थे तो वहीं जोगी, रमन सिंह और उनके मँत्रिमंडल को “परदेशिया” ठहरा रहे थे.

धीरे धीरे ही सहीं लेकिन वीणा भाभी का स्वास्थ्य सुधरने लगा था लेकिन वह समाज से लगभग कटी कटी सी रहती थी. अधिकारियों पर हद से ज्यादा निर्भरता रमन सिंह को महँगी पड़ने लगी थी.

ऐसे में जो चुनाव हुए उसने राजा को रँक बना दिया. 15 साल एकछत्र छत्तीसगढ़ पर राज करने वाले रमन अब महज 15 सीट ही दिला पाए थे.

भूपेश, राज्य के नए मुखिया हो गए थे. 2013 से 18 तक की अवधि में जितने भी आरोप उन्होंने रमन सिंह, भाजपा नेताओं और सरकार पर लगाए थे अब उन्हें साबित करना था.

इस मामले में एक तरह से भूपेश राज सफल साबित नहीं हुआ. जिस झीरम के सबूत जेब में होने का दावा किया जाता था वह खोखला साबित हुआ.

इस अवधि में रमन सिंह ने अपना धैर्य बनाए रखा था. उन्होंने कभी भी हल्की बात नहीं कही. जिस भूपेश को हिंदुत्व का नया अवतार बताने में काँग्रेसी लगे हुए थे उन्हें रमन सिंह ने कभी भी बिना वजह निशाने पर नहीं लिया था.

भूपेश राज के जैसे जैसे साल बीतते गए वैसे वैसे रमन सिंह की अच्छाई लोगों को समझ आने लगी थी. ऊपर से कोल स्कैम, शराब घोटाला, महादेव सट्टा ऐप के आरोपों ने रमन सिंह के काम को और आसान कर दिया.

अभी तक के सर्वे एक तरह से प्रदेश में काँग्रेस सरकार की वापसी करा चुके थे. 75 + के नारे ने भूपेश के अति आत्मविश्वास की कहानी को और पुख्ता किया था.

जब 2023 में चुनावी नतीजे आए तो वह प्रदेश में काँग्रेस के सबसे कमजोर प्रदर्शन को उजागर कर रहे थे. एक बार फिर से भाजपा को पूर्ण बहुमत मिल गया था.

अन्य लोगों की ही तरह मेरी भी यह दिली इच्छा थी कि पुनः रमन सिंह के नेतृत्व में सरकार बने. लेकिन सरकारें इच्छाओं से नहीं भावी रणनीतिओं के सहारे बनती हैं.

सँभवत: भविष्य में आदिवासी मुख्यमंत्री की माँग न हो यह सोचकर भाजपा नेतृत्व ने विष्णुदेव साय जैसे भले व्यक्ति को राज की कमान सौंपी है. साथ ही साथ उसने डा. रमन सिंह के अनुभव का भी मान रखा है.

इस बार बैटिंग (सत्ता पक्ष) बालिंग (विपक्ष) के स्थान पर उन्हें अंपायर (विधानसभा अध्यक्ष) का दायित्व सौंपा गया है. बडी़ तेजी से रमन सिंह ने इस भूमिका को अँगीकार कर लिया है.

भविष्य में जब कभी भी छत्तीसगढ़ का इतिहास लिखा जाएगा तब रमन सिंह का नाम बेहद महत्वपूर्ण रहेगा. नए राज्य में नया नेतृत्व तैयार करने में कहीं न कहीं रमन सिंह नींव के पत्थर कहलाएंगे.

(सँदर्भ: राजनांदगाँव से प्रकाशित प्रात: दैनिक शाश्वत सँदेश)

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