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नज़रिया : संजय पराते
छत्तीसगढ़ में स्कूली शिक्षा की बदहाली का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रदेश में 3000 से ज्यादा स्कूलों में प्राचार्य नहीं है और शिक्षकों के 8194 पद, सहायक शिक्षकों के 22000 से अधिक और व्याख्याताओं के 2524 पद रिक्त हैं।
सरकार द्वारा संचालित 56333 स्कूलों में से 300 से अधिक स्कूल शिक्षकविहीन है, जबकि 5500 स्कूलों में एक ही शिक्षक है और 3978 प्राइमरी, मिडिल, हाई और हायर सेकंडरी स्कूल एक ही परिसर में संचालित हो रहे हैं।
संविधान सरकार को निर्देशित करता है कि स्कूली उम्र के हर बच्चे के लिए उसके रहवास वाले इलाके में शिक्षा का प्रबंध करो। यदि इस निर्देश का पालन करना है, तो नए स्कूल भवनों का निर्माण करना और शिक्षकों के खाली पदों को भरना किसी भी सरकार की प्राथमिकता में होना चाहिए।
लेकिन ऐसी प्राथमिकता भाजपा सरकार के एजेंडे में कैसे हो सकती है? यहां तो जो 10-15 हजार शिक्षक हर साल सेवा निवृत्त हो रहे हैं, इन पदों को पूरी खामोशी से खत्म किया जा रहा है।
नए स्कूल भवन बनाने, पुरानों का जीर्णोद्धार करने और शिक्षकों की भर्ती करने के बजाय भाजपा सरकार द्वारा युक्तियुक्तकरण के नाम पर स्कूलों को बंद करने और शिक्षकों का तबादला करने का अभियान चलाया जा रहा है। युक्तियुक्तकरण भाजपा का प्रिय काम है, जो स्कूली शिक्षा की वास्तविक चुनौतियों से आंख मूंदना चाहती है। भाजपा सरकार की इस मुहिम का प्रदेश के सभी शिक्षक संगठनों और मध्यान्ह भोजन मजदूर एकता यूनियन (सीटू) ने कड़ा विरोध किया है।
पिछली भाजपा राज में भी युक्तियुक्तकरण के नाम पर 2000 से भी ज्यादा स्कूल बंद कर दिए गए थे। लगभग सभी ग्रामीण क्षेत्रों में थे और इसका शिकार वे हजारों ग्रामीण बच्चे हुए, जो दूसरे स्कूलों की गांव से ज्यादा दूरी होने के कारण और छात्राएं लैंगिक भेदभाव के कारण, शिक्षा क्षेत्र से बाहर हो गए।
अब भाजपा के नए “सायं-सायं” राज में और 4077 स्कूल बंद किए जा रहे हैं। बताया जा रहा है कि इन स्कूलों में विद्यार्थियों की दर्ज संख्या 10 से कम है। इस प्रकार 35000 से ज्यादा बच्चे स्कूली शिक्षा से बाहर किए जा रहे हैं।
कहने की जरूरत नहीं है कि लगभग सभी बच्चे ग्रामीण क्षेत्र के, आदिवासी इलाकों के और आर्थिक रूप से कमजोर बच्चे ही होंगे। इसके साथ ही, एक ‘तबादला उद्योग’ खोलकर बड़े पैमाने पर शिक्षकों को इधर से उधर किया जाएगा।
लेकिन ऐसे युक्तियुक्तकरण की मार केवल बच्चों और शिक्षकों पर ही नहीं पड़ेगी, इन स्कूलों में काम करने वाले सफाई कर्मियों और मध्यान्ह भोजन बनाने वाले मजदूर भी इसका शिकार होंगे, जो आज तक न्यूनतम मजदूरी से वंचित हैं, इसके बावजूद ये काम उनकी आजीविका का सहारा बने हुए हैं।
इन स्कूलों के बंद होने से 12000 से ज्यादा मध्यान्ह भोजन और अंशकालीन सफाई मजदूर बेरोजगार हो जाएंगे, जिनके पास स्थाई/नियमित रोजगार का और कोई साधन नहीं है।
ये मजदूर अब ग्रामीण बेरोजगारों की फौज बढ़ाएंगे, या फिर किसी और काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन करेंगे और शहरी दिहाड़ी मजदूर बनने के लिए मजबूर होंगे। भाजपा ने 2023 के चुनावी घोषणापत्र में वादा किया था कि मध्यान्ह भोजन मजदूरों को वर्तमान में मिलने वाले मानदेय में 50 प्रतिशत वृद्धि की जाएगी, लेकिन 10 माह बीतने के बाद भी इस दिशा में कोई काम नहीं हुआ है।
हां, उनकी छंटनी जरूर की जा रही है। साफ है कि भाजपा सरकार के पास इन मजदूरों के काम और आजीविका की सुरक्षा का भी कोई एजेंडा नहीं है।
मध्यान्ह भोजन मजदूर एकता यूनियन (सीटू) के संरक्षक समीर कुरैशी ने बताया कि यूनियन की इन्हीं चिंताओं से अवगत कराते हुए मुख्यमंत्री को ज्ञापन सौंपा गया है और युक्तियुक्तकरण की कार्यवाही रद्द करने के साथ ही इन मजदूरों को नियमित करने और न्यूनतम वेतन देने की मांग की गई है।
उन्होंने बताया कि प्रभावित स्कूलों के पालकों, शिक्षकों और ग्रामीणों को साथ में लेकर एक बड़ा आंदोलन खड़ा करने की कोशिश सीटू कर रही है।
पूर्ववर्ती कांग्रेस राज में प्रदेश के हर ब्लॉक में उत्कृष्ट शिक्षा केंद्र स्थापित करने के उद्देश्य से स्वामी आत्मानंद स्कूलों के नाम पर एक नवाचार किया गया था, जिसने निजी स्कूलों का विकल्प गढ़ने की कोशिश की थी। इन स्कूलों की ओर आम जनता बड़े पैमाने पर आकर्षित हुई थी।
लेकिन भाजपा कभी भी इन स्कूलों के पक्ष में नहीं रही। अब भाजपा के सत्ता में आने के बाद उत्कृष्ट शिक्षा के ये केंद्र धीरे-धीरे और अघोषित रूप से अपनी मौत मरने के लिए बाध्य हैं। इन स्कूलों में पर्याप्त शिक्षकों का संकट पैदा कर दिया गया है, इसके साथ ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का निर्माण करने वाले साधनों का अभाव पैदा किया जा रहा है।
प्रदेश के सरकारी स्कूलों में कहने के लिए तो बच्चों को मुफ्त शिक्षा दी जा रही है, लेकिन पहली से पांचवीं तक के बच्चों को निजी प्रकाशकों द्वारा मुद्रित औसतन 1000 रूपये की पाठ्येत्तर पुस्तकें खरीदवाई जा रही है। इन पुस्तकों की गुणवत्ता भी सोचनीय है।
हर सरकारी स्कूल द्वारा अलग-अलग निजी प्रकाशकों की पुस्तकें चलाना उसी प्रकार के भ्रष्टाचार का संकेत है, जो निजी स्कूलों का हिस्सा है। जिस प्रदेश में 95% परिवारों की मासिक आय 5000 रूपये से कम हो और औसत क्रय शक्ति ग्रामीण परिवारों के लिए 2446 रूपये तथा शहरी परिवारों के लिए 4483 रूपये मासिक हो, वहां पालकों पर पड़ने वाले इस अवहनीय बोझ और इसके कारण शिक्षा क्षेत्र से बाहर होने वाले/रह जाने वाले छात्रों की कल्पना आसानी से की जा सकती है।
“असर” की पिछले साल जारी रिपोर्ट बताती है कि छत्तीसगढ़ में 15 साल उम्र तक के 13.6% बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं। ये बच्चे स्कूली शिक्षा के दायरे से बाहर क्यों है, इस पर कभी भी भाजपा की सरकारों ने मंथन नहीं किया।
“असर” (एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट) की यही रिपोर्ट स्कूली बच्चों की पढ़ने-लिखने की क्षमता को भी रेखांकित करती है। इस रिपोर्ट के अनुसार, सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले पांचवीं कक्षा के केवल 52.7% बच्चे ही कक्षा-2 के स्तर का पाठ पढ़ पाते हैं।
22.8% बच्चे ही भाग की क्रिया कर सकते हैं तथा केवल 11.3% बच्चे ही अंग्रेजी का वाक्य पढ़ सकते हैं। पांचवीं के बच्चों का यह हाल है, तो निचली कक्षाओं के बच्चों की हालत समझ सकते है।
बच्चों की इस दयनीय शैक्षणिक स्तर का सीधा संबंध स्कूली शिक्षा की बदहाली से है।
युक्तियुक्तकरण का एक दूसरा पहलू भी है और वह यह है कि जितने सरकारी स्कूल बंद होंगे, शिक्षा के निजीकरण के दरवाजे भी उतने ही चौड़े होंगे। एक सर्वे के अनुसार, पिछले 10 सालों में बंद हुए स्कूलों की जगह सरस्वती शिशु मन्दिर जैसे आरएसएस-संचालित स्कूल उग आए हैं, जो शिक्षा का भगवाकरण करने के लक्ष्य पर काम कर रहे हैं।
ये स्कूल पाठ्यक्रम से बाहर ऐसी पुस्तकों को चला रहे है, जो नितांत अवैज्ञानिक दृष्टिकोण और हिंदुत्व की अवधारणा पर तैयार की गई है और बच्चों को एक सांप्रदायिक नागरिक बनाने का काम करती है।
सरकारी रिपोर्ट के अनुसार ही, पिछले 10 सालों में 2000 से अधिक निजी स्कूल खुले है, जिनके फीस के ढांचे और पाठ्य सामग्री पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है।
आज नई शिक्षा नीति और शिक्षा के भगवाकरण का चोली-दामन का संबंध है और भाजपा सरकार द्वारा चलाया जा रहा युक्तियुक्तकरण का अभियान शिक्षा के निजीकरण और भगवाकरण के अभियान का ही हिस्सा है।
जैसा कि मध्यप्रदेश का अनुभव बताता है, जहां दीनानाथ बतरा सहित आरएसएस से जुड़े 88 “स्वनामधन्य” लेखकों की पुस्तकों को, जो नितांत सांप्रदायिक और वर्णवादी दृष्टिकोण से लिखी गई है, स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल कर शिक्षा संस्थाओं को इन्हें खरीदने के लिए कहा गया है।
बतरा का यह खतरा जल्दी ही छत्तीसगढ़ के स्कूलों के दरवाजे भी खटखटाने जा रहा है। शुरुआत रविशंकर विश्वविद्यालय से हो चुकी है, जहां फलित ज्योतिष और वास्तु ज्योतिष के पाठ्यक्रम शुरू करके अंधविश्वासों का दीक्षांत महोत्सव आरम्भ किया जा चुका है।
छत्तीसगढ़ में शिक्षक और मजदूर संगठनों के कड़े विरोध के बाद भाजपा सरकार द्वारा युक्तियुक्तकरण की मुहिम फिलहाल रोक दी गई है। लेकिन असली लड़ाई नई शिक्षा नीति के नाम पर लागू की जा रही निजीकरण और भगवाकरण की उस नीति के खिलाफ है, जो पूरे देश के शैक्षणिक जगत को अवैज्ञानिक सोच और अज्ञान के अंधकार में डुबो देना चाहती है और ऐसे मस्तिष्क का निर्माण करना चाहती है, जो अपनी अज्ञानता पर गर्व करे।
यह नीति वैज्ञानिक शिक्षा प्रणाली का निर्माण करने और एक वैज्ञानिक – धर्मनिरपेक्ष समाज की रचना करने के संविधान के निर्देश के ही खिलाफ है। इसलिए शिक्षा के निजीकरण और भगवाकरण के खिलाफ लड़ाई वस्तुतः संविधान को बचाने की लड़ाई है। पूरे देश के साथ छत्तीसगढ़ को भी यह लड़ाई लड़नी है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं. लेखक छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं.)