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नजरिया : जवरीमल्ल पारख
महाराज एक फ़ीचर फ़िल्म है और यह पूरा आलेख फ़िल्म के तौर पर इसकी समीक्षा कम और उन्नीसवीं सदी के भारत के एक लगभग अनजाने, लेकिन महत्वपूर्ण अध्याय को जानने और समझने का प्रयास अधिक है।
जैसा कि कहा जा चुका है, इस फ़िल्म के केंद्र में करसनदास मूलजी नामक एक पत्रकार हैं जिनके लिखे एक लेख पर वल्लभ संप्रदाय की एक हवेली से संबंधित गोसाईं जदुनाथ ब्रजरत्नदास महाराज ने मानहानि का मुक़दमा दायर किया था।
करसनदास मूलजी इस फ़िल्म के नायक हैं ; कुछ हद तक यह उनकी बायोपिक है। फ़िल्म की शुरुआत करसनदासजी के जन्म से होती है।
फ़िल्म बताती है कि करसनदास का जन्म 1832 में गुजरात के वडाल में हुआ था। बचपन में ही उनमें गहरी जिज्ञासु प्रवृत्ति थी और जो भी उनके सामने घटित होता था, उससे संबंधित प्रश्न पूछते थे।
मसलन, जब वे बालक थे और उनके परिवार द्वारा यज्ञ का आयोजन किया गया था, तो उन्होंने पूछा कि अग्नि में अनाज क्यों डालते हैं? यज्ञ कराने वाला पंडित जवाब देता है कि यह अन्न भगवान के पास पहुंचता है।
तब करसनदास प्रतिप्रश्न पूछते हैं कि “क्या अग्नि को भगवान का पता मालूम है?” ज़ाहिर है कि न पंडितजी के पास और न परिवार के पास इस सवाल का जवाब होता है। मंदिर में यह यज्ञ संपन्न होता है।
करसनदास पूछता है कि मंदिर को हवेली क्यों कहते हैं? श्रीजी (श्रीनाथ जी) के पास किसकी मूर्ति है? उसे बताया जाता है कि ये वल्लभाचार्य है, जिन्होंने हमारे धर्म की स्थापना की। करसनदास की मां उन मूर्तियों के आगे सिर नवाकर कहती है कि “म्हारे करसन को ध्यान राखजो।”
करसनदास की मां गुजराती बोलती है, इसलिए वह अपनी मां से पूछता है कि ‘क्या श्रीजी को गुजराती आती है?’ दूसरा सवाल पूछता है कि “क्या श्रीजी हमारे गांव के हैं?” वह अपने पिता से पूछता है कि “मां और भाभु घूंघट क्यों रखती हैं?”
पिता उत्तर देते हैं कि उनको दूसरों की नज़र न लगे। तभी उसकी मां को सीढ़िया उतरते हुए ठोकर लग जाती है। इस पर करसनदास सहज भाव से जवाब देता है कि “ऐसे घूंघट का क्या मतलब जिससे खुद को ही नज़र न आये।”
जब करसनदास दस वर्ष का होता है, तब उसकी मां का देहांत हो जाता है। पिता दूसरी शादी कर लेते हैं और उसके बाद वह अपने मामा के साथ बंबई आ जाता है।
बंबई के कालबा देवी में उसके मामा का घर होता है। फ़िल्म बहुत संक्षिप्त परिचय बंबई का देती है कि यह शहर एक अंग्रेज राजा को दहेज में मिला था, जिसने दस पौंड सालाना किराये पर ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिया था।
बंबई तब भी शहर नहीं, एक सोच थी। वहां का बंदरगाह गुजरात के कपास के वैष्णव व्यापारियों का गढ़ बना। उस समय बंबई में वैष्णवों की (वल्लभ संप्रदाय के पुष्टिमार्ग से संबंधित) सात हवेलियां हुआ करती थीं।
इनमें से एक मोटी (बड़ी) हवेली कालबा देवी में थी। हुकूमत अंग्रेजों की थी, पर माना जाता था जेजे यानी जदुनाथ को, जो हवेली के मुख्य महाराज थे।
उसी मोटी हवेली के पड़ोस में करसनदास के मामा का घर होता है और उसी घर में करसनदास रहने लगता है।
करसनदास मूलजी अब जवान हो चुका है और उसकी कुछ गतिविधियों से उसका परिचय दिया जाता है और उस समय का भी, जब छुआछूत आज से बहुत ज्यादा प्रचलन में थी।
बंबई शहर की एक सड़क पर एक घड़ा हाथ में लिये एक दलित यह बोलते हुए जा रहा है कि मैं अछूत हूं, मुझसे दूर रहो। करसनदास सड़क पर पत्तल पर कुछ खाता जा रहा है। एक ग़रीब फटेहाल आदमी सड़क के एक किनारे बैठा कुछ खा रहा है। उसके पत्तल में चटनी भी है।
करसनदास उस आदमी से पूछता है कि क्या मैं थोड़ी चटनी ले लूं, तो वह आदमी आश्चर्य से उसकी ओर देखता है और कहता है कि श्राप लगेगा, मैं अछूत हूं।
इस पर करसनदास कहता है, “थोड़ी सी चटनी क्या मांग ली, तू ने तो जात बता दी।” और यह कहते हुए उस व्यक्ति के पत्तल से चटनी लेकर खा लेता है।
ज़ाहिर है कि वह जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में भेद नहीं करता। केवल सैद्धांतिक रूप में नहीं, बल्कि व्यवहार में भी।
बालक के रूप में उसके प्रश्न और युवा होने पर किसी ‘अछूत’ के पत्तल से लेकर खाने का साहस करसनदास के व्यक्तित्व का परिचय देने के लिए काफ़ी है।
दरअसल, करसनदास का समय वही है, जब उसी महाराष्ट्र में जोतिबा फुले (1827-1890) हुए थे, जिन्होंने जातिवाद के विरुद्ध ज़बर्दस्त संघर्ष किया था। फ़िल्म करसनदास के सोच को क्रांतिकारी बताती है और उसे दादाभाई नौरोजी से प्रभावित बताती है।
दादाभाई नौरोजी आज़ादी के आंदोलन की पहली पंक्ति के नेता थे। फ़िल्म करसनदास को दादाभाई नौरोजी के साथ दिखाती भी है।
इस समय करसनदास ने समाज सुधार से संबंधित लेख लिखने शुरू कर दिये थे और वे लेख दादाभाई नौरोजी के अख़बार ‘रास्ट गोफ्तार’ में प्रकाशित होते थे।
करसनदास अपने लेखों में विधवा विवाह का समर्थन करते हैं। फ़िल्म के एक दृश्य में नुक्कड़ सभा में वे विधवा विवाह के पक्ष में व्याख्यान देते हुए नज़र आते हैं।
वास्तविक जीवन में करसनदास द्वारा विधवा विवाह का समर्थन करने पर उन्हें घर से निकाल दिया गया था, लेकिन घर से निकालने की घटना फ़िल्म में बाद में आती है, हालांकि वहां भी विधवा के पुनर्विवाह की बात आती है।
फ़िल्म यह भी बताती है कि सेठ गोकुलदास तेजपाल और सोहराबजी आर्देशिर जैसे उस समय के प्रख्यात लोग भी करसनदास के लेखों से प्रभावित हो रहे थे और वे करसनदास के समाज सुधार आंदोलन के साथी बन गये थे।
वास्तविक जीवन में जब करसनदास को मामा का घर छोड़ना पड़ता है, तब गोकुलदास तेजपाल उन्हें अपने स्कूल में नौकरी देते हैं। फ़िल्म में होली के अवसर पर करसनदास अपनी भाभो (बड़ी मां) को, जो विधवा है, गाल पर रंग लगा देता है और यह भी कहता है कि मेरा बस चले तो तुम्हें पूरा रंग से भर दूं।
करसनदास के रंग लगाने से भाभो चौंक जाती है, लेकिन नाराज़ नहीं होती। बस हल्के से मुस्करा देती है, लेकिन तभी भाभो की नज़र घर के अंदर आंगन में बैठी करसनदास की मामी से मिलती है, तो चेहरे की मुस्कान लुप्त हो जाती है।
मामी कुछ कहती तो नहीं, लेकिन उसकी नज़र से साफ़ प्रतीत होता है कि उन्हें रंग लगाया जाना पसंद नहीं आया। भाभो अपने हाथ से रंग पोंछ डालती है। उस समय वैधव्य कितना बड़ा अभिशाप था, इस एक घटना से समझा जा सकता है।
होली के अवसर पर ही हवेली में होली का उत्सव मनाया जाता है। हवेली में ही करसनदास की मुलाक़ात अपनी मंगेतर किशोरी से होती है, जबकि वास्तविक जीवन में वह पहले से ही शादी-शुदा होता है।
करसनदास किशोरी को रंग लगाने की कोशिश करता है, तो किशोरी उसे रोकते हुए कहती है कि जब तक जेजे यानी जदुनाथ महाराज लला यानी श्रीजी पर रंग लगा के होली नहीं खेलते, तब तक होली नहीं खेल सकते।
करसनदास पूछता है कि ऐसा कहां लिखा है। वह कहती है, “बात-बात पर सबूत! आपका बस चले तो भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण की सही ढूंढेंगे। तुम्हारी श्रद्धा में ही खोट है।”
इस पर करसनदास कहता है, “और तुम्हारे प्यार में।” वह कहता है, “मंगेतर हूं तुम्हारा। तुम्हें रंग लगाने का पहला हक़ मेरा होता है।” इस पर किशोरी कहती है, “महाराज मंगेतर से ऊपर होते हैं और धर्म प्यार से। पाप लगेगा मुझे और अगले जनम में मुझे रंग नहीं दिखे तो?”
किशोरी की बातों से साफ़ है कि उसका अपना कोई सोच नहीं है। धार्मिक माहौल में धर्म के नाम पर जो भी कहा गया है, उसे ही उसने अपना विश्वास बना लिया है।
जब करसनदास पूछता है, “तुझे लगता है कि ऐसा हो सकता है?” तो किशोरी कहती है, “बिल्कुल, जेजे ने प्रवचन में कहा था।” करसनदास कहता है, “जेजे जो कहता है, क्या वह सब सही होता है?”
इस पर किशोरी कहती है, “पत्थर की लकीर। भगवान कृष्ण के वंशज हैं महाराज। तभी तो उन्हें जेजे कहते हैं। झूठ से कोसों दूर होते हैं वो।”
किशोरी का इस बात में विश्वास करना कि जेजे भगवान कृष्ण के वंशज है, बताता है कि उसके लिए विवेकपूर्ण ढंग से सोचने के सारे दरवाज़े बंद हो चुके हैं।
फिर भी करसनदास जवाब देता है, “भगवान से सीधा नाता होता है, किशोरी। बीच में किसी जेजे की जगह नहीं होती।”
किशोरी यह सुनते ही कि जेजे आ रहे हैं, करसनदास से छिटककर अलग हो जाती है और उसकी तरफ देखकर उत्साह से कहती हुई “जेजे आ रहे हैं”, दौड़ते हुए वहां से चली जाती है।
इसके बाद के दृश्य में श्रीनाथ जी को दूध से नहलाने का दृश्य आता है, उसके बाद उनके वस्त्र धारण और शृंगार का। उनका स्नान और शृंगार पुरुष कराते हैं।
इसके समानांतर जेजे को भी नहलाया जाता है, वस्त्राभूषण पहनाये जाते हैं, लेकिन श्रीजी के विपरीत ये काम युवा स्त्रियां करती हैं। इसके साथ-साथ संस्कृत में मंत्र गाये जाते हैं।
यह पूरा दृश्य दरअसल यह प्रभाव पैदा करने के लिए है कि पुष्टिमार्ग में श्रीनाथ जी यानी भगवान और महाराज में कुछ भी अंतर नहीं है। दोनों का वैभव उनकी धार्मिक शक्ति का द्योतक है।
भव्य वस्त्राभूषण के साथ सुशोभित होते हुए जदुनाथ महाराज बाहर आते हैं। उनके दर्शन के लिए हज़ारों की संख्या में लोग पंक्तिबद्ध खड़े हैं और उनकी जय-जयकार कर रहे हैं।
सीढ़ियां उतरते हुए वे नीचे आते हैं। सीढ़ियों पर युवा स्त्रियां आरती की थाली लिये खड़ी हैं। जैसे ही सीढ़ियां समाप्त होती हैं, लोग दंडवत होकर वहां लेट जाते हैं और अपने दोनों हाथ आगे फैला देते हैं।
जदुनाथ महाराज उन हाथों की हथेलियों पर पांव रखते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। जदुनाथ उस बड़े आंगन में आते हैं और फिर एक बड़े थाल मे से गुलाल लेके श्रीजी की प्रतिमा पर डाल देते हैं।
इसके बाद जदुनाथ महाराज सिंहासन पर बैठ जाते हैं और वहां एकत्र भक्त होली का गीत गाते हुए नृत्य करते हैं। नृत्य के बीच जदुनाथ की नज़र किशोरी पर ही होती है।
वे अपने सिंहासन से उठते हैं और किशोरी के पास जाकर उसके गले के नीचे गुलाल लगा देते हैं। यह इस बात का संकेत है कि किशोरी को महाराज ने चरण सेवा के लिए चुना है।
जदुनाथ महाराज की जय-जयकार होती है। वल्लभाधीश की और लाडले लाल की भी जय-जयकार होती है।
किशोरी अपने सौभाग्य पर चकित हो जाती है। उसके परिवार की ही एक औरत उसे उस कक्ष की ओर ले जाती है, जहां चरण सेवा होनी है।
वह स्त्री प्रफुल्लित होकर किशोरी से कहती है कि इतनी लड़कियों में चरण सेवा का लाभ तुझे मिला है। उतनी ही प्रफुल्लता से किशोरी कहती है, “मुझे तो जीते जी मोक्ष मिल गया, मासी। मासी, मां को कहना कि घर में मीठी लापसी बनाये।”
किशोरी का चरण सेवा के लिए उत्साहित होना और घर वालों का भी पूरा समर्थन यह बताता है कि चरण सेवा को एक धार्मिक कर्त्तव्य मानकर ग्रहण किया जा रहा है।
चरण सेवा वाले कक्ष के बाहर जदुनाथ महाराज का खास सेवक गिरधर खवास खड़ा है। वह किशोरी को देखकर उसे अंदर जाने का इशारा करता है।
किशोरी अंदर जाती है। वह एक भव्य और विशाल शयनकक्ष होता है, जिसकी भव्यता और शान-शौकत देखकर वह चकित-सी हो जाती है। तभी उसकी नज़र जदुनाथ महाराज पर पड़ती है, वह उन्हें प्रणाम करती है।
जेजे केवल रेशमी धोती पहने है। उसका विशाल वक्ष नग्न है। लंबे बाल कंधे पर बिखरे हैं और गले में, बाहों पर, कमर पर आभूषण पहने हुए है। चेहरे पर मुस्कान है।
वह धीमी गति से चलते हुए किशोरी की ओर बढ़ते हैं। किशोरी आगे बढ़कर, झुककर चरण छूती है। जेजे मुसकराते हुए मधुर आवाज़ में कहता है, “चरण सेवा से पहले चरण नहीं छूते।”
जेजे उसका नाम पूछता है, तभी करसनदास की आवाज़ वहां पहुंचती है, “किशोरी।” बाहर करसनदास किशोरी को ढूंढता है। उसे किशोरी की छोटी बहन मिलती है।
वह उससे किशोरी के बारे में पूछता है। वह खुश होकर बताती है कि “करसन भाई, आपको नहीं पता? जेजे ने मोटी बहन को चरण सेवा के लिए चुना है। आज तो घर में मीठी लापसी बनेगी।”
वह उसके सिर पर हाथ फेरता है और चला जाता है। उसकी प्रतिक्रिया से स्पष्ट है कि अभी तक उसे चरण सेवा का वास्तविक अर्थ नहीं मालूम।
गिरधर खवास के पास एक सेठ अपने किशोर वय के बेटे को साथ लेकर आता है। वह उससे पूछता है कि चरण सेवा के दर्शन होंगे? वह ग्यारह रुपये देने की बात कहता है।
सेठ अपने गले से सोने का हार निकाल कर दे देता है। वह उन्हें जाने का इशारा करता है और यह भी कहता है कि झरोखे से देखना चुपचाप। और ध्यान रहे कि लड़के की अभी मूंछे फूटी है। कहीं ऐसा न हो कि सीख लेते-लेते कहीं चीख न निकल जाये। और इस बात पर वे हंस पड़ते हैं।
अंदर जेजे पलंग पर बैठा हुआ है। किशोरी उसकी चरण-पादुका पैरों में से निकालती है। वह किशोरी को अपने पास बैठा लेता है और माथे को चुमता है। किशोरी की पीठ पर हाथ फेरता हुआ जेजे उसकी कंचुकी की डोरी खींच कर खोल देता है।
यह दृश्य बदलता है। करसनदास किशोरी को ढूंढता हुआ गिरधर खवास के पास जाता है और अंदर जाने के लिए कहता है, लेकिन वह उसे यह कहते हुए रोक लेता है कि अंदर चरण सेवा चल रही है। अंदर नहीं जा सकते।
करसनदास कहता है कि अंदर मेरी मंगेतर है। यह सुनकर वह कहता है, मंगेतर है, क्षमा चाहता हूं। तब तो आपको ज़रूर दर्शन करना चाहिए। और उसे भी सेठ की तरह ऊपर भेज देता है। ऊपर जाकर देखता है कि विभिन्न झरोखों से बहुत से पगड़ी बांधे लोग अंदर की तरफ़ देख रहे हैं।
हाथ जोड़कर और सिर नवाकर अंदर के दृश्य को ईश्वर की लीला समझकर उसका आनंद ले रहे हैं। करसनदास को कुछ समझ नहीं आता। वह भी एक झरोखे का दरवाज़ा खोलकर अंदर देखता है।
अंदर एक पलंग पर जेजे और किशोरी अर्धनग्न अवस्था में एक साथ हैं। यह दृश्य देखकर करसनदास चीख पड़ता है, “किशोरी।” करसनदास की आवाज़ सुनकर किशोरी चौंककर बैठ जाती है और उसके मुख से निकलता है, “करसन?”
करसनदास दौड़कर नीचे आता है और गिरधर खवास को धक्का देकर शयनकक्ष में अंदर घुस जाता है। झरोखों से देखने वाले चिल्ला पड़ते हैं, “चरण सेवा में बाधा डाली, तो पाप लगेगा।” “श्वान का अवतार मिलेगा अगले जन्म में। हमारी यात्रा अधूरी रही तुम्हारें कारण।”
लोग चीख-चीखकर वहां से जाने के लिए कहते हैं। करसनदास किशोरी को कहता है, “चरण सेवा के नाम पर ये क्या कर रही थी, किशोरी।…तुमसे ये उम्मीद नहीं थी।” वह धीमी आवाज़ में कहता है, “घर चाल।”
जब किशोरी पर कोई असर नहीं होता तो वह ऊंची आवाज़ में कहता है, “किशोरी घरे चाल।” इस पर जेजे उसे टोकते हुए कहता है, “आवाज़ नीची।… चरण सेवा नहीं, परंपरा है ये। भक्तिरस को शृंगाररस समझ बैठे हो तुम।”
फिर किशोरी को संबोधित करते हुए कहता है, “किशोरी। तुम जाना चाहो तो जा सकती हो।” इस पर नज़रें नीची किये किशोरी करसनदास को कहती है, “आप जाइए, मैं आ जाऊंगी।”
किशोरी के इस उत्तर पर जेजे के चेहरे पर व्यंग्य भरी मुस्कान आ जाती है। वह करसनदास को कहता है, “सुना? वह आ जायेगी। डरो मत।…वैसे भी जूठन हवेली का प्रसाद होता है और प्रसाद रखते नहीं, दे देते हैं।”
जेजे करसनदास की तरफ पान आगे बढ़ाता है। इस पर करसनदास हल्के क्रोध के साथ कहता है, “मुझे जूठन पचती नहीं, न पान की, न सम्मान की।”
यह कहकर वह किशोरी की ओर एक नज़र डालता है और वहां से चला जाता है। जेजे अपनी जीत पर मुस्कराता है। करसनदास को इस घटना से गहरा सदमा पहुंचता है।
दूसरे दिन किशोरी करसन से मिलने के लिए टाउनहाल आती है। किशोरी करसन को चरणसेवा के बारे में अपनी बात कहती है, “हवेली में जो हुआ, वह सेवा थी। नसीब वालों को मिलता है यह अवसर।”
करसन उसकी ओर मुड़कर कहता है, “क्या कहूं मैं। यही कि इस्तेमाल कर रहा है पाखंडी तुम्हें। सही और गलत का भेद जानने में धर्म की नहीं, बुद्धि की ज़रूरत होती है, किशोरी। और कल तुमने साबित कर दिया कि वो तुममें है नहीं। चार सालों से इंतज़ार कर रहा हूं, ताकि तुम पढ़ लिख लो। काबिल बनो। ये पढ़ी तुम? इसे कहती हो श्रद्धा? ये है सेवा?…सिर्फ़ पढ़ी तुम स्कूल में, पचाया कुछ भी नहीं। क्यों मना नहीं किया मांजी को, क्यों छुने दिया जेजे को? वो तुम्हें अपनी जूठन कहे, इसमें तुम्हें गर्व कैसे महसूस हो सकता है, किशोरी। मैं तुम्हारा मंगेतर था, फिर भी तुम मेरा हाथ पकड़ने से डरती थी। और तुम उस आदमी के साथ।”
किशोरी कहती है, “मैं मजबूर थी।” उसकी बात बीच में काटते हुए करसनदास कहता है, “नहीं थी तुम मजबूर। खुशी-खुशी गयी थी तुम सामने से। ताला अंदर से बंद हो और चाबी पास हो, फिर भी वह कैद रहता है, तो वह उसका निर्णय होता है, उसकी मजबूरी नहीं। तुम रिवाजों का पालन कर रही थी, धर्म का नहीं।”
इतना कहकर वह वहां से जाने लगता है। किशोरी गुस्से में कहती है, “इतना गुस्सा क्यों हो रहे हो। मैंने ऐसा क्या कर दिया है। न मैं पहली लड़की हूं, न आख़िरी। और अगर आपकी मां ज़िंदा होती, तो वह भी आपकी बहन को खुशी-खुशी…।”
किशोरी की बात सुनकर करसनदास को गुस्सा आ जाता है और वह “किशोरी!” चिल्लाता हुआ उस पर हाथ उठाता है, लेकिन रुक जाता है। वह धीमे से कहता है, “बाबूजी पंच में जुर्माना भरके सगाई तोड़ देंगे। आज से तुम्हारा-मेरा रिश्ता पूरा।”
किशोरी और करसनदास की इस बातचीत से ज़ाहिर है कि किशोरी चरणसेवा को एक धार्मिक कृत्य मानती है। इसलिए कि वह जेजे को कृष्ण का वंशज मानती है।
किशोरी एक बार फिर जेजे के पास जाती है और उसके चरणों में बैठी रोते हुए कहती है, “सगाई तोड़ दी, जेजे।” वह किशोरी को कंधे से पकड़कर उठाता है। वह कहता है, “जो भी होता है, भले के लिए होता है। ईश्वर की इच्छा से होता है। इन आंसुओं से तुम्हारे पुण्य और निखर गये हैं। आज से तुम हमारी खास हो। तुम हमारी लाड़ली।”
किशोरी को अपने वक्ष से लगाता है। एक बार फिर वह अपने को जेजे को समर्पित कर देती है। लेकिन दूसरे दिन किसी अन्य कक्ष में वे ही बातें उसकी छोटी बहन देवी को कहते हुए जेजे को सुनती है तो उसे करसनदास की बातों की सच्चाई का एहसास होता है। छोटी बहन का हाथ पकड़कर वहां से धकेलकर निकाल देती है।
वह गुस्से और पीड़ा से जेजे की तरफ़ देखकर कहती है, “बहन है वो मेरी। धर्म के नाम पर ठगते हैं आप हमें। कुछ मिनटों के लिए आप फ़ायदा उठाते हैं हमारी भक्ति का। भगवान मानती थी मैं आपको। मामूली इंसान निकले आप। आपने मेरे दिल को ही नहीं तोड़ा, मेरे विश्वास को भी तोड़ा है। गिर गये आप मेरी नज़र से, जेजे। आप भी और मैं खुद भी।”
दोनों बहनें घर आती हैं। वह अपनी छोटी बहन को दुखी मन से कहती है कि बहुत बड़ी गलती कर आयी मैं, जे जे को वह सौंप आयी, जिस पर करसन का हक़ था, मौत के बाद स्वर्ग की इच्छा के बाद जीते जी नरक चुन बैठी मैं।”
वह अपनी बहन देवी को बताती है कि करसन ने आज सगाई तोड़ दी। उसकी बहन कहती है कि जाकर करसन को मना लो। लेकिन वह कहती है कि कैसे मना लूं। जिन आंखों में अपने लिए प्यार दिखता था, उनमें पहली बार घिन देखी है। उनके उसूलों के आगे मेरा पछतावा फीका पड़ जायेगा। मैंने खो दिया है करसन को, हमेशा हमेशा के लिए।
छोटी बहन देवी अपने पल्लू में गांठ बांधकर कहती है “जब तक आपको करसन और उसकी माफ़ी नहीं मिल जाती, तब तक यह गांठ नहीं खुलेगी।”
करसन की अपने मामा-मामी और बड़ी मां से घर में बहस हो रही है। उस पर दबाव डाला जा रहा है कि वह किशोरी से सगाई न तोड़े।
उसके मामा कहते हैं, “तुम अकेले ही अक्लवान हो करसन, हम सब क्या पागल हैं। समाज सुधारक बने फिरते हो ना, इस पर तुम्हारे घर पर क्या बीत रही है, कभी सोचा है तुमने। वो लड़की किशोरी, उसके पिता प्राणजीवन भाई, क्या मुंह दिखायेंगे समाज में। और क्या गलत किया उसने? हां, देती हैं सेवा हवेली में लड़कियां। तुम्हारी मामी ने भी दी थी।”
करसनदास इस पर कहता है, “ये कहने में आपको खुशी नहीं शरम आनी चाहिए मामा। अपनी गलती को मिसाल मत बनाइए।” उसके मामा कहते हैं, “मने शर्म आवे जोइ हां, मने शर्म आवे जोई। स्त्री शिक्षण, घूंघट पर रोक, विधवा पुनर्विवाह, मुझे तो हैरानी है, इस बात की है कि ये घटिया विचार तेरे दिमाग में आते कहां से है।”
इस पर करसनदास कहता है, “और मुझे इस बात की हैरानी है कि ये विचार आपको क्यों नहीं आते। सोचने वालों की दुनिया, दुनिया वालों की सोच से वाकई अलग होती है। सालों से भाभो रह रही है घर में। ये सफेद चोले में, ये बेरंग ज़िंदगी नहीं दिखती आपको।…त्योहारों में इनकी ख़ामोश उदासी क्यों नहीं परेशान करती आपको।”
करसन कहता है कि “अगर बरसों पहले इनका पुनर्विवाह करवा दिया गया होता…।” इस बात पर मामा उसे थप्पड़ मार देते हैं और उसको बोलने से रोक देते हैं। मामी कहती है, “चुपचाप किशोरी से लगन कर ले।”
करसन कहता है, “वो तो अब मैं नहीं करूंगा।” भाभो भी उसकी बात से बहुत विचलित हो जाती है और करसन से कहती है कि वो अभी इसी समय घर से निकल जाए।
करसन भाभो की तरफ देखता है और तेज कदमों से चलता हुआ घर से निकल जाता है। विधवा विवाह का समर्थन करने के कारण ही करसनदास को अपने घर से निकाला गया था। फ़िल्म में इसके साथ चरणसेवा को भी जोड़ दिया गया है।
जेजे के पास श्यामजी दामोदर नामक एक युवक अपनी बहन लीलावती को लेकर आता है, जिसके साथ द्वारका में जेजे ने चरणसेवा ली थी। अब वह गर्भवती है। वह अपनी बहन की इज्जत बचाने के लिए जेजे से प्रार्थना करता है।
जेजे अस्पताल जाकर गर्भपात कराने की सलाह देता है। लेकिन लीलावती जो अभी भी जेजे के प्रति अंधभक्ति में डूबी है, गर्भपात से इन्कार कर देती है।
इस पर प्रसाद के नाम पर जेजे लीलावती को धतूरे के बीज का लड्डू खिला देता है। उसकी बहन की तबीयत खराब होने लगती है। अपनी बहन को लेकर श्याम जी सड़क पर बैठा मदद के लिए चिल्ला रहा है।
उधर से करसनदास गुजरता है। वह सारी बात समझकर कहता है कि मैं तुम्हें दवाखाना ले चलता हूं। वह वाहन की तलाश में थोड़ा आगे जाता है। एक हाथगाड़ी लेकर जब लौटता है तो वहां न श्यामजी होता है और न लीलावती।
वह इधर-उधर खोजता है, लेकिन दोनों कहीं नहीं दिखायी देते। तभी उधर से लालवान जी महाराज गुजरते हैं। करसनदास श्यामजी और उसकी बहन के बारे में उनसे पूछता है।
इस पर लालवान जी कहते हैं, “वैसे तो अब तक कितने लोगों को हवेली निगल चुकी है, करसनदास। आदमखोर बन चुकी है। जिन्हें बचाना है, उन्हीं का भोग लेती है।”
इस पर करसनदास कहता है, “जब आपको पता है, तो आप और दूसरे महाराज कुछ करते क्यों नहीं?” इस पर लालवानी जी कहते हैं, “जदुनाथ महाराज की आभा, उनके कारण हवेली में धन आया है। संप्रदाय देश के कोने-कोने में फैला है। लाखों लोग जुड़ चुके इस पंथ में। चेहरा बन गये हैं हवेली का और अब उनकी ताकत इतना ऊंचा बोलती है कि उसके सामने हमारी समझ को चुप रहना पड़ता है। हवेली में रहकर हम जो नहीं कर सके, उसे बाहर से तुम करो करसनदास। समाज की बदियों के बारे में तो लिखते ही हो, अब इसके बारे में भी लिखो।”
लालवानी महाराज ने जेजे के बारे में जो कहा है, वह बात हर भ्रष्ट सत्ता पर लागू होती है। जेजे को ताकत न धर्म से मिली है, न चमत्कार से। धर्म के आवरण में एक भ्रष्ट व्यवस्था जेजे ने बना ली है और लोगों की अंधभक्ति का लाभ उठाकर वह अपनी सत्ता का विस्तार करता है।
यह संयोग नहीं है कि जेजे के काम करने का ढंग, उसके द्वारा निर्मित की गयी व्यवस्था और उसका अनैतिक आचरण वर्तमान राजसत्ताओं से कुछ भिन्न नहीं है। नरेंद्र मोदी के प्रति अंधभक्ति अपने मूल में उसी तरह की है, जिस तरह की जेजे के प्रति वैष्णव भक्तों की थीं।
इसी अंधभक्ति ने नरेंद्र मोदी को यह कहने का साहस दिया कि मेरा बायोलोजिक जन्म नहीं हुआ यानी वे अवतार हैं। इसीलिए कोई उन्हें विष्णु का अवतार कहता है, तो कोई कृष्ण का।
करसनदास लालवानजी महाराज से कहता है, “मैं मामूली भक्त हूं लालवान जी महाराज। जब आप सवाल नहीं पूछ सकते, तो मैं क्या?”
इस पर लालवानी जी महाराज कहते हैं, “सवाल न पूछे वो भक्त अधूरा और जो जबाव न दे सके वो धर्म। जो हक का है, वह न मिले तो लड़ो उसके लिए।”
इस पर करसनदास कहता है, “लड़ाई! मैं क्षत्रिय नहीं हूं।” लालवानजी कहते हैं, “जन्म से नहीं हो, तो कर्म से बनो। धर्म से ज्यादा हिंसक वैसे भी कोई युद्ध नहीं है।”
लालवान जी का यह कथन धर्म के दायरे के बाहर का है। धर्म में आस्था पर बल दिया जाता है, न कि सवाल-जवाब पर। अगर वैष्णव इस बात में यकीन करते हैं कि महाराज कृष्ण के वंशज है, तो यह तर्क की नहीं, विश्वास की बात है। विश्वास की नहीं, अंधविश्वास की बात है।
अगर चरणसेवा भक्ति है, तो इसका अर्थ यह है कि भक्ति और विकृति के बीच के भेद का ज्ञान भक्तों को नहीं है। लेकिन लालवानजी का धर्म को एक हिंसक युद्ध बताना एक संस्था के रूप में धर्म की बहुत कठोर आलोचना है।
यह धर्म के दायरे में आने वाली हर बात और हर विश्वास के आगे प्रश्नचिह्न लगाता है। लालवानजी के मुख से धर्म की इस आलोचना में किसी धर्म विशेष का नाम नहीं लिया गया है, बल्कि एक संस्था के रूप में धर्म का नाम लिया गया है।
लालवानजी महाराज से हुई बातचीत ने करसनदास को इस बात के लिए प्रेरित किया कि हवेलियों (मंदिरों) में चलने वाले अनैतिक आचरण को लोगों के सामने लाया जाय। करसनदास और दादाभाई नौरोजी की बातचीत भी इस दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है।
करसनदास नौरोजी को दुख और गुस्से के साथ कहता है, “ये सब लोगों के सामने लाना जरूरी है, नौरोजी भाई। जो हवेली में हो रहा है वह गैरकानूनी है।”
यहां अनैतिक कहने से बचा गया है, जबकि महाराज का पूरा आचरण अनैतिक भी है। नौरोजी समझाने की मुद्रा में उत्तर देते हैं, “इतना आसान नहीं है, करसन। लालवानजी महाराज कुछ नहीं कह पाते। तब मेरा तुम्हारा खड़ा रह पाना कितना मुश्किल होगा। छोटी बातों पर वक्त मत गंवाओ। हमारा काम है देश को साफ करना। तुम उस पर ध्यान दो।”
करसनदास कहता है, “देश को साफ करने में सब जुट जायेंगे तो घर को कौन साफ करेगा?’ दादा भाई नौरोजी किशोरी के प्रसंग का उदाहरण देकर समाज सुधार के कार्य के विभिन्न चरणों का उल्लेख करते हैं।
नौरोजी कहते हैं, “करसन समाज सुधार के तीन हिस्से होते हैं, पहला इंसान को अपनी गलती का एहसास दिलाना।रियलाइजेशन। फिर उस गलती को सुधारना रिफोर्मेशन और फिर उसको समाज में वापस शामिल करना। रिहेबिलिटेशन। तुमने किशोरी को उसकी गलती तो दिखायी, लेकिन उसे सुधरने का मौका नहीं दिया। सुधारों की शुरुआत तुमसे होनी चाहिए थी।”
करसनदास अपनी गलती का एहसास करता है, लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है। किशोरी आत्महत्या कर लेती है। किशोरी करसनदास के नाम एक चिट्ठी छोड़ जाती है, जिसमें उसने लिखा था. . .
“अंधी हो गयी थी मैं। इस हद तक कि इंसान और भगवान के बीच का भेद न जान सकी। आज जब आंखें खुली, तो आपसे आंखें मिलाने के लायक ही नहीं रही। जीते-जी न दे पायी उस पछतावे का सबूत, मर के दे रही हूं। शायद आपको विश्वास हो जाये कि मैं कितनी शर्मिंदा थी। दुल्हन न बन सकी, लड़ाई का कारण जरूर बनाना। जेजे का असली चेहरा समाज के सामने लाना करसन। वो ही मोक्ष होगा मेरा।”
किशोरी की आत्महत्या ने करसनदास को हिला दिया था। वह हवेली में जाकर जेजे को चुनौती देकर आता है और करसनदास कहता है, “कोई बोले न बोले, अब मैं बोलूंगा भी, पूछूंगा भी और आपके खिलाफ लेख छापूंगा भी।”
जदुनाथ कहता है, “आज का अखबार कल की रद्दी होता है, करसनदास। सनातन सिर्फ धर्म होता है।”
करसनदास कहता है, “शब्दों की ताकत का अंदाजा नहीं है आपको।” जेजे कहता है, “और तुम्हें धर्म की ताकत का।” इस तरह यह फ़िल्म धर्मसत्ता और लोकसत्ता के बीच संघर्ष को छुती हुई चलती है।
करसनदास एक गुजराती अखबार ‘सत्य प्रकाश’ निकालने का फैसला करता है, जिसे दादाभाई नौरोजी, गोकुलदास तेजपाल और आर्देशिर सोहराबजी भी समर्थन करते हैं। पत्र निकलना शुरू हो जाता है।
उद्घाटन के मौके पर भाभो की एक लाइन की चिट्ठी मिलती है — “सवाल पूछने से कभी मत झिझकना।” ‘सत्यप्रकाश’ का पहला अंक छप जाता है, जिसमें जदुनाथ महाराज की करतूतों के बारे में करसनदास का लेख भी है। इस डर से कि कोई हमला न करे, उसे रात के समय छुपते-छुपाते तांगे में भेजा जाता है।
लेकिन जैसी आशंका होती है, तांगे पर हमला होता है और अखबार की सारी प्रतियों को लूटकर जला दिया जाता है। प्रतियां हवेली में जदुनाथ के सामने जलायी जाती है।
‘सत्यप्रकाश’ के असर को कम करने के लिए जदुनाथ हवेली के मुखिया को आदेश देता है कि कल से कोई भी हवेली दर्शन के लिए नहीं खुलेगी।
लालवानी महाराज कहते हैं कि आप जानते हैं कि बिना दर्शन के लोग तो निवाला भी नहीं निगलते। जेजे कहता है, “जानता हूं इसीलिए तो। अब भक्तों की भूख उसे विवश करेगी, क्षमा मांगने के लिए। वह हाथ जोड़ के, गिड़गिड़ा के क्षमा मांग ले तो द्वार खुल जायेंगे। तब तक हमारे श्रीजी महाराज हड़ताल पर है।”
हवेलियों के पाठक बंद कर दिये जाते हैं। बाहर सूचना लिख दी जाती है कि करसनदास मूलजी, जिसने हवेली और संप्रदाय का अपमान किया है, जब तक माफी नहीं मांगता, तब तक हवेली में वैष्णवों का प्रवेश बंद रहेगा। सुबह हवेली जब बंद होती है, तो लोग उत्तेजित हो जाते हैं।
करसनदास पर दबाव डालते हैं कि वह जदुनाथ महाराज से माफी मांगे। लेकिन करसनदास श्रीनाथजी की एक बड़ी सी तस्वीर हवेली के बाहर लाकर एक पेड़ के नीचे रख देता है और लोगों का आह्वान करता है कि श्रीजी के लिए हवेली में जाने की क्या जरूरत, ये भी तो श्री जी हैं। इनके दर्शन करके भी भोजन किया जा सकता है।
लालवानजी महाराज जो आरती हवेली में होती है, वही आरती उस तस्वीर की करते हैं और इस तरह करसनदास लोगों के सहयोग से जदुनाथ महाराज के इरादे को निष्फल कर देता है। करसनदास के इस आंदोलन की खबर बहुत से अखबारों में छपती है और उसकी बात दूर-दूर तक फैल जाती है।
‘सत्यप्रकाश’ का पहला अंक जो जदुनाथ महाराज ने जलवा दिया था। उसके दोबारा प्रकाशित करने की तैयारी होने लगती है। विराज नाम की एक युवा स्त्री उसके प्रेस में पहुंचती है, जो हवेली के बाहर की जा रही पूजा में शामिल थी, उसके साथ काम करने की इच्छा व्यक्त करती है।
करसनदास उसे अपने साथ काम करने की इजाजत दे देता है। जदुनाथ महाराज के हवेली के दरवाजे बंद करने की चाल कामयाब नहीं होती है, तो वह वडाल से करसनदास के पिता मूलजी को बुलाकर धमकाता है।
वह कहता है कि तुम दूर वडाल में रहते हो, इसलिए तुम तक ‘सत्य प्रकाश’ नहीं पहुंचा है। बेटे की करतूतों की बहुत चर्चे हैं यहां पर। समाज के संतुलन की जिम्मेदारी है हमारे पर। कोई उसे बिगाड़ेगा, तो सजा देनी पड़ेगी। नहीं तो हर कोई ऐरा गेरा हवेली को पीकदान समझकर थूकता फिरेगा। वैसे तो बड़े जीवदया रखते है हम, लेकिन महामारी का डर हो, तो चूहे को मारना पुण्य का काम हो जाता है।”
जेजे की सारी बात दरअसल एक तरह की धमकी थी। करसनदास के पिता पर इसका असर भी पड़ता है। करसनदास के पिता मूलजी एक पत्र लेकर करसनदास के पास जाता है और करसनदास को यह कहकर देता है कि इसे ‘सत्य प्रकाश’ में छपवाना है।
उस पत्र में मूलजी घोषणा करते हैं कि ‘मैं मूलजी जीवराज अपने पुत्र करसनदास से हर तरह का नाता तोड़ता हूं। मेरे नाम, संपत्ति या अंतिम संस्कार पर उसका कोई हक नहीं होगा। उसके व्यवहार और लेखन से न मेरा कोई वास्ता था, न है और न रहेगा।’
करसनदास कहता है, लिखाई तो आपकी है, पता नहीं क्यों सुनाई दे रहा है जदुनाथ महाराज। मूलजी अपने बेटे को समझाने की कोशिश करते हैं, लेकिन वह माफी मांगने के लिए तैयार नहीं होता। चिट्ठी विराज को देते हुए करसनदास कहता है कि इसे अगले अंक में छाप देना।
जब ‘सत्यप्रकाश’ दूसरी बार छपता है, तो वह लोगों तक पहुंचे, इसके लिए अखबार के बंडल सब्जी की टोकरियों के नीचे और कावड़ में रखकर सब जगह पहुंचाया जाता है। इस तरह ‘सत्य प्रकाश’ लोगों तक पहुंचता है और लोग बड़ी उत्सुकता से उसे पढ़ते हैं।
‘सत्यप्रकाश’ में प्रकाशित लेख का असर होने लगता है। चरणसेवा के लिए जेजे एक लड़की पर हाथ रखते हैं, तो उसकी मां यह कहकर इंकार कर देती है कि उसकी तबीयत ठीक नहीं है।
जदुनाथ के प्रति भक्ति को कम होता देख उसका विश्वसनीय सेवक गिरधर खवास कहता है कि आप कहें तो करसन को रातों-रात उठवा दूं, तो जदुनाथ कहता है कि अगर अब करसनदास को कुछ हुआ, तो अंगुलियां सीधी हम पर उठेंगी।
वह कहता है कि जिसे धर्म चुप नहीं करा सका, उसे अब न्याय चुप करायेगा। वह करसनदास के विरुद्ध पचास हजार का मानहानि का केस दायर कर देता है।
मानहानि का नोटिस देखकर उसका दोस्त आर्देशिर कहता है कि कभी सोचा नहीं था कि हवेली कोर्ट का दरवाजा खटखटायेगी। करसनदास अपने मित्र आर्देशिर सोहराबजी को कहता है, “स्कूल का हेडमास्टर, साठ रुपये पगार, घर, गांव का घर, ज़मीन सब बेचकर पांच हजार भी इकट्ठा नहीं कर पाऊंगा। जब मेरे पास खोने को कुछ है ही नहीं तो डर कैसा। हारे तो ज्यादा से ज्यादा क्या होगा।”
उसका दोस्त कहता है, “जेल।” करसनदास कहता है, “होने दीजिए। वहां बैठकर लिखूंगा। समस्या यह है कि हमें कोर्ट जाना है। और अदालत सबूत मांगती है, जो हमारे पास न है और न कभी होंगे। कौन जाने देगा अपनी बीबी-बेटी को कठघरे में यह बताने कि महाराज ने उनका जबर्दस्ती फायदा उठाया है। कहां से मिलेंगे गवाह, जो जेजे के सामने गवाही दे।
गोकुलदास तेजपाल भाटिया समुदाय के कुछ लोगों को लेकर आता है और कहता है कि ये लोग देंगे जेजे के खिलाफ गवाही। लेकिन बाद में वे पीछे हट जाते हैं। भाटियाओं का इस तरह पीछे हटना भी कोर्ट में एक स्वतंत्र दर्ज हो जाता है।
फ़िल्म में इस मामले का उल्लेख भर है, लेकिन वास्तव में ‘भाटिया कोंसपीरिसी केस’ में भी जुर्माना लगाया गया था।
हवेलियों के महाराजाओं की बैठक होती है, जिसमें लालवानजी महाराज कहते हैं कि “आज तक संप्रदाय का कोई भी महाराज अदालत की सीढ़ियां नहीं चढ़ा है। आप भी न चढ़ो, यही हम सबका निवेदन है। जदुनाथ महाराज को भी नहीं जाना चाहिए।”
इस पर जदुनाथ महाराज कहते हैं, “तो आप सब चाहते हैं कि हम क्या करें। क्षमा मांग लें उस करसनदास से?
मानहानि का दावा वापस खींच लें और स्वीकार कर लें कि हवेली वर्षों से भक्तों का शोषण करती आ रही है। छुपकर काम वो करता है, जिसके मन में भय है और हमें किसी बात की, किसी व्यक्ति का कोई भय नहीं। भक्तों पर धाक जमानी आवश्यक है, क्योंकि धर्म का पालन डर से करवाना पड़ता है। हमारे पूर्वजों की वर्षों की तपस्या है। हम इसे व्यर्थ नहीं जाने दे सकते।
हम महाराज जदुनाथ, चेहरा है संप्रदाय का। अकूत धन लाये हैं हम इस हवेली में। हम जायेंगे अदालत और उस दास को ऐसा सबक सिखायेंगे कि उसके बाद कोई करसनदास हवेली की तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखेगा।”
जदुनाथ को अपनी ताकत पर पूरा भरोसा है। उधर ‘सत्य प्रकाश’ के कार्यालय को जला दिया जाता है। करसनदास लगातार होने वाली घटनाओं से निराश होने लगता है। विराज से कहता है, “किसके लिए लड़ रहा हूं मैं। जिनके लिए लड़ रहा हूं, वे ही दुश्मन बने बैठे हैं।”
विराज कहती है, “उन औरतों के लिए, जिनके गले में एक चीख अटकी पड़ी है। वह कहती है कि उन औरतों की सोचिए, जिनके पति ही चरण सेवा के लिए उन्हें हवेली ले जाते हैं। जब मैं सोलह साल की थी, तब मेरे मां-बापु चरण सेवा के लिए हवेली ले गये थे। बच्ची थी मैं, कुछ समझती नहीं थी, लेकिन इतना जरूर समझ गयी कि जो हो रहा है वह अजीब है, गंदा है और मैं वहां से भाग आयी और फिर कभी हवेली के पिछले दरवाजे की तरफ नहीं गयी।”
वह करसनदास को कहती है, “जेजे जैसे लोग नये विचारों के दुश्मन होते हैं। अगर आप हारे, तो भी आपके विचारों की जीत होगी।ये केस तो बहुत छोटा है, हमारी लड़ाई तो इससे बहुत बड़ी है।”
जेजे की पत्नी की मदद से लीलावती का पता लग जाता है। वह और उसका भाई गवाही देने के लिए तैयार हो जाते हैं। करसनदास उन्हें सुरक्षित जगह पर छुपा देते हैं। लेकिन मुकदमा शुरू होने से एक-दो दिन पहले ही जेजे उन्हें उठवा लेता है और लीलावती की शादी गिरधर खवास से करा दी जाती है।
उसका भाई गायब कर दिया जाता है, जिसका अंत तक पता नहीं लगता। लीलावती की शादी की खबर स्वयं जेजे करसनदास को बुलाकर देता है और एकबार फिर माफी मांगने के लिए कहता है। लेकिन करसनदास किसी भी कीमत पर झुकने के लिए तैयार नहीं होता।
बॉम्बे सुप्रीम कोर्ट के बाहर जेजे के भक्तों की अपार भीड़ लगी होती है। जिस रास्ते से जेजे को गुजरना है, उस रास्ते पर भक्तों ने जगह-जगह रंगोली बनायी हुई है।
जेजे चार घोड़ो वाले रथ पर शान से वहां पहुंचता है, तो लोग जदुनाथ महाराज की जय-जयकार कर उसका स्वागत करते हैं। जेजे रथ से उतरता है। उसके पांव ज़मीन पर पड़ने से पहले ही भक्त अपने हाथ आगे कर देते हैं।
जेजे उन हाथों पर पांव रखता हुआ आगे बढ़ जाता है। कोर्ट की पहली मंजिल पर खड़े दो जज जदुनाथ महाराज के इस भव्य आगमन को देखकर उनमें से एक जज कहते हैं, मैंने अब तक दो सौ मुकदमों का फैसला सुनाया है, लेकिन ऐसा नज़ारा कभी नहीं देखा। धर्म इन्हें आपस में जोड़े रखता है।
इस पर दूसरा जज कहता है, और धर्म ही इन्हें आपस में बांटता भी है। कोर्ट में बैठने के लिए जदुनाथ महाराज अपना एक राजसी सिंहासन साथ लेकर आते हैं।
महाराज लाइबेल केस 12047 शुरू होता है। यही इतिहास का प्रसिद्ध मुकदमा है। बचाव पक्ष का वकील जदुनाथ महाराज को गवाही के लिए विटनेस बॉक्स में बुलाता है। लेकिन जदुनाथ महाराज वहीं बैठा रहता है।
कहता है, हम कहां भागे जा रहे हैं। यहीं विराजमान है। जो पूछना है, पूछिए। हम यहीं से उतर देंगे। फिर गवाही से पहले शपथ दिलाने के लिए गीता लायी जाती है। लेकिन शपथ खाने की बजाय जेजे गीता को अपने सेवक की ओर बढ़ा देता है।
वकील कहता है कि भेंट-चढ़ावे की आदत पड़ गयी है, जेजे। यह कोई गिफ्ट नहीं है, यह गीता है, इस पर हाथ रखकर कसम खाइये कि जो भी कहेंगे सच कहेंगे, सच के सिवा कुछ नहीं कहेंगे।
इस पर जेजे कहता है, “महाराज कसमें नहीं खाते, महाराज के नाम की कसमें खाई जाती है। महाराज सच नहीं कहते, वो जो कहते हैं, वही सच होता है।”
बीच-बीच में जदुनाथ महाराज की जै-जैकार भी होती है। बचाव पक्ष का वकील डॉक्टर भाउजी लाड को बुलाता है। डॉक्टर बताता है कि मैं सभी हवेलियों के महाराजों का निजी डॉक्टर हूं। वह यह भी बताता है कि मैंने जदुनाथ महाराज का भी इलाज किया है।
यह पूछे जाने पर कि किस बीमारी का इलाज किया है,तो डॉक्टर लाड बताते हैं कि चांदी के रोग का, जो एक गुप्त रोग है, जिसे सिफलिस का रोग भी कहते हैं। एक से ज्यादा पार्टनर के साथ बार-बार संभोग यानी इंटरकोर्स करने से यह रोग होता है। मैंने दवाई के साथ-साथ पर-स्त्री के साथ संभोग न करने की सलाह भी दी। जेजे ने मुझे कुछ लोगों को एबार्शन की दवाई के लिए भेजा था, क्योंकि धतूरे के बीज के लड्डू हर बार काम नहीं आते।
जेजे यह मानने से इन्कार करता है कि उसे किसी तरह का गुप्त रोग है, लेकिन डॉक्टर की यह गवाही फैसले में महत्वपूर्ण साबित होती है।
इसके बाद जेजे का सेवक गिरिधर खवास को गवाह के कटघरे में बुलाया जाता है। वकील उससे पूछता है कि सुना है कि कल रात तुम्हारी शादी लीलावती नाम की लड़की से चुपचाप करवा दी गयी और तुमने कर भी ली।
तो वह जबाव देता है कि नहीं, लीलावती से मेरी शादी आठ महीने पहले हो गयी थी, जब मैं जेजे के साथ द्वारका गया था। उसके पेट में मेरा ही बच्चा है, सात महीने का। मैं ही उस बच्चे का बाप हूं। कसम से।
बचाव पक्ष का वकील कहता है, “तुम बार-बार इस बात पर जोर इसलिए दे रहे हो, क्योंकि ये बच्चा तुम्हारा नहीं, जेजे का है। यह उसकी जूठन है, जिसे तुम प्रसाद मानकर अपना रहे हो, कि दरअसल लीलावती का रेप किया गया था, जेजे द्वारा। उसका गर्भ गिराने के लिए उसे धतूरे के बीज वाले लड्डू खिलाये गये।
करसनदास ने लीलावती और उसके भाई को महाबलेश्वर में पनाह दी थी लेकिन जेजे ने उन्हें उठवा लिया था। श्यामजी को गायब किया गया और रातों रात लीलावती की शादी गिरधर खवास से करवा दी गयी, ताकि दोनों में से गवाही कोई न दे सके। यह पूरा मामला मानहानि का नहीं, रेप का, हत्या करने की कोशिश का और सबूतों के साथ छेड़खानी का है।”
यह सुनकर जदुनाथ महाराज धमकी भरे स्वर में कहता है, “यह भीड़ हमारे कहने पे चुप है। जितने यहां है, उससे दस-बीस गुना प्रांगण और रास्ते पर खड़े हैं। भावुक भक्त हैं। वे एक हद से ज्यादा अपमान सह नहीं पायेंगे। गुस्से में कुछ दंगे और खुन-खराबा हुआ, तो उसके जिम्मेदार हम नहीं होंगे, नामदार।” जाहिर है कि इस धमकी और बाहर खड़ी भीड़ द्वारा जेजे कोर्ट को प्रभावित करना चाहता है।
इसके बाद गवाही के लिए करसनदास मूलजी को कठघरे में बुलाया जाता है। करसनदास की गवाही कई अर्थों में महत्त्वपूर्ण होती है। मुख्य रूप से चरण सेवा के नाम पर क्या होता है, इसे वह बताता है। लेकिन जेजे उसकी धार्मिक व्याख्या करने की कोशिश करता है।
बचाव पक्ष का वकील पूछता है, “ये चरण सेवा के दर्शन किसे कहते हैं, करसनदास।” करसनदास उत्तर देता है, “पर-स्त्री के साथ महाराज के संभोग के दर्शन को चरण सेवा कहते हैं।” वकील कहता है, ‘यू मीन इंटरकोर्स। हवेली के अंदर।”
करसन कहता है, “जी। भक्त पैसे देकर यह व्यभिचार देखने का लाभ भी ले सकता है।” बीच में बोलते हुए जेजे कहता है, “हे वल्लभाधीश। हे गिरिराज धरण। इन्हें क्षमा करना प्रभु कि ये नहीं जानते कि ये क्या कह रहे हैं। भक्तों को चरण सेवा दिखाकर उन्हें मोक्ष का अनुभव कराना हमारा कर्त्तव्य है। सौभाग्य है हमारा। बरसों से चली आ रही प्रथा है।”
इस पर करसनदास कहता है, “प्रथा का पुराना होना नहीं, सही होना जरूरी है।” जेजे कहता है, “अगर गलत होती प्रथा, तो हवेली में इसके पद नहीं गाये जाते।”
हिंदू पुराणों में ऐसी बहुत-सी कथाएं आती हैं, जिन्हें आसानी से अश्लील कहा जा सकता है। लेकिन उनकी ऐसी धार्मिक व्याख्या की जाती है, जिस पर अंधभक्त बिना सोचे-विचारे यकीन कर लेते हैं।
महाराज का वकील बेली करसनदास की गवाही से यह साबित करना चाहता है कि जदुनाथ महाराज के प्रति व्यक्तिगत द्वेष के कारण करसनदास ने उनके विरुद्ध लेख लिखा है, किसी-न-किसी स्वार्थ या लोभ-लालच के लिए।
करसनदास कहता है, “न मुझे धन की लालसा है, न कीर्ति की इच्छा। जन्म से वैष्णव हूं, कर्म से ब्राह्मण, स्वभाव से क्षत्रिय हूं और ध्येय है मेरा शूद्र बनना। इसलिए जहां भी गंदगी देखता हूं, उसे साफ करने की कोशिश करता हूं। आप ही सोचिए। क्या मिलेगा मुझे यह केस लड़कर, या लेख लिखकर। पचास हजार रुपये मेरे पास न थे, न कभी होंगे। नामदार, इन दिनों मैंने धर्म संबंधी कितनी ही पुस्तकें पढ़ीं, सत्संग किये। इस धर्म और इस संप्रदाय के लिए मेरे मन में जो इज्जत थी, आज उससे कहीं ज्यादा है। और गुस्सा है हर उस व्यक्ति पर, जो अपने फायदे के लिए उसकी गरिमा और अस्मिता को ठेस पहुंचाता है। ब्रह्मसंबंध देते वक्त जो श्लोक बोला जाता है श्री कृष्ण आप मेरे रक्षण कर्ता है। मैं मेरा तन, मन, धन, मेरा पूरा संसार आपको अर्पण करता हूं। कृष्ण मैं आपका दास हूं।”
करसनदास जदुनाथ से पूछता है कि यही अर्थ होता है न महाराज। जदुनाथ हामी भरता है। करसन दास जब पूछता है कि हवेली में इसका क्या अर्थ लिया जाता है, तो जेजे बताता है, “जिस स्त्री से विवाह हुआ हो, उसे छूने से पहले महाराज को सौंप दो।”
इस पर करसनदास कहता है, “पूरे श्लोक में से तन, मन, धन, संसार छोड़कर उन्होंने भार्या, स्त्री शब्द पकड़ लिया।” करसनदास आगे प्रश्न करता है कि “कौन से वेद में, कौन से पुराण में, कौन से शास्त्र में लिखा है कि पत्नी को पहले महाराज छुयेंगे, फिर पति। एक नहीं, ऐसे दसियों उदाहरण है, जहां अर्थ का अनर्थ किया गया है। वेद, पुराण संस्कृत में है। हर कोई पढ़ नहीं पाता। तो उसे सिर्फ और सिर्फ ट्रांसलेट कीजिए ना, ट्रांसक्रिएट क्यों करते हैं। दांत खाने के अलग, दिखाने के अलग हाथी के हो सकते हैं, सारथि के नहीं।”
इस पर जदुनाथ कहता है, “जमाने के हिसाब से बदले हुए अर्थ बताने की जिम्मेदारी हम महाराजों की होती है।” करसनदास प्रतिप्रश्न करता है, “कौन तय करता है कि आप इस लायक भी है या नहीं। कौन देता है आपको ये सत्ता।”
इस पर जेजे पूरे बल के साथ कहता है, “भक्त देते हैं हमें ये सत्ता। वो चढ़ाते हैं चढ़ावा। वो मांगते हैं प्रवचन। औरतें खुद चलकर आती है सेवा देने।”
करसनदास कहता है, “तो क्या। सामने से आती हैं तो क्या। वो अनपढ़ हैं, आप तो ज्ञानी हैं ना। उनके गुरु हैं आप। आप मना भी कर सकते थे, जेजे, पर आपने नहीं किया। क्योंकि आपकी भी वासना थी। जो दिशाहीन हो, उसे दिशा दिखाता है गुरु। और गुरु ही राह भटक जाये तो? जहां सत्ता होती है, वहां शोषण होता है। ये महाराज जायेंगे, तो दूसरे आयेंगे। नये नियम बनायेंगे। वो समझें या न समझें, मुझे तो भटके हुए लोगों को समझाना है। मैं पहले दिन से एक ही बात कह रहा हूं। मेरी लड़ाई न हवेली के खिलाफ है, न किसी संप्रदाय के। मैं आज भी बड़े दिल से माथा टेकता हूं हवेली की चौखट पर। गर्व है मुझे वैष्णव होने का, आइ कंटिन्यू टु बि ए प्राउड एंड डिवाउट वैष्णव, माइ लॉर्ड। जेजे के खिलाफ कोई व्यक्तिगत बैर नहीं है मेरा। क्योंकि गलत आदमी को नहीं, उसकी गलती को मिटाना है। उस गलती को, जिसका हिस्सा हम भक्त भी हैं। ताली एक हाथ से नहीं बजती नामदार। ये महाराज ये सब करते आये हैं, क्योंकि हमने उन्हें करने दिया है। बेटी को घर से और बहू को घुंघट से बाहर आने नहीं देते आप। क्या मजाल है एक आदमी की कि वो उनके साथ चरण सेवा मनाये और लोगों को दिखायें। वो चरण सेवा लेते हैं, ये उनकी विकृति है। पर उस दिन आपके घर क्यों लापसी बनती है। जो सौ सालों से चला आ रहा है, वो आज नहीं बदला तो सदियों चलेगा। धर्मगुरु के सिर्फ़ नाम बदलेंगे। किस्से वही रहेंगे। रिलीजियस बिलीफ्स आर इंटेंसली प्रायवेट, पर्सनल एंड सेक्रेड। उनका कोई ठिकाना नहीं होता, स्वरूप नहीं होता। धर्म को मन में मनाया जाता है, बीच चौराहे पर नहीं। ईश्वर साथ चलता है हमारे। उनसे मिलने के लिए किसी ब्रिज की जरूरत नहीं। कोई जेजे, कोई सेवा, कोई प्रथा आपको स्वर्ग का टिकट नहीं दे सकती। वहां तक सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे कर्म पहुंचा सकते हैं। नामदार इस मुकदमे से कुछ और मिले न मिले, सबक जरूर मिला है। सच वही बोलो, अगर सबूत हो। घाव का दुखना जरूरी नहीं, उसका निशान छोड़ना जरूरी है। पर सलाखों के पीछे से भी मैं सवाल पूछता रहूंगा। रणभूमि बदलेगी मेरा, युद्ध नहीं। जिसे साथ देना है वो दे, वरना मैं अकेला ही ठीक हूं।”
करसनदास की गवाही के बाद कोर्ट में सन्नाटा छा जाता है। जब कोई आगे नहीं आता, तो जेजे अपने सिंहासन पर खड़ा होने लगता है। तभी करसनदास की भावो की आवाज़ आती है, “मैं साथ दूंगी…जे जे के सामने मैं दूंगी गवाही।” थोड़ी देर सन्नाटा छाया रहता है। फिर एक और महिला खड़ी होती है और कहती है, मैं भी।
धीरे-धीरे कई महिलाएं गवाही देने के लिए खड़ी हो जाती है। इसके बाद वॉयस ओवर में मुकदमे के बारे में टिप्पणी की जाती है, “अगले सात दिनों में तकरीबन 32 लोगों की गवाहियां ली गयीं।
महिलाएं निडर होकर अपने लिए बोली। पुरुष अपनी पत्नी, बहन, बेटियों के लिए बोले। महाराज की मानहानि करसनदास के कारण नहीं, उन्हीं कीं बुरे बर्ताव के कारण हुई है। ये लैंडमार्क नतीजा देते सर मैथ्यू रिचर्ड सॉसे की अदालत ने 22 अप्रैल 1862 में करसनदास मूलजी को मानहानि के इल्ज़ाम से बरी किया। नतीजा सुनाते हुए मैथ्यू सॉसे ने क्रिमिनल प्रोसिडिंग्स का भी सुझाव दिया।
फैसला सुनाये जाने के बाद महाराज जदुनाथ कोर्ट भवन से बाहर आते हैं। भक्तों की भीड़ अब भी पहले जैसी ही है। फैसले के बावजूद महाराज को लगता है कि उनके भक्त अब भी उनके प्रति वैसे ही श्रद्धावान हैं। चेहरे पर मुस्कान है। लेकिन भक्तों के चेहरे पर गुस्सा है।
उनका सेवक गिरिधर खवास खड़ाऊ हाथ में ले लेता है। इस उम्मीद में कि पहले की तरह इस बार भी भक्त अपने हाथ आगे फैला देंगे और उनकी हथेलियों पर पैर रखते हुए वे अपने रथ की तरफ बढ़ जायेंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता।
आते वक्त जिस उत्साह और तत्परता से भक्त आगे आकर ज़मीन पर लेटकर हाथ आगे कर रहे थे, उस दृश्य के विपरीत इस समय सब बस खड़े रहते हैं। न उनकी जय-जयकार लगती है और न ही कोई दंडवत प्रणाम करने के लिए आगे आता है।
जदुनाथ महाराज नंगे पाव ही आगे बढ़ जाते हैं। वायस ओवर से टिप्पणी जारी रहती है, “इस महाराज लायबेल केस के कारण चरण सेवा जैसी सेवाएं बंद हुईं और जेजे भी कानून से ऊपर नहीं, ये मिसाल लोगों में कायम हुई। आज जिस समाज में हम रह रहे हैं, वो करसनदास मूलजी जैसे महान सुधारकों की देन है, जो सिखा गये हैं कि ईश्वर तक पहुंचने के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं। धर्म भगवान बनने का नहीं, अच्छा इंसान बनने का माध्यम है।”
अगर हम वास्तविक मुकदमे और फ़िल्म में दिखाये गये मुकदमे की तुलना करें, तो जो सबसे बड़ा अंतर है, वह यह कि मूल केस में मानहानि का दावा तो जदुनाथ महाराज ने ही किया था, लेकिन उस मुकदमे में वल्लभ संप्रदाय और महाराजों के आचरण की भी तीखी आलोचना की गयी थी।
इस बात पर भी बल दिया गया था कि धार्मिक परंपरा महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है नैतिक आचरण। धार्मिक परंपरा के नाम पर अनैतिक आचरण को बढ़ावा देना सही नहीं है।
फ़िल्म की पूरी कथा में इस बात को करसनदास मूलजी और लालवानजी महाराज के माध्यम से कहलाया तो गया है, लेकिन वल्लभ संप्रदाय की आलोचना से न केवल बचा गया है, बल्कि उसको महान धर्म और संप्रदाय के रूप में पेश किया गया है और इस बात को बार-बार दोहराया भी गया है।
इसकी वजह शायद यह है कि अगर ऐसा नहीं किया जाता, तो ओटीटी पर भी इस फ़िल्म का रिलीज होना मुमकिन नहीं होता।
फ़िल्म बहुत स्पष्ट रूप में विधवा विवाह और स्त्री शिक्षा का समर्थन करती है। छुआछूत और जातिवाद की आलोचना भी करती है।
कई ऐसे संवाद हैं, जिनके माध्यम से धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील सोच को अभिव्यक्ति दी गयी है। “भगवान से सीधा नाता होता है भक्त का, उसे बीच में किसी जेजे की जरूरत नहीं होती।”
इस बात को मुकदमे के दौरान और अधिक व्यापक संदर्भ में करसनदास से कहलाया गया है, “रिलीजियस बिलीफ्स आर इंटेंसली प्रायवेट, पर्सनल एंड सेक्रेड। उनका कोई ठिकाना नहीं होता, स्वरूप नहीं होता। धर्म को मन में मनाया जाता है, बीच चौराहे पर नहीं। ईश्वर साथ चलता है हमारे। उनसे मिलने के लिए किसी ब्रिज की जरूरत नहीं। कोई जेजे, कोई सेवा, कोई प्रथा, आपको स्वर्ग का टिकट नहीं दिला सकती।”
धार्मिक आचरण की यह व्याख्या दरअसल आधुनिक व्याख्या है और इसके मूल में धर्मनिरपेक्ष अवधारणा है, जहां धर्म को निजी आचरण से जोड़ा गया है, न कि सामाजिक और सार्वजनिक जीवन से।
लेकिन इस व्याख्या के अंत में जो यह कहा गया है कि “वहां तक सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे कर्म पहुंचा सकते हैं”, यह दरअसल एक तरह का धार्मिक विश्वास है, इसका कोई विवेकपरक आधार नहीं है। इसी तरह किशोरी को समझाते हुए करसन का यह कहना कि “सही और गलत का भेद जानने में धर्म की नहीं, बुद्धि की जरूरत होती है।”
उसका यह कथन दरअसल धर्म की अपेक्षा ज्ञान और बुद्धि को अधिक महत्त्व देता है। यह भी एक आधुनिक अवधारणा है जो वस्तुपरकता, तर्कशीलता और विवेकशीलता को आस्था और विश्वास से कहीं ज्यादा उच्च मानती है।
करसनदास का यह मानना भी है कि शिक्षा के द्वारा व्यक्ति ज्ञानवान और बुद्धिमान बन सकता है। लेकिन शिक्षा व्यवस्था की अप्रत्यक्ष आलोचना भी की गयी है। शिक्षित होते हुए भी किशोरी की सोच में बदलाव नहीं आता। इसलिए शिक्षा का वैज्ञानिकपरक होना भी जरूरी है।
यह संयोग नहीं है कि करसनदास ने समाजसुधार से संबंधित पत्रिका निकाली, स्त्री-शिक्षा से संबंधित पत्रिका भी निकाली और विज्ञान से संबंधित पत्रिका भी निकाली। यह उसकी सोच के अपने समय से आगे होने का प्रमाण है।
अदालत में अपना पक्ष रखते हुए करसनदास कहता है कि जहां सत्ता होती है, वहां शोषण होता है। स्पष्ट ही यहां संकेत धार्मिक सत्ता की तरफ तो है ही, राजनीतिक सत्ता सहित हर तरह की सत्ता की ओर है।
इसी तरह स्त्रियों की आज़ादी के संबंध में उसका यह कहना कि “बेटी को घर से और बहू को घुंघट से बाहर नहीं आने देते, यह भी एक तरह स्त्री विरोधी सामाजिक सत्ता है, जो न केवल उनकी आज़ादी छीन लेती है, उनको दिमागी तौर पर इस हद तक गुलाम बना दिया जाता है कि वे धर्म के नाम पर उसी देह को एक ऐसे आदमी को सहर्ष सौंपने के लिए तैयार हो जाती हैं, जिसके बारे में उनके मन में बैठा दिया है कि वे भगवान के वंशज हैं।”
यह केवल वल्लभ संप्रदाय या गुजरात का मामला नहीं हैं। दक्षिण में देवदासी प्रथा इससे कुछ अलग नहीं है। उन्नीसवीं सदी के समाज सुधार आंदोलनों ने धर्म और जाति के नाम पर फैली बहुत-सी बुराइयों को खत्म करने में अहम भूमिका निभायी है, लेकिन समाज सुधार का यह कार्य अभी अधूरा है।
महाराज जैसी फ़िल्में 19वीं सदी के एक भुला दिये गये संघर्ष की याद दिलाने का जरूरी काम करती है, जिसकी प्रासंगिकता को आसानी से पहचाना जा सकता है।
फ़िल्म का विवरण
फ़िल्म का नाम : महाराज ; प्रदर्शन : 22 जून, 2024 को नेटफ्लिक्स पर ; निर्माता : आदित्य चोपड़ा (यशराज फ़िल्म्स एंटरटेनमेंट) ; निर्देशक : सिद्धार्थ पी. मल्होत्रा ; अवधि : 2 घंटे 11 मिनट ; पटकथा और संवाद लेखक : स्नेहा देसाई, विपुल मेहता ; गीतकार : कौसर मुनीर ; संगीत : सोहेल सेन; सिनेमेटोग्राफी : राजीव रवि, संपादन : श्वेता वेंकट मेथ्यू।
अभिनय : जुनैद खान (करसनदास मूलजी), जयदीप अहलावत (जदुनाथ महाराज उर्फ़ जेजे), शालिनी पांडे (किशोरी), शर्वरी वाघ (विराज), मेहर विज (बहुजी), प्रियल गोर (लीलावती), मार्क बेनिंग्टन ( प्रोसिक्युटर बेली), अनन्या अग्रवाल (देवी), जेमी एल्टर (एम्स्टी), एडवर्ड सोनेब्लिक (जस्टिस सोसे), जय उपाध्याय (गिरिधर खवास), विराफ पटेल (सोहराबजी आर्देशिर), सुनील गुप्ता (दादाभाई नौरोजी), वैभव तत्ववादी (डॉ.भाऊ दाजी लाड), संदीप मेहता (मूलजी भाई), स्नेहा देसाई (भाभु) और अन्य।
- लेखक इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, दिल्ली से सेवानिवृत्त प्रोफेसर और जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष हैं.कई पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं. संपर्क : jparakh@gmail.com
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