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राजनांदगांव. कमजोर रणनीति, बिखरा प्रचार और संगठन की बद इंतजामी क्या भूपेश बघेल को महंगी पड़ गई? यह सवाल इसलिए उठेगा की पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को कांग्रेस जीतने योग्य मानकर नांदगांव से चुनाव लड़ाती है और वह अपनी जीत तय मानकर चलते भी है लेकिन उन्हें अंततः सांसद संतोष पांडे के हाथों हार झेलनी पड़ी है।
दरअसल, इसके पीछे बहुत से तथ्य छिपे हुए हैं। भूपेश बघेल को किसान समर्थक नेता माना जाते रहा है। राजनांदगांव संसदीय क्षेत्र में किसानों की बड़ी तादाद है। इन सबके बावजूद ओबीसी वर्ग के बड़े नेता भूपेश बघेल सामान्य वर्ग के नेता संतोष पांडे से क्यूं और कैसे चुनाव हार गए इस पर आने वाले दिनों में और बहस होगी।
जिले भी बनाए फिर भी मिली शिकस्त
प्रदेश के मुख्यमंत्री रहने के दौरान भूपेश बघेल ने राजनांदगांव जिले का विभाजन किया था। खैरागढ़-छुईखदान-गंडई और मोहला-मानपुर-अंबागढ़ चौकी के नाम से दो पृथक जिले बनाकर उन्होंने नांदगांव की दो बाहें अलग कर दी थी।
इसका फायदा उन्हें मोहला मानपुर में तो जरूर मिला लेकिन वह खैरागढ़ में उतना लाभ अर्जित नहीं कर पाए। दूसरी ओर अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान उन्होंने राजनांदगांव से कई शासकीय विभागों के स्थानांतरण को अनुमति दी थी जिसका उन्हें इस चुनाव में जबरदस्त नुकसान उठाना पड़ा।
अकेले राजनांदगांव विधानसभा क्षेत्र से उन्हें इतने अधिक मतों से हार मिली की वह अन्य विधानसभा क्षेत्रों से मिली लीड पर भारी पड़ गई। साथ ही साथ कमजोर रणनीति और संगठन की बदइंतजामी भी उनकी चुनावी जीत के आड़े आई।
पूर्व जिला पंचायत उपाध्यक्ष सुरेन्द्र दास ‘‘दाऊ’’ ने उनके बाहरी प्रत्याशी होने पर सवाल उठाकर इलेक्शन पिक्चर सेट कर दी थी। दाऊ से जुड़ा विवाद अभी थमा भी नहीं था कि भूपेश बघेल की चुनावी कमान संभालने गिरीश देवांगन, विनोद वर्मा जैसे नाम उभरकर सामने आए। इन नामों ने स्थानीय कांग्रेसियों को घर बैठने मजबूर कर दिया।
ये ऐसे नेता थे जो कि राजनांदगांव आते जरूर थे लेकिन इनकी उतनी लोकप्रियता न तो कभी यहां थी और न ही ये राजनांदगांव के कांग्रेसियों को चेहरे और नाम से जानते पहचानते भी थे। जब स्थानीय संगठन यदि मजबूत नहीं हो तो कोई भी चुनाव लड़ना और जीतना असंभव हो जाता है और यही भूपेश बघेल के साथ हुआ।