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राजनांदगांव. चार जिलों की आठ विधानसभा सीटों पर फैले राजनांदगांव लोकसभा सीट से पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के लिए यह चुनाव “टर्निंग पाइंट” साबित होगा. यदि वह जीत गए तो छत्तीसगढ़ में उनसे बडा़ और कोई कांग्रेसी नेता नहीं होगा. . . लेकिन यदि उन्हें हार मिली तो कांग्रेस से बाहर की तुलना में कहीं अधिक विरोध उन्हें पार्टी के भीतर ही झेलना पडे़गा.
पहले कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष और फिर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के रूप में भूपेश बघेल के लिए बीते दस साल एक तरह से खुशनुमा ही रहे हैं. दोनों पदों पर रहने के दौरान उन्होंने पार्टी के अंदर-बाहर के विरोध को एक तरह से सफलतापूर्वक कुचल सा दिया था.
लेकिन हाल के वर्षों में संभवत पहली मर्तबा भूपेश अग्निपरीक्षा के दौर से गुजर रहे हैं. इस दौरान उन्हें अपने पराए का भी भान होगा लेकिन इसे वह किस तरह लेते हैं यह आने वाला वक्त ही बताएगा.
जीते तो बल्ले बल्ले…
ऐसा सुनने में आते रहा है कि पूर्व मुख्यमंत्री बघेल लोकसभा चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे. उस पर से नांदगांव से तो कदापि भी चुनाव में उतरने इच्छुक नहीं थे.
इन सभी सुनी सुनाई बातों के बावजूद कांग्रेस ने उन्हें मैदान में उतारा और वह भी उस नांदगांव से जहां बीते छह में से पांच लोकसभा सदस्य भाजपाई थे.
नांदगांव को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यानि कि आरएसएस की प्रयोगशाला भी माना जाता है. सांसद व वर्तमान प्रत्याशी संतोष पांडेय उसी आरएसएस का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसका विरोध कांग्रेस में राहुल गाँधी के अलावा यदि कोई नेता खुलकर करता है तो वह भूपेश बघेल ही हैं.
मतलब साफ है कि यदि यहाँ से भूपेश जीतते हैं तो संतोष पांडेय की नहीं बल्कि आरएसएस की हार होगी. इसके अलावे भी कई और तथ्य हैं जिन पर गौर करना होगा.
वर्ष 2019 से छत्तीसगढ़ में भूपेश से बडा़ किसान हितैषी नेता शायद ही किसी और को बताया गया होगा. क्या राज्य सरकार अथवा क्या पार्टी का संगठन सभी ने भूपेश है तो भरोसा है का नारा बुलंद कर रखा था.
इससे परे भूपेश लोक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर भी हर दिन अपने विरोधियों को चुनौती देते थे. तब वह नदी में डुबकी लगाने से लेकर गेडी चढ़ने और छोटे से बच्चे को अपनी हथेलियों पर उठाकर एक तरह से संतुलन में अपनी महारत दिखाते थे.
उन्होंने राम वन पथ गमन से लेकर कौशल्या माता का इतना जोरशोर से प्रचार-प्रसार किया था कि आरएसएस के मुखिया को चंदखुरीधाम आना पडा़ था.
इस तरह कि छवि के साथ भूपेश के नेतृत्व में कांग्रेस विधानसभा चुनाव में उतरी थी लेकिन उसे हार का मुँह देखना पडा़. इस हार से भूपेश का चेहरा भी फीका सा पड़ गया है.
इससे इतर यदि वह लोकसभा चुनाव जीत जाते हैं तो अपने कपडो़ं पर पडी़ आरोपों की धूल को झडा़ देंगे. फिर मोदी लहर भी बेमानी हो जाएगी. आरएसएस और उसके शिष्य संतोष निरूत्तर हो जाएंगे.
… लेकिन यदि हारे तो क्या होगा ?
जीत और हार सिक्के के दो पहलू हैं. यदि बघेल इस चुनाव में हार गए तो उन्हें अपनी पार्टी में बाहर से ज्यादा विरोध भीतर से झेलना पडेगा. तब वह आलाकमान से ज्यादा कार्यकर्ताओं के सवालों से घिरेंगे.
तब कोई न कोई सुरेन्द्र दाऊ उनसे यह पूछता नज़र आ सकता है कि उन्होंने मुख्यमंत्री रहने के दिनों में राजनांदगांव से शासकीय कार्यालयों का अनवरत स्थानान्तरण अपने दुर्ग की ओर क्यूं किया था ?
तब राजनांदगांव के काँग्रेसी कार्यकर्ता पूछेंगे कि स्वर्गीय श्रीमती करुणा शुक्ला, गिरीश देवांगन से लेकर भूपेश बघेल तक को क्यूं उनके ऊपर थोपकर उन्हें चुनाव लड़ने से वंचित किया गया.
तब राष्ट्वाद के सामने का एकमात्र विकल्प क्षेत्रीयवाद मानने वाले भूपेश बघेल के समर्थकों गिरीश-वर्मा-नवाज को भी यहाँ के दो चार सवालों से तो रूबरू होना ही पडे़गा.
बहरहाल, यह चुनाव इसलिए भी भूपेश और नांदगांव के लिए महत्वपूर्ण है क्यूं कि उनकी सरकार के दिनों में ही यह जिला विभक्त हुआ था. तब खैरागढ़-छुईखदान-गड़ई और मोहला-मानपुर-अंबागढ़ चौकी को जिले का दर्जा दिया गया था. तब और अब में इन क्षेत्रों में क्या कुछ बदला है इसकी परीक्षा भी भूपेश बघेल के साथ यहाँ की जनता दे रही है.