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रायपुर.
केंद्र सरकार की कथित गलत नीतियों का विरोध किया जाने लगा है. संसद के मानसून सत्र की शुरुआत होते ही व्यापक तौर पर विरोध प्रदर्शन किया गया. इस तरह के प्रदर्शन में किसान, मजदूर के अलावा युवा वर्ग और महिलाएं भी बडी़ संख्या में शामिल हुईं.
दरअसल, अनियंत्रित ढंग से बढ़ती कोरोना महामारी के प्रकोप से पूरा देश परेशान है. इधर आदिवासी क्षेत्रों में भारी बारिश होने से अलग तरह की परेशानी हो रही है.
इसके बावजूद छत्तीसगढ़ में अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति और भूमि अधिकार आंदोलन के आह्वान पर यह आंदोलन किया गया.
छत्तीसगढ़ में किसान संगठनों के साझे मोर्चे की ओर से विजय भाई, संजय पराते, ऋषि गुप्ता आदि बताते हैं कि केंद्र सरकार द्वारा जारी किसान विरोधी अध्यादेशों के खिलाफ और ग्रामीण जनता की आजीविका बचाने की मांग पर यह प्रदर्शन किया गया.
25 से ज्यादा संगठन जुटे थे
बताते हैं कि सैकड़ों गांवों में हजारों किसानों और आदिवासियों ने संसद सत्र के पहले दिन प्रदर्शन किया. आयोजकों के अनुसार प्रदेश में इस मुद्दे पर 25 से ज्यादा संगठन एकजुट हुए हैं, जिन्होंने 20 से ज्यादा जिलों में विरोध प्रदर्शन के कार्यक्रम आयोजित किए हैं.
इन संगठनों में छत्तीसगढ़ किसान सभा, आदिवासी एकता महासभा, छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन, हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति, राजनांदगांव जिला किसान संघ, छग प्रगतिशील किसान संगठन, दलित-आदिवासी मंच, क्रांतिकारी किसान सभा शामिल थे.
इसी तरह छग किसान-मजदूर महासंघ, छग प्रदेश किसान सभा, जनजाति अधिकार मंच, छग किसान महासभा, छमुमो (मजदूर कार्यकर्ता समिति), परलकोट किसान संघ, अखिल भारतीय किसान-खेत मजदूर संगठन ने भी आंदोलन में सहभागिता निभाई.
वनाधिकार संघर्ष समिति, धमतरी व आंचलिक किसान सभा, सरिया आदि संगठन प्रमुख तौर पर आज के आंदोलन में शामिल हुए.आज ही दिल्ली में समन्वय समिति से जुड़े संगठन हजारों की उपस्थिति वाले एक विशाल धरने की भी अगुआई करते रहे.
छत्तीसगढ़ में इन संगठनों की साझा कार्यवाहियों से जुड़े छग किसान सभा के नेता संजय पराते ने आरोप लगाया कि इन कृषि विरोधी अध्यादेशों का असली मकसद न्यूनतम समार्तन मूल्य और सार्वजनिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था से छुटकारा पाना है.
कार्पोरेटों का कृषि पर कब्जा होगा
उन्होंने कहा कि देश का जनतांत्रिक विपक्ष, किसान और आदिवासी इन कानूनों का इसलिए विरोध कर रहे हैं, क्योंकि इससे खेती की लागत महंगी हो जाएगी. फसल के दाम गिर जाएंगे. कालाबाजारी और मुनाफाखोरी बढ़ जाएगी और कार्पोरेटों का हमारी कृषि व्यवस्था पर कब्जा हो जाने से खाद्यान्न आत्मनिर्भरता भी खत्म जो जाएगी. यह किसानों और ग्रामीण गरीबों की बर्बादी का कानून है.
प्रदेश में आज किसान प्रदर्शनों के जरिये केंद्र सरकार से पर्यावरण आंकलन मसौदे को वापस लेने, कोरोना संकट के मद्देनजर ग्रामीण गरीबों को मुफ्त खाद्यान्न और नगद राशि से मदद करने, मनरेगा में 200 दिन काम और 600 रुपये रोजी देने की मांग कर रहे थे.
व्यावसायिक खनन के लिए प्रदेश के कोल ब्लॉकों की नीलामी और नगरनार स्टील प्लांट का निजीकरण रद्द करने, किसानों को स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार सी-2 लागत मूल्य का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में देने और उन्हें बैंकिंग तथा साहूकारी कर्ज़ के जंजाल से मुक्त करने की मांग उठाई गई.
किसान सभा सहित आंदोलन में शामिल हुए तमाम तरह के संगठनों की ओर से संजय पराते बताते हैं कि आदिवासियों और स्थानीय समुदायों को जल-जंगल-जमीन का अधिकार देने के लिए पेसा कानून का क्रियान्वयन करने की भी मांग की गई.
वापस ली जाए बोधघाट परियोजना
इसी तरह राज्य की कांग्रेस सरकार से भी सभी किसानों को पर्याप्त मात्रा में यूरिया खाद उपलब्ध कराने, बोधघाट परियोजना को वापस लेने, हसदेव क्षेत्र में किसानों की जमीन अवैध तरीके से हड़पने वाले अडानी की पर्यावरण स्वीकृति रद्द करने और उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग की गई.
इसी तरह किरंदुल की आलनार पहाड़ी को आरती स्पॉन्ज को न सौंपने, पंजीकृत किसानों के धान के रकबे में कटौती बंद करने, सभी बीपीएल परिवारों को केंद्र द्वारा आबंटित प्रति व्यक्ति 5 किलो अनाज वितरित करने, वनाधिकार दावों की पावती देने, हर प्रवासी मजदूर को अलग मनरेगा कार्ड देकर रोजगार देने और भू-राजस्व संहिता में कॉर्पोरेटपरस्त बदलाव न करने की मांग की गई.
इन संगठनों ने ग्राम सभा के फ़र्ज़ीकरण के जरिये दंतेवाड़ा की आलनार पहाड़ को बेचे जाने के खिलाफ आदिवासियों के संघर्ष का समर्थन भी किया है. उनके शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिसिया दमन की निंदा की है.
इन संगठनों से जुड़े किसान नेताओं ने कई स्थानों पर प्रशासन के अधिकारियों को ज्ञापन भी सौंपे हैं. स्थानीय स्तर पर आंदोलनकारी समुदायों को संबोधित भी किया है. अपने संबोधन में इन किसान नेताओं ने “वन नेशन, वन एमएसपी” की मांग करते हुए कहा कि मोदी सरकार की कॉर्पोरेटपरस्त नीतियों के कारण देश आज गंभीर आर्थिक मंदी में फंस गया है.
इस मंदी से निकलने का एकमात्र रास्ता यही है कि आम जनता की जेब मे पैसे डालकर और मुफ्त खाद्यान्न उपलब्ध करवाकर उसकी क्रय शक्ति बढ़ाई जाए, ताकि बाजार में मांग पैदा हो. लेकिन इसके बजाए यह सरकार अध्यादेशों के जरिए कृषि कानूनों में कॉर्पोरेटपरस्त बदलाव करने पर तुली है. सरकार की इन किसान-आदिवासी विरोधी नीतियों के खिलाफ पूरे देश में संघर्ष तेज किया जाएगा.