प्रथम गुरू का 555 वाँ प्रकाश पर्व : जागृति मँडल पहुँची शोभायात्रा का हुआ स्वागत

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रायपुर. 

प्रथम गुरू पूज्य श्री गुरुनानक देव जी का 555 वाँ प्रकाश पर्व 15 नवंबर को कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाया जाएगा. प्रकाश पर्व का उत्साह अभी से दिखाई देने लगा है. राजधानी रायपुर में निकाली गई शोभायात्रा का जागृति मँडल पहुँचने पर धूमधाम से स्वागत किया गया.

उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रांत स्तरीय कार्यालय का नाम जागृति मँडल है. शोभा यात्रा, प्रभात फेरी का वहीं पर मातृशक्ति के नेतृत्व में भजनों के बीच स्वागत किया गया.

श्री गुरुनानक देव जी के जीवन कृतित्व को व्यक्त करने वाले अत्यंत प्रेरक कीर्तन इस अवसर पर प्रस्तुत किए गए. आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने पालकी साहब में पुष्प अर्पित कर आशीर्वाद लिया.

प्रांत संघचालक टोपलाल वर्मा ने अपने उद्धबोधन में कहा कि श्री गुरुनानक देवजी का संपूर्ण जीवन हिंदुत्व और धर्म की रक्षा में बीता. आज संपूर्ण समाज को उनके जीवन से प्रेरणा लेकर राष्ट्र हित में कार्य करने की आवश्यकता है. श्री गुरुनानक देव भारत मां के सच्चे सुपुत्र व प्रेरणापुंज हैं.

संघ के स्वयंसेवकों ने पालकी साहब में पुष्प अर्पित कर उनके बताए मार्ग पर चलते हुए राष्ट्रहित में कार्य करने की मंगलकामना की. प्रभात फेरी के अवसर पर नारायण नामेदव ने पीता वारया ते लाल चारो वारे ओ हिंदू तेरी शान….गीत गाया. इससे लोग राष्ट्रभक्ति के रंग में रंग गए.

कार्यक्रम के दौरान प्रचारक शांताराम सर्राफ, प्रांत कार्यवाह चंद्रशेखर देवांगन, प्रांत प्रचारक अभय राम वर्मा, सह प्रांत प्रचारक नारायण नामदेव, सह प्रांत प्रचार प्रमुख संजय तिवारी, महानगर संघचालक घनश्याम बिड़ला, सज्जन सिंह, जागीर सिंह, कुलविंदर सिंह, ज्ञानी सिंह सहित संघ के कार्यकर्ता व समाजसेवी उपस्थित थे.

जानिए गुरु नानक देव के बारे में…

नानक का जन्म 15 अप्रैल 1469 को हुआ था. उनके पिता तलवंडी गाँव में व्यवसाय करते थे. नानक की एक बड़ी बहन थी, जिसने 1475 में जय राम से शादी की थी. नानक शुरू में अपनी बहन और बहनोई के साथ रहने लगे.

16 साल की उम्र में, उन्होंने दौलत खान लोदी के अधीन काम करना शुरू कर दिया. 24 सितंबर 1487 को, उन्होंने माता सुलक्कनी से विवाह किया. नानक सिख धर्म के संस्थापक थे. आस्था, सामाजिक न्याय के लिए प्रयास, ईमानदार आचरण और सभी के लिए समृद्धि सिख धर्म के कुछ अंतिम सिद्धांत थे.

सिख समुदाय आज गुरु नानक को अपने समुदाय की सर्वोच्च शक्ति के रूप में पूजता है. गुरु नानक द्वारा 974 भजनों का योगदान दिया गया है.
 
गुरु नानक देव जी ने सिख समुदाय की नींव रखी थी. उन्होंने ‘इक ओंकार’ का नारा दिया था, जिसका मतलब है कि ईश्वर एक है. 

जयंती के दिन गुरुद्वारों में अखंड पाठ का आयोजन किया जाता है. गुरु नानक जयंती पर भजन गायन और ‘लंगर सेवा’ का आयोजन किया जाता है. 

इनके पिता का नाम मेहता कालूचँद खत्री ब्राह्मण तथा माता का नाम तृप्ता देवी था. तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया.

इनकी बहन का नाम नानकी था. गुरु नानक के जीवन के बारे में जो जानकारी है, वह मुख्य रूप से किंवदंतियों और परंपराओं के माध्यम से मिली है. कोई संदेह नहीं है कि उनका जन्म 1469 में राय भोई दी तलवंडी गांव में हुआ था.

उनके पिता व्यापारी खत्री जाति की एक उपजाति के सदस्य थे. इनका जन्म रावी नदी के किनारे स्थित तलवंडी नामक गाँव में कार्तिकी पूर्णिमा को एक ब्राह्मण कुल में हुआ था. तलवंडी पाकिस्तान में पंजाब प्राँत का एक नगर है.

कुछ विद्वान इनकी जन्मतिथि 29 अक्तूबर, 1469 मानते हैं. प्रचलित तिथि कार्तिक पूर्णिमा ही है, जो अक्टूबर – नवंबर में दीवाली के 15 दिन बाद पड़ती है.

बचपन से इनमें प्रखर बुद्धि के लक्षण दिखाई देने लगे थे. लड़कपन ही से ये सांसारिक विषयों से उदासीन रहा करते थे. पढ़ने-लिखने में इनका मन नहीं लगा.

7-8 साल की उम्र में इनकी शाला छूट गई थी क्योंकि भगवत प्राप्ति के सँबँध में इनके प्रश्नों के आगे अध्यापक ने हार मान ली. वे इन्हें ससम्मान घर छोड़ने आ गए. तत्पश्चात् सारा समय वे आध्यात्मिक चिन्तन और सत्संग में व्यतीत करने लगे.

बचपन के समय में कई चमत्कारिक घटनाएँ घटीं जिन्हें देखकर गाँव के लोग इन्हें दिव्य व्यक्तित्व मानने लगे. बचपन के समय से ही इनमें श्रद्धा रखने वालों में इनकी बहन नानकी तथा गाँव के शासक राय बुलार प्रमुख थे.

नानक के सिर पर सर्प द्वारा छाया करने का दृश्य देखकर राय बुलार का नतमस्तक होना महत्वपूर्ण है. इनका विवाह बालपन में सोलह वर्ष की आयु में गुरदासपुर जिले के अंतर्गत लाखौकी नामक स्थान के रहने वाले मूला की कन्या सुलक्खनी से हुआ था.

32 वर्ष की अवस्था में इनके प्रथम पुत्र श्रीचन्द का जन्म हुआ. चार वर्ष पश्चात् दूसरे पुत्र लखमीदास का जन्म हुआ. दोनों लड़कों के जन्म के उपरान्त 1507 में नानक अपने परिवार का भार अपने श्वसुर पर छोड़कर मरदाना, लहना, बाला और रामदास इन चार साथियों को लेकर तीर्थयात्रा के लिये निकल पडे़. पुत्रों में से श्रीचन्द आगे चलकर उदासी सम्प्रदाय के प्रवर्तक हुए.

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