नांदगाँव के अब्दुल को न्याय पाने में 25 साल क्यूं और कैसे लगे?

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राजनांदगाँव. महज किसी संस्था से जोडे़ होने के चलते किसी व्यक्ति को न केवल अपनी नौकरी गँवानी पडे़ बल्कि 25 साल तक अदालतों के चक्कर लगाने पडे़ तो समझिए उसकी स्थिति परिस्थिति को. ऐसा ही कुछ अब्दुल रहमान अहमद के साथ हुआ है. ढा़ई दशक बाद लेकिन उन्होंने अपने न्याय की लडा़ई जीत ली है.

31अगस्त 1989 का वह दिन जब अब्दुल के घर पर मिठाई बाँटी गई थी. महानदी कछार के मुख्य अभियंता कार्यालय में नौकरी लगने की खुशी मना रहा अब्दुल का परिवार अभी जश्न में डूबा हुआ ही था कि उनका स्थानांतरण इस दफ्तर से अधीक्षण अभियंता कार्यालय कर दिया गया. यह 16 अक्टूबर 1989 की बात है.

बस यहीं से अब्दुल की परेशानियों का भी समय शुरू हुआ. 19 अप्रैल 1991 के आसपास अब्दुल से चरित्र प्रमाण पत्र माँगा गया. यह माँग प्रमुख अभियंता के आदेश पर की गई थी.

अब्दुल ने चरित्र प्रमाण पत्र जमा करवा दिया. प्रमाण पत्र का सत्यापन करवाया गया. इसमें उन पर आनंद मार्ग संस्था से जुडे़ होने का आरोप मढ़ दिया गया. इस आधार पर उन्हें सेवा से मुक्त करने का आदेश भी जारी कर दिया गया.

मप्र के समय का मामला, छग में हुआ फैसला . . .

उल्लेखनीय है कि मामला जब हुआ था तब छत्तीसगढ़ पृथक राज्य नहीं बना था. तब के मध्यप्रदेश के राज्य प्रशासनिक अधिकरण ने अब्दुल के न्याय माँगने पर उन्हें सेवा में बहाल करने का आदेश दिया.

मतलब, मुख्य अभियंता का सेवा मुक्त करने का आदेश खारिज हो गया. अंततः जल संसाधन विभाग ने अब्दुल रहमान अहमद की सेवा तो बहाल कर दी लेकिन वेतन व अन्य लाभ से उन्हें वंचित कर दिया.

वर्ष 1991 से 1999 . . . कुल आठ साल के अपने वेतन व अन्य भत्तों के लिए अब्दुल ने फिर ट्रिब्यूनल का दरवाजा खटखटाया. जब तक सुनवाई पूरी हो पाती मप्र से पृथक कर छत्तीसगढ़ अलग राज्य बना दिया गया.

बिलासपुर में छत्तीसगढ़ के हाईकोर्ट की स्थापना के साथ ही मप्र से यहाँ के केस स्थानांतरित होकर आ गए. ऐसा ही कुछ ट्रिब्यूनल केसेस के साथ भी हुआ.

यहाँ यह केस अवमानना याचिका के रूप में पंजीबद्ध हुआ. प्रकरण की सुनवाई के दौरान जब राज्य सरकार की तरफ से जवाब देने नियुक्त ला आफिसर्स उपस्थित नहीं हुए तो कोर्ट ने एकतरफा फैसला सुना दिया. फिर भी समस्या कम नहीं हुई और अब्दुल रहमान को राहत नहीं मिली.

पूर्व के अपने बकाए वेतन व अन्य भत्तों को शासन से प्राप्त करने एक बार फिर से अब्दुल ने छग हाईकोर्ट का रूख किया. वकील के माध्यम से उन्होंने 2006 में याचिका दायर की.

इस बार उनके पक्ष में फैसला सुनाते हुए जस्टिस गौतम भादुड़ी ने जो टिप्पणी की है वह इस तरह के मामलों में आने वाले समय में नजीर बन सकती है. जस्टिस भादुड़ी ने अपने फैसले में लिखा है कि . . .

” जब किसी सरकारी कर्मचारी की बर्खास्तगी, अनिवार्य सेवानिवृत्ति को हाईकोर्ट से रद्द कर दिया जाता है, याचिकाकर्ता को बिना किसी अतिरिक्त जाँच के बहाली का आदेश दिया जाता है, तब वह इन परिस्थितियों में सेवा से बाहर होने की अवधि का पूरा वेतन – भत्ता और अन्य लाभ पाने का हकदार होता है.”

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